पुरुष या प्रकृति की प्रवृत्ति का तो नहीं पता मुझे स्वयं में पर ज्ञानना की प्रवृत्ति का प्राकट्य हुआ है
मुझे सिर्फ़ बोधि वृक्ष की कामना है
शायद विद्योत्तमा होने की शुरुआत कालिदास हो कर हो।
अर्धनारीश्वर होने का क्या अर्थ है? एक जिज्ञासा है।
"अथातो ब्रह्म जिज्ञासा"
-इस सूत्र से क्या समझना चाहिए ?
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यह ब्रह्म-सूत्र (ग्रंथ) का प्रथम सूत्र है ।
जब मनुष्य को अपने संपूर्ण अर्जित किए हुए ज्ञान की सीमितता, व्यर्थता और अधूरापन अनुभव हो जाता है तब उसमें यह जिज्ञासा पैदा होती है कि क्या ऐसा ज्ञान भी है जो सीमित, व्यर्थ या अधूरा (खंडित) न हो?
इंद्रिय-ज्ञान इंद्रियों के माध्यम से होता है इसलिए ’परोक्ष’ इन्डायरेक्ट indirect / mediate है ।
अनुभव इंद्रियज्ञान है ।
इंद्रियों का ज्ञान इंद्रियों की ग्रहण-क्षमता तक सीमित और अधूरा होता है । आँखों से देखा गया, कानों से सुना गया ज्ञान भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है और एक के अनुभव / ज्ञान को दूसरे में ’अनुवादित’ नहीं किया जा सकता । आप ’अनुवाद’ के लिए कोई भाषा ईजाद भी कर लें तो भी वह एक ’प्रोग्राम’ होगा और आप ’कोड्स’ / codes और ’कोडिंग’/ coding ही जानते हैं । दृष्टि के अनुभव को श्रवण के अनुभव में रूपांतरित नहीं किया जा सकता और जैसे तैसे कर भी लिया जाए तो ऐसे असंख्य अनुवाद हो सकते हैं जिनमें से कौन सा पूरी तरह सही है इसका प्रमाण नहीं दिया जा सकता ।
बुद्धि के द्वारा इंद्रिय-अनुभव का ऐसा ही एक अनुवाद किया जाता है ।
और बुद्धि तर्क-आश्रित होने से असंख्य प्रकार की है ।
फिर बुद्धि की ही भाषा में कोई शाब्दिक-सिद्धान्त गढ़ लिया जाता है और उस सिद्धान्त को ’प्रमाण’ मान लिया जाता है ।
इस प्रकार बुद्धि भी ’परोक्ष’ इन्डायरेक्ट indirect / mediate है ।
’जिसे’ इंद्रियजन्य या बुद्धिजन्य ज्ञान होता है उसका अस्तित्व स्वयं सिद्ध है और उसे ही मनुष्यमात्र ’मैं’ शब्द से व्यक्त करता है । लेकिन यह ’मैं’ जिसका अर्थ है उसे जाननेवाला दूसरा कोई ’मैं’ नहीं है । जैसे इंद्रियों और बुद्धि से जिसे जाना जाता है, उसे जाननेवाला उनसे पृथक् है, वैसे ’मैं’ को जाननेवाला ’मैं’ से पृथक् नहीं है ।
शायद यह आपको कठिन या निरर्थक श्रम लग रहा हो किंतु इस श्रम से गुज़रने पर ही उस ’ज्ञान’ से परिचय होता है जो ’अपरोक्ष’ (immediate / direct) ज्ञान है । जहाँ ज्ञाता-ज्ञान और ज्ञेय में विभाजन नहीं है । वही वस्तु ज्ञाता है, ज्ञान भी है और ज्ञेय भी है ।
अब इसे दूसरे ढंग से देखें ।
