Sunday, 29 October 2017

आँवला और तुलसी

स्कंद-पुराण, वैष्णव-खण्ड, कार्त्तिकमास-माहात्म्य से दो कथाएँ:
१.पूर्वकाल में दुर्वासा के शाप से जब इन्द्र का ऐश्वर्य छिन गया था, उस समय ब्रह्मा आदि देवताओं और असुरों ने मिलकर क्षीरसागर का मंथन किया । उससे ऐरावत हाथी, कल्पवृक्ष, चन्द्रम्, लक्ष्मी, उच्चैःश्रवा घोड़ा, कौस्तुभमणि तथा धन्वन्तरिरूप भगवान् श्रीहरि और दिव्य ओषधियाँ प्रकट हुईं । तदनन्तर अजरता और अमरता प्रदान करनेवाले उस अमृतकलश को दोनों हाथों में लिए हुए श्रीविष्णु बड़े हर्ष को प्राप्त हुए । उनके नेत्रों से आनन्दाश्रु की कुछ बूँदें उस अमृत के ऊपर गिरीं । उनसे तत्काल ही मंडलाकार तुलसी उत्पन्न हुईं । 
२.पूर्वकाल में जब सारा जगत् एकार्णव के जल में निमग्न हो गया था, समस्त चराचर प्राणी नष्ट हो गए थे, उस समय देवाधिदेव सनातन परमात्मा ब्रह्माजी अविनाशी परब्रह्म का जप करने लगे थे । ब्रह्म का जप करते-करते उनके आगे श्वास निकला । साथ ही भगवद्दर्शन के अनुरागवश उनके नेत्रों से जल निकल आया । प्रेम के आँसुओं से परिपूर्ण वह जल की बूँद पृथ्वी पर गिर पड़ी । उसी से आँवले का महान् वृक्ष उत्पन्न हुआ, जिसमें बह्त सी शाखाएँ उपशाखाएँ निकली थीं । वह फलों के भार से लदा हुआ था । सब वृक्षों में सबसे पहले आँवला ही प्रकट हुआ, इसलिए उसे ’आदिरोह’ कहा गया । ब्रह्मा ने पहले आँवले को उत्पन्न किया । उसके बाद समस्त प्रजा की सृष्टि की । जब देवता आदि की भी सृष्टि हो गयी, तब वे उस स्थान पर अये जहाँ भगवान् विष्णु को प्रिय लगनेवाला आँवला वृक्ष था ।
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