निष्ठुर
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प्रायः शब्दों के संस्कार होने पर उनके अर्थ भी बदल जाते हैं, और इसलिए किसी शब्द के मूल अर्थ को समझने के लिए उनकी व्युत्पत्ति बहुत सहायक होती है ।
उसके पिता, बाबा से जब पहली बार मिला था तो वे बोले थे :
’आप निष्ठुर हो ।’
’निष्ठुर’ मतलब?
वे बहुत देर तक कुछ न बोले । फिर हम इस प्रसंग को भूल गए ।
फिर बातों-बातों में एक दिन उन्होंने पूछा था :
"आपको क्या दुःख है?"
मैंने सुना और उनके प्रश्न पर सोचता रहा ।
किसी ज़माने में मुझे हाज़िर-जवाब कहा जाता था और इससे मुझे आश्चर्य होता था क्योंकि कभी-कभी अपरिपक्व बुद्धि का व्यक्ति भी हाज़िर जवाब होता है । यह तो उसे बहुत बाद में पता चलता है कि हर प्रश्न का उत्तर हो यह ज़रूरी नहीं और उत्तर दिया जाना तो नितांत मूर्खता भी हो सकता है, क्योंकि तब हम प्रश्न के तात्पर्य को समझे बिना ही कोई ऐसा उत्तर दे देते हैं जो सर्वथा अप्रासंगिक और असंबद्ध हो ।
बरसों बीत चुके ।
आज अचानक सोचा कि मुझे क्या दुःख है?
इस प्रश्न को समझने की यात्रा बहुत दुरूह है, लंबी या छोटी नहीं है ।
क्योंकि इसमें जिन दो वस्तुओं का उल्लेख है, उनके बारे में स्पष्टता न हो तो इसका कोई भी उत्तर व्यावहारिक भले ही हो, समस्या के रूप में इस प्रश्न का समाधान नहीं दे पाता ।
उनके प्रथम वाक्य ’आप निष्ठुर हो ।’ और दूसरे प्रश्न "आपको क्या दुःख है?" का मैं ने न तो कोई उत्तर दिया न उस पर उस समय कोई प्रतिक्रिया ही मेरे मन में उठी । कहा जा सकता है कि यह ठीक ही था ।
उनकी पुत्री उन दिनों वहाँ नहीं थी ।
वैसे तो रिश्ते में वह मेरी दूर की कोई परिचित महिला हैं और आत्मीयता होने के बावज़ूद भी न तो उनसे मिलने का कोई ख़याल कभी आया, न उनके बारे में मैं सोचता ही हूँ । शायद उनका कुछ राग / लगाव मुझसे अवश्य है लेकिन वह वैसा ही सांसारिक प्रकार का है जैसा कि अपने परिवार में किसी से होता है । इसे आसक्ति कहना अधिक अच्छा है क्योंकि इस राग में आशा-अपेक्षा, कर्तव्य, स्वार्थ भी हैं जिनसे यह राग कभी कभी क्रोध या शिकायत भी बन जाता है ।
कुछ दिन पहले जब वे अचानक मिलने आ पहुँची, आते ही अधिकार-पूर्वक किचन में चली गईं, किचन का निरीक्षण किया, फिर आकर ड्रॉइंग-रूम में बैठ गईं ।
’तुम्हें पता है विनय कि तुम कितने सुखी हो । पुरुष तो कैसे भी चरित्र का हो विवाह कर या किए बिना भी सुखी रह सकता है, जबकि स्त्री के लिए इधर कुआँ उधर खाईं की स्थिति होती है ।’
’हाँ...’
’तुम्हें जीवन में वह सब प्राप्त हो गया जो तुम चाहते थे लेकिन हम गृहस्थों में, क्या स्त्री, या क्या पुरुष, बहुत कम लोगों को वह सब मिल पाता है जो उसने चाहा होता है । यहाँ तक कि अन्त में बस निराशा, व्यर्थता और मज़बूरी में जीवन की गाड़ी को जैसे-तैसे खींचते रहना ही एकमात्र विकल्प होता है ।’
मैं जानता था कि उसका वैवाहिक और पारिवारिक जीवन भी बहुत संतोषप्रद नहीं रहा, यद्यपि वह और उसका पति उच्च-शिक्षित, संभ्रांत परिवार के हैं और उनके बच्चे भी बहुत अच्छी स्थिति में हैं ।
’आपको क्या दुःख है?’
