Sunday, 1 October 2017

पुत्तलिका-तन्त्र

पुत्तलिका-तन्त्र
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प्रत्येक वर्ण देवता है अर्थात् प्राण और चेतना का एक युग्म जो एक ओर तो एक सुनिश्चित ध्वनि-कंपन है तो दूसरी ओर वह चेतना है जो उस कंपन से युक्त वह वैश्विक चेतना है जो व्यक्ति-सत्ता के रूप में उस कंपन की अभिमानी देवता है । यह इस अर्थ में व्यावहारिक सत्य है कि वर्णों के सुनिश्चित संयोग से ऐसी चेतन-सत्ताएँ पाई जाती हैं जिनका अस्तित्व वेद से प्रमाणित तो है ही, वैदिक कर्मों के सुनिश्चित अनुष्ठान से उनसे संपर्क भी किया जा सकता है और चूँकि वर्ण नित्य और सनातन अर्थात् अमर है, इसलिए जैसे भौतिक विज्ञान में अनेक भिन्न-भिन्न तत्वों अर्थात् प्रकृति  के गुणों को परिभाषित कर उस आधार पर उन तत्वों का चरित्र तय किया जाता है वैसे ही अध्यात्म-विद्या में असंख्य देवताओं की सृष्टि की जा सकती है और उनसे किसी प्रयोजन की सिद्धि भी की जा सकती है । ये असंख्य देवता भी मूलतः मनुष्य के द्वारा उच्चारित किए जा सकनेवाले वर्णों की समष्टि है इसलिए कुछ ऐसे वर्ग (मातृकाएँ / Matrix) हैं जिनमें से प्रत्येक में भिन्न-भिन्न देवताओं का समुच्चय (Set) होता है । इसलिए ऐसा प्रत्येक देवता एक या एक से अधिक वर्ग में भिन्न-भिन्न उपाधि-सहित भिन्न-भिन्न लक्षणों और गुणों से युक्त एक तत्व / element / member होता है । ऐसे कुछ सीमित तत्वों से बने वर्ग / matrix उस बड़े वर्ग के उपसमुच्चय subset होते हैं। इस पूरे देवता-तंत्र को आज के गणित 'Topology' और modern algebra की भाषा में बहुत सटीक तरीके से समझा / समझाया जा सकता है।
किसी भी देवता की एक प्रतिमा होती है जो इन लक्षणों और गुणों के आधार पर निर्मित की गई होती है जिसमें प्राण की प्रतिष्ठा किए जाते ही वह देवता जागृत हो जाता है । यह सारा प्रयोग इनके ज्ञान-सहित भी किया जा सकता है और संयोगवश, अज्ञान-सहित भी होता रहता है जिससे प्रकृति में असंख्य जीव-चेतनाएँ स्थूल, सूक्ष्म या कारण-मात्र देह-धारी के रूप में व्यक्त होती हैं ।
इस प्रकार ’प्’ वर्ण, जो किसी देवता का लक्षण है, स्वतंत्र रूप से तथा अन्य किन्हीं एक अथवा अनेक वर्णों से युक्त होकर भिन्न-भिन्न रूप लेता है, एक सुनिश्चित अर्थ और कार्य का द्योतक है । यहाँ उदाहरण के रूप में इस वर्ण को प्रस्तुत करने का ध्येय यह है कि इसके कुछ रूपों का अध्ययन किया जाए ।
प् + अ, प् + आ, प् + इ, प् + ई, प् + उ, प् + ऊ, प् + ऋ, प् + ॠ, प् + ए, प् + ऐ, प्  + ओ, प् + औ, आदि ।
पुनः इन स्वरों से युक्त होने पर ’प्’ का एक विशिष्ट रूप प्राप्त होता है जो ’प’ ’पा’ ’पि’, ’पी’, ’पु’, ’पू’, ’पृ’, ’पॄ’, ’पे’, ’पै’, ’पो’, ’पौ’, इतादि रूप लेते हैं ।