जो भी ज्ञात है वह ’जानकारी’ है और जो अज्ञात जान पड़ता है उसे जानते ही वह ’ज्ञात’ के रूप में ग्रहण कर लिया जाता है ।
इस प्रकार हम बस ’ज्ञात’ से ’ज्ञात’ में ही घूमते रहते हैं और सोचते हैं कि कभी ज्ञात पूर्ण हो सकेगा ।
’पर-ज्ञान’ / ’परम-ज्ञान’ बोधि-वृक्ष मोहक शब्द हैं किंतु जब तक बुद्धि और तर्क की सीमितता, व्यर्थता और अधूरापन हम पर पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो जाता इन शब्दों का हमें कतई उपयोग नहीं है ।
जब तक संसार की प्रत्येक वस्तु को ’नित्य-अनित्य’ की कसौटी पर कसते हुए हममें उन सभी वस्तुओं को ’अनित्य’ अनुभव कर उनके प्रति गहरा असंतोष अर्थात् वैराग्य उत्पन्न नहीं हो जाता तब तक हममें उनकी तुलना में ’नित्य’ अर्थात् उन सबके कारणस्वरूप तत्व (ब्रह्म) को जानने की उत्सुकता या कौतूहल तो हो सकता है किंतु गहरी उत्कंठा नहीं होगी ।
शास्त्रों को पढ़ भी लिया तो ज्ञात पर ज्ञात का आवरण चढ़ता रहेगा ब्रह्म को नहीं जाना जा सकेगा ।
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सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि इन तथाकथित ज्ञानियों ने हमारे मन में इतनी नई-नई धारणाएँ पैदा कर हमें इतना भ्रमित कर दिया है कि हमारी वास्तविक आवश्यकता क्या है इस पर से हमारा ध्यान हटाकर जो हमें अनावश्यक और क्षतिकारक है उसके प्रति हमारे मन में कृत्रिम लालसा जगा दी है । हमारा चञ्चल मन बस इधर से उधर दौड़ता रहता है और हम दुःखी रहते हैं ।
--
’अर्धनारीश्वर’ की गुण-सूत्रात्मक (जीनेटिक) व्याख्या भी की जा सकती है जो शायद विज्ञान के प्रशंसकों को प्रभावित भी करे, लेकिन वह अर्धनारीश्वर के वास्तविक अर्थ का विरूपण भी होगा ।
’अर्धनारीश्वर’ की वैदिक और पौराणिक व्याख्या अधिक व्यापक अर्थयुक्त होगी किंतु किसे चाहिए?
मर्म का मरहम बना सकना मेरे बस में नहीं,
दर्द का मरहम बना सकता हूँ किसको चाहिए?
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मुझे सिर्फ़ बोधि वृक्ष की कामना है
शायद विद्योत्तमा होने की शुरुआत कालिदास हो कर हो।
अर्धनारीश्वर होने का क्या अर्थ है? एक जिज्ञासा है।
"अथातो ब्रह्म जिज्ञासा"
-इस सूत्र से क्या समझना चाहिए ?
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यह ब्रह्म-सूत्र (ग्रंथ) का प्रथम सूत्र है ।
जब मनुष्य को अपने संपूर्ण अर्जित किए हुए ज्ञान की सीमितता, व्यर्थता और अधूरापन अनुभव हो जाता है तब उसमें यह जिज्ञासा पैदा होती है कि क्या ऐसा ज्ञान भी है जो सीमित, व्यर्थ या अधूरा (खंडित) न हो?