बरबस मैंने पूछ लिया ।
’इसीलिए तो तुमसे मिलने आई थी ।’
’जी, बताइये ।’
’अरे! मैं तो आपसे पूछने आई थी कि अब मैं इस सबसे छुटकारा कैसे पाऊँ !’
’सच? सुनेंगीं आप या बस शिकायत ही करेंगीं?’
’नहीं, सुनने के लिए तैयार होकर आई हूँ, वैसे मुझे पता है कि तुम निष्ठुर हो ।’
’निष्ठुर मतलब?’
’निष्ठुर मतलब कठोर हृदय ।’
’बाय द वे, एक बार आपके बाबा ने भी मुझसे यही कहा था :
’आप निष्ठुर हो ।’
और मैंने उनसे भी यही पूछा था :
’निष्ठुर मतलब?’
और फिर एक दिन उन्होंने मुझसे प्रश्न किया था :
"आपको क्या दुःख है?"
’आपको पता है कि मैं आपके बाबा को सुनता भर था कभी उनसे तर्क-वितर्क नहीं करता था ।
हाँ उस बारे में चिंतन ज़रूर करता था । क्या कठोर-हृदय होना अपराध है?’
’अपराध तो नहीं, लेकिन आपमें प्रेम की कमी है ।’
शायद इसे किसी दूसरे ढंग से सोचा जाए । जब बाबा ने मुझसे कहा था :
’आप निष्ठुर हो ।’
तो मैंने उनसे इसका मतलब पूछा था और फिर अचानक एक दिन इस पर सोचते सोचते मुझे पता चला कि निष्ठुर वह होता है जिसकी किसी सत्य में पूर्ण निष्ठा होती है, जिसे उसने जिया होता है और ऐसा सत्य आत्यंतिक होता है न कि वैयक्तिक । इसलिए ऐसा मनुष्य लौकिक अर्थ में शायद संसार के दुःखों कष्टों के प्रति उदासीन भी होता हो लेकिन वह न तो उन दुःखों कष्टों को पैदा करता है, न दूसरों के द्वारा स्वकल्पित दुःखों कष्टों को दूर करने में उनकी कोई सहायता कर सकता है । ऐसा मनुष्य क्रूर या दुष्ट तो होता ही नहीं बल्कि उसमें दूसरों के प्रति करुणा अवश्य होती है और वह जानता है कि वे भी उस जैसे ही किसी दिन किसी निष्ठा का आविष्कार स्वयं में कर लेंगे । वैसे भी यह सब कल्पना ही तो है ।
बाबा ने मुझसे ’दुःख क्या है?’ यह प्रश्न पूछा होता तो मैं शायद हज़ारों लाखों दूसरे लोगों की तरह दर्शन-शास्त्र की भूल-भुलैया में उलझा रहता । लेकिन उन्होंने मुझसे बस इतना पूछा :
"आपको क्या दुःख है?"
और मैंने पूरा प्रयास यह समझने में किया कि उनके इस प्रश्न का तात्पर्य क्या है,
’किसे’ दुःख है?’ और ’क्या’ दुःख है?
अर्थात् यह जो सुखी-दुखी होता है वह क्या / कौन है? 'व्यक्ति' कोरा विचार, या कोई ठोस सत्य?
और 'वह' क्या है जिसे ’दुःख’ समझा जाता है?
वह दूर दीवार पर टंगी कोई पेंटिंग देख रही थी । जैसे कोई अंधा कहीं देखता हो ।
बहुत देर तक भाव-विह्वल होकर सुनने के बाद वैसी ही सुस्थिर शांत बैठी रही ।
’तुम्हारे दो ही शब्द मुझे छू गए : स्वकल्पित दुःखों कष्टों ...
