Saturday, 7 October 2017

एक कविता अधूरी सी

--
एक कविता अधूरी सी
( जब ’मन’ नहीं होता!)
--
क्या कोई कभी ’मन’ से थक पाता है?
क्या किसी का ’मन’ उससे थक जाता है?
क्या शायद तब, उसे नींद आ जाती है?
क्या नींद आने पर ’मन’ थक जाता है?
’कौन’ ढूँढता, खोजता है इसका उत्तर?
’जो’ खोजता है, क्या है ’मन’ से भिन्न?
फिर कोई क्यों कहता है : ’मैं’, मेरा ’मन’?
क्या ’मन’ ही कहता है ’मैं’, ’मेरा मन’?
जब हो जाती है बुद्धि किसी की कुंठित,
क्या तब थक जाता है  उसका ’मन’?
बुद्धि किसी की जब हो जाती है कुंठित,
क्या तब ’वह’ ’मन’ से थक जाता है?
’वह’ है कौन जो कि थक जाता है ’मन’ से?
’वह’ है कौन कि जिससे ’मन’ थक जाता है?
--

No comments:

Post a Comment