नित्य-अनित्य-अभ्यास / विवेक
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When an aspirant takes up the practice of नित्य-अनित्य-अभ्यास seriously and regularly ponders over this question some-day eventually he starts to 'see' what is transient and what is permanent. Bringing attention from outward world and its things, one begins to see the 'me' is comparatively stable and permanent. But proceeding further on, he realizes that 'me' as thought , though forms the support of whole 'experience' this too appears and disappears as in the 3 states of mind, namely the waking, dream and deep sleep. One then realizes with full conviction the consciousness without even a trace of 'me' is the Reality unchangeable, immutable, अविकारी, while everything other than this is विकारी > always keeps undergoing change. (Because you wanted to stay in association with me, so I dared to write this.
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जब 'सत्य' का जिज्ञासु ध्यान से 'नित्य क्या है और अनित्य क्या है?' इसका गंभीरता से विचार करता है तो उसे पहले तो संसार और इसके समस्त 'विषय', सुख-दुःख 'अनुभव-मात्र' 'अनित्य' जाना पड़ते हैं, जबकि 'मैं' तुलनात्मक रूप से स्थिर और 'नित्य' जान पड़ता है। और आगे खोजने का प्रयास करते हुए उसे समझ में आता है कि यह 'मैं' भी 'विचार-रूप' में आता-जाता रहता है, और सुषुप्ति, स्वप्न और जाग्रत अवस्था में ही होता है।स्पष्ट है कि इस 'मैं-विचार' का आधार कोई अविकारी तत्व है जिसमें 'मैं' का नितांत अभाव है।
इस अधिष्ठान की पहचान ही विवेक का चरम है।
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When an aspirant takes up the practice of नित्य-अनित्य-अभ्यास seriously and regularly ponders over this question some-day eventually he starts to 'see' what is transient and what is permanent. Bringing attention from outward world and its things, one begins to see the 'me' is comparatively stable and permanent. But proceeding further on, he realizes that 'me' as thought , though forms the support of whole 'experience' this too appears and disappears as in the 3 states of mind, namely the waking, dream and deep sleep. One then realizes with full conviction the consciousness without even a trace of 'me' is the Reality unchangeable, immutable, अविकारी, while everything other than this is विकारी > always keeps undergoing change. (Because you wanted to stay in association with me, so I dared to write this.
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जब 'सत्य' का जिज्ञासु ध्यान से 'नित्य क्या है और अनित्य क्या है?' इसका गंभीरता से विचार करता है तो उसे पहले तो संसार और इसके समस्त 'विषय', सुख-दुःख 'अनुभव-मात्र' 'अनित्य' जाना पड़ते हैं, जबकि 'मैं' तुलनात्मक रूप से स्थिर और 'नित्य' जान पड़ता है। और आगे खोजने का प्रयास करते हुए उसे समझ में आता है कि यह 'मैं' भी 'विचार-रूप' में आता-जाता रहता है, और सुषुप्ति, स्वप्न और जाग्रत अवस्था में ही होता है।स्पष्ट है कि इस 'मैं-विचार' का आधार कोई अविकारी तत्व है जिसमें 'मैं' का नितांत अभाव है।
इस अधिष्ठान की पहचान ही विवेक का चरम है।
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