और तो क्या कहना है ।'
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प्रायः शब्दों के संस्कार होने पर उनके अर्थ भी बदल जाते हैं, और इसलिए किसी शब्द के मूल अर्थ को समझने के लिए उनकी व्युत्पत्ति बहुत सहायक होती है ।
उसके पिता, बाबा से जब पहली बार मिला था तो वे बोले थे :
’आप निष्ठुर हो ।’
’निष्ठुर’ मतलब?
वे बहुत देर तक कुछ न बोले । फिर हम इस प्रसंग को भूल गए ।
फिर बातों-बातों में एक दिन उन्होंने पूछा था :
"आपको क्या दुःख है?"
मैंने सुना और उनके प्रश्न पर सोचता रहा ।
किसी ज़माने में मुझे हाज़िर-जवाब कहा जाता था और इससे मुझे आश्चर्य होता था क्योंकि कभी-कभी अपरिपक्व बुद्धि का व्यक्ति भी हाज़िर जवाब होता है । यह तो उसे बहुत बाद में पता चलता है कि हर प्रश्न का उत्तर हो यह ज़रूरी नहीं और उत्तर दिया जाना तो नितांत मूर्खता भी हो सकता है, क्योंकि तब हम प्रश्न के तात्पर्य को समझे बिना ही कोई ऐसा उत्तर दे देते हैं जो सर्वथा अप्रासंगिक और असंबद्ध हो ।
बरसों बीत चुके ।
आज अचानक सोचा कि मुझे क्या दुःख है?
इस प्रश्न को समझने की यात्रा बहुत दुरूह है, लंबी या छोटी नहीं है ।
क्योंकि इसमें जिन दो वस्तुओं का उल्लेख है, उनके बारे में स्पष्टता न हो तो इसका कोई भी उत्तर व्यावहारिक भले ही हो, समस्या के रूप में इस प्रश्न का समाधान नहीं दे पाता ।
उनके प्रथम वाक्य ’आप निष्ठुर हो ।’ और दूसरे प्रश्न "आपको क्या दुःख है?" का मैं ने न तो कोई उत्तर दिया न उस पर उस समय कोई प्रतिक्रिया ही मेरे मन में उठी । कहा जा सकता है कि यह ठीक ही था ।
उनकी पुत्री उन दिनों वहाँ नहीं थी ।
वैसे तो रिश्ते में वह मेरी दूर की कोई परिचित महिला हैं और आत्मीयता होने के बावज़ूद भी न तो उनसे मिलने का कोई ख़याल कभी आया, न उनके बारे में मैं सोचता ही हूँ । शायद उनका कुछ राग / लगाव मुझसे अवश्य है लेकिन वह वैसा ही सांसारिक प्रकार का है जैसा कि अपने परिवार में किसी से होता है । इसे आसक्ति कहना अधिक अच्छा है क्योंकि इस राग में आशा-अपेक्षा, कर्तव्य, स्वार्थ भी हैं जिनसे यह राग कभी कभी क्रोध या शिकायत भी बन जाता है ।
कुछ दिन पहले जब वे अचानक मिलने आ पहुँची, आते ही अधिकार-पूर्वक किचन में चली गईं, किचन का निरीक्षण किया, फिर आकर ड्रॉइंग-रूम में बैठ गईं ।
’तुम्हें पता है विनय कि तुम कितने सुखी हो । पुरुष तो कैसे भी चरित्र का हो विवाह कर या किए बिना भी सुखी रह सकता है, जबकि स्त्री के लिए इधर कुआँ उधर खाईं की स्थिति होती है ।’
’हाँ...’
’तुम्हें जीवन में वह सब प्राप्त हो गया जो तुम चाहते थे लेकिन हम गृहस्थों में, क्या स्त्री, या क्या पुरुष, बहुत कम लोगों को वह सब मिल पाता है जो उसने चाहा होता है । यहाँ तक कि अन्त में बस निराशा, व्यर्थता और मज़बूरी में जीवन की गाड़ी को जैसे-तैसे खींचते रहना ही एकमात्र विकल्प होता है ।’
मैं जानता था कि उसका वैवाहिक और पारिवारिक जीवन भी बहुत संतोषप्रद नहीं रहा, यद्यपि वह और उसका पति उच्च-शिक्षित, संभ्रांत परिवार के हैं और उनके बच्चे भी बहुत अच्छी स्थिति में हैं ।
’आपको क्या दुःख है?’