विसर्ग और अनुस्वार भी ऐसे ही वर्ण और देवता हैं  जो उपरोक्त प्रत्येक संयुक्त वर्ण से जुड़ने पर ’पः’, ’पाः’ इत्यादि बनते हैं ।
इस प्रकार एक सुनिश्चित क्रम में वर्णों को रखकर संयुक्त-रूप में प्राप्त होनेवाले परिणाम उनके कार्य को फलित और इंगित करते हैं । इस प्रकार एक ही वर्ण ’प्’ के असंख्य संयोजन हो सकते हैं और मूलतः केवल एक पूर्ण वर्ण से भी उससे जुड़े दूसरे पूर्ण या अपूर्ण वर्ण से ’धातु’ घटित होती है ।
इस प्रकार धातु के अतिरिक्त भिन्न-भिन्न प्रत्यय भी अस्तित्व में पाए जाते हैं और यह तो स्पष्ट ही है कि इस प्रकार के अध्ययन से हम केवल उनका आविष्कार कर रहे हैं न कि सृष्टि या निर्माण । क्योंकि वे तो पहले से ही अस्तित्व में हैं, हम अपना ध्यान उन पर एकाग्र कर उन्हें अपनी चेतना में स्थापित कर शक्ति अर्थात् प्राण देते हैं ।
प् से जैसे ’पत्’ और ’पत्र’ की ’सृष्टि’ होती है, वैसे ही प् से ही ’पु’ तथा ’पु’ से ’पुत्’ एवं ’पुत्र’ / ’पुत्री’ की भी सृष्टि होती है ।
पु से ही ’पुर’ और ’पुरुष’ की भी सृष्टि होती है ।
यद्यपि अवांतर दृष्टि से,
’पृ’ से भी पुर् / पुर / ’पुरुष’ की सृष्टि दृष्टव्य है ही ।
उपनिषद् कहते हैं :
यो वै तत् पुरुषो ...
यह सब व्याप्ति एक ही पुरुष (साङ्ख्य) का विस्तार है ।
पुत् से ही पुत्तलिका की सृष्टि होती है जो ’प्रतिमा’ होती है अर्थात् विशिष्ट रूपाकार ।
इसलिए संसार में पाई जानेवाली या मन में निर्मित सभी प्रतिमाएँ पुत्र / पुत्री या पुत्तलकः / पुत्तलकं / पुत्तलिका हैं ।
किसी मनुष्य की मृत्यु हो जाने पर उसे जल, वायु, अथवा अग्नि को समर्पित कर दिए जाने पर वह मनुष्य इस जीवन की कल्पना से मुक्त नहीं हो पाता क्योंकि यह कल्पना उसके जीवन में उसके मन में बनी संसार की कल्पना / संसार की प्रतिमा थी ।
अग्नि को समर्पित कर दिए जाने पर उसकी वह कल्पनाऔर कल्प-बंध टूट जाता है ।
हाँ यदि वह मनुष्य जीते-जी ही अपने कल्पित संसार को ज्ञानाग्नि में समर्पित कर भस्म कर मुक्त हो चुका हो तो ऐसे ज्ञानी की देह शिव की भस्म होती है जिसे यूँ तो जल, भूमि, वायु या अग्नि को समर्पित किए जाने से उसे कोई अंतर नहीं पड़ता किंतु भूमि में समर्पित कर समाधि देना संसार के लिए सर्वाधिक शुभ है ।
किंतु जिन अन्य मनुष्यों को भूमि में उतार दिया जाता है वे और उनका कल्पित संसार ’महाप्रलय’ तक उसी स्थान पर बद्ध रहता है ।
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मरणोत्तर-धर्म
ऐसे मनुष्य की आत्मा का मरणोत्तर धर्म उसके ’संसार’ का ही फैलाव है, और प्रत्येक मनुष्य चाहे तो जीते-जी ही उस संसार की अन्त्येष्टि अर्थात् अग्नि-संस्कार कर सकता है या उसके परिजनों से आशा कर सकता है कि उसकी मृत्यु होने पर वे उसका अंतिम-संस्कार उसे अग्नि में समर्पित कर करें ।
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