इंद्रिय-ज्ञान इंद्रियों के माध्यम से होता है इसलिए ’परोक्ष’ इन्डायरेक्ट indirect / mediate है ।
अनुभव इंद्रियज्ञान है ।
इंद्रियों का ज्ञान इंद्रियों की ग्रहण-क्षमता तक सीमित और अधूरा होता है । आँखों से देखा गया, कानों से सुना गया ज्ञान भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है और एक के अनुभव / ज्ञान को दूसरे में ’अनुवादित’ नहीं किया जा सकता । आप ’अनुवाद’ के लिए कोई भाषा ईजाद भी कर लें तो भी वह एक ’प्रोग्राम’ होगा और आप ’कोड्स’ / codes और ’कोडिंग’/ coding ही जानते हैं । दृष्टि के अनुभव को श्रवण के अनुभव में रूपांतरित नहीं किया जा सकता और जैसे तैसे कर भी लिया जाए तो ऐसे असंख्य अनुवाद हो सकते हैं जिनमें से कौन सा पूरी तरह सही है इसका प्रमाण नहीं दिया जा सकता ।
बुद्धि के द्वारा इंद्रिय-अनुभव का ऐसा ही एक अनुवाद किया जाता है ।
और बुद्धि तर्क-आश्रित होने से असंख्य प्रकार की है ।
फिर बुद्धि की ही भाषा में कोई शाब्दिक-सिद्धान्त गढ़ लिया जाता है और उस सिद्धान्त को ’प्रमाण’ मान लिया जाता है ।
इस प्रकार बुद्धि भी ’परोक्ष’ इन्डायरेक्ट indirect / mediate है ।
’जिसे’ इंद्रियजन्य या बुद्धिजन्य ज्ञान होता है उसका अस्तित्व स्वयं सिद्ध है और उसे ही मनुष्यमात्र ’मैं’ शब्द से व्यक्त करता है । लेकिन यह ’मैं’ जिसका अर्थ है उसे जाननेवाला दूसरा कोई ’मैं’ नहीं है । जैसे इंद्रियों और बुद्धि से जिसे जाना जाता है, उसे जाननेवाला उनसे पृथक् है, वैसे ’मैं’ को जाननेवाला ’मैं’ से पृथक् नहीं है ।
शायद यह आपको कठिन या निरर्थक श्रम लग रहा हो किंतु इस श्रम से गुज़रने पर ही उस ’ज्ञान’ से परिचय होता है जो ’अपरोक्ष’ (immediate / direct) ज्ञान है । जहाँ ज्ञाता-ज्ञान और ज्ञेय में विभाजन नहीं है । वही वस्तु ज्ञाता है, ज्ञान भी है और ज्ञेय भी है ।
अब इसे दूसरे ढंग से देखें ।
जो भी ज्ञात है वह ’जानकारी’ है और जो अज्ञात जान पड़ता है उसे जानते ही वह ’ज्ञात’ के रूप में ग्रहण कर लिया जाता है ।
इस प्रकार हम बस ’ज्ञात’ से ’ज्ञात’ में ही घूमते रहते हैं और सोचते हैं कि कभी ज्ञात पूर्ण हो सकेगा ।
’पर-ज्ञान’ / ’परम-ज्ञान’ बोधि-वृक्ष मोहक शब्द हैं किंतु जब तक बुद्धि और तर्क की सीमितता, व्यर्थता और अधूरापन हम पर पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो जाता इन शब्दों का हमें कतई उपयोग नहीं है ।
जब तक संसार की प्रत्येक वस्तु को ’नित्य-अनित्य’ की कसौटी पर कसते हुए हममें उन सभी वस्तुओं को ’अनित्य’ अनुभव कर उनके प्रति गहरा असंतोष अर्थात् वैराग्य उत्पन्न नहीं हो जाता तब तक हममें उनकी तुलना में ’नित्य’ अर्थात् उन सबके कारणस्वरूप तत्व (ब्रह्म) को जानने की उत्सुकता या कौतूहल तो हो सकता है किंतु गहरी उत्कंठा नहीं होगी ।
शास्त्रों को पढ़ भी लिया तो ज्ञात पर ज्ञात का आवरण चढ़ता रहेगा ब्रह्म को नहीं जाना जा सकेगा ।
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सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि इन तथाकथित ज्ञानियों ने हमारे मन में इतनी नई-नई धारणाएँ पैदा कर हमें इतना भ्रमित कर दिया है कि हमारी वास्तविक आवश्यकता क्या है इस पर से हमारा ध्यान हटाकर जो हमें अनावश्यक और क्षतिकारक है उसके प्रति हमारे मन में कृत्रिम लालसा जगा दी है । हमारा चञ्चल मन बस इधर से उधर दौड़ता रहता है और हम दुःखी रहते हैं ।
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’अर्धनारीश्वर’ की गुण-सूत्रात्मक (जीनेटिक) व्याख्या भी की जा सकती है जो शायद विज्ञान के प्रशंसकों को प्रभावित भी करे, लेकिन वह अर्धनारीश्वर के वास्तविक अर्थ का विरूपण भी होगा ।
’अर्धनारीश्वर’ की वैदिक और पौराणिक व्याख्या अधिक व्यापक अर्थयुक्त होगी किंतु किसे चाहिए?
मर्म का मरहम बना सकना मेरे बस में नहीं,
दर्द का मरहम बना सकता हूँ किसको चाहिए?
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