बरबस मैंने पूछ लिया ।
’इसीलिए तो तुमसे मिलने आई थी ।’
’जी, बताइये ।’
’अरे! मैं तो आपसे पूछने आई थी कि अब मैं इस सबसे छुटकारा कैसे पाऊँ !’
’सच? सुनेंगीं आप या बस शिकायत ही करेंगीं?’
’नहीं, सुनने के लिए तैयार होकर आई हूँ, वैसे मुझे पता है कि तुम निष्ठुर हो ।’
’निष्ठुर मतलब?’
’निष्ठुर मतलब कठोर हृदय ।’
’बाय द वे, एक बार आपके बाबा ने भी मुझसे यही कहा था :
’आप निष्ठुर हो ।’
और मैंने उनसे भी यही पूछा था :
’निष्ठुर मतलब?’
और फिर एक दिन उन्होंने मुझसे प्रश्न किया था :
"आपको क्या दुःख है?"
’आपको पता है कि मैं आपके बाबा को सुनता भर था कभी उनसे तर्क-वितर्क नहीं करता था ।
हाँ उस बारे में चिंतन ज़रूर करता था । क्या कठोर-हृदय होना अपराध है?’
’अपराध तो नहीं, लेकिन आपमें प्रेम की कमी है ।’
शायद इसे किसी दूसरे ढंग से सोचा जाए । जब बाबा ने मुझसे कहा था :
’आप निष्ठुर हो ।’
तो मैंने उनसे इसका मतलब पूछा था और फिर अचानक एक दिन इस पर सोचते सोचते मुझे पता चला कि निष्ठुर वह होता है जिसकी किसी सत्य में पूर्ण निष्ठा होती है, जिसे उसने जिया होता है और ऐसा सत्य आत्यंतिक होता है न कि वैयक्तिक । इसलिए ऐसा मनुष्य लौकिक अर्थ में शायद संसार के दुःखों कष्टों के प्रति उदासीन भी होता हो लेकिन वह न तो उन दुःखों कष्टों को पैदा करता है, न दूसरों के द्वारा स्वकल्पित दुःखों कष्टों को दूर करने में उनकी कोई सहायता कर सकता है । ऐसा मनुष्य क्रूर या दुष्ट तो होता ही नहीं बल्कि उसमें दूसरों के प्रति करुणा अवश्य होती है और वह जानता है कि वे भी उस जैसे ही किसी दिन किसी निष्ठा का आविष्कार स्वयं में कर लेंगे । वैसे भी यह सब कल्पना ही तो है ।
बाबा ने मुझसे ’दुःख क्या है?’ यह प्रश्न पूछा होता तो मैं शायद हज़ारों लाखों दूसरे लोगों की तरह दर्शन-शास्त्र की भूल-भुलैया में उलझा रहता । लेकिन उन्होंने मुझसे बस इतना पूछा :
"आपको क्या दुःख है?"
और मैंने पूरा प्रयास यह समझने में किया कि उनके इस प्रश्न का तात्पर्य क्या है,
’किसे’ दुःख है?’ और ’क्या’ दुःख है?
अर्थात् यह जो सुखी-दुखी होता है वह क्या / कौन है? 'व्यक्ति' कोरा विचार, या कोई ठोस सत्य?
और 'वह' क्या है जिसे ’दुःख’ समझा जाता है?
वह दूर दीवार पर टंगी कोई पेंटिंग देख रही थी । जैसे कोई अंधा कहीं देखता हो ।
बहुत देर तक भाव-विह्वल होकर सुनने के बाद वैसी ही सुस्थिर शांत बैठी रही ।
’तुम्हारे दो ही शब्द मुझे छू गए : स्वकल्पित दुःखों कष्टों ...
और तो क्या कहना है ।'
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