संवाद के सिकता-सेतु
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रामचरितमानस / रामायण ग्रंथ के आदर्श-पुरुष (भगवान्) श्रीराम और आदर्श नारी (माता) सीता हैं इस से शायद ही कोई असहमत होगा ।
यदि हम (माता) सीता के आदर्श पर ध्यान दें तो वे पतिव्रता (और सती) भी कही जाती हैं । (माता) पार्वती ने जब प्रजापति दक्ष की कन्या के रूप में जन्म लिया था तो उनका नाम ’सती’ ही था । इसलिए ’सती’ का मूल अर्थ ’सत्’युक्त नारी अर्थात परम शुद्ध, देवी-तुल्य पवित्रतम स्त्री । इस ’सती’ ने ही दक्ष के यज्ञ में शिव को न बुलाये जाने पर ’योगाग्नि’ प्रज्वलित कर उसमें आत्मदाह कर लिया था । बाद में क्षत्रिय राजाओं की स्त्रियों ने भी पति के रण में मारे जाने या मारे जाने की संभावना की स्थिति में ’जौहर’ के रूप में आत्मदाह किया । इसे भी ’सती’ कहा गया । यह स्त्री का अधिकार है या नहीं इस पर तो उसे ही सोचना है (और मुझे लगता है कि सामान्य-बुद्धि से भी यह क्रूरता ही जान पड़ता है), लेकिन आज की स्त्री को भी यदि वह सीता और पार्वती के आदर्श का अनुकरण करना चाहती है, तो आज के समाज में रहते हुए यह कहाँ तक और कितना संभव है? यदि वह ऐसा न कर सके तो इसके लिए भी उसे पूर्ण स्वतंत्रता है और होनी भी चाहिए ।
उपरोक्त चिंतन इसलिए किया क्योंकि कभी-कभी बातचीत के लिए कोई उपयुक्त विषय न होने पर स्त्रियों से बातचीत करना अनावश्यक और व्यर्थ लगता है । तब मैं उनका ध्यान इस ओर दिलाना चाहता हूँ कि वेद एवं रामायण आदि के अनुसार स्त्री के लिए पति ही परमेश्वर है और पति की सेवा करना ही उसका सर्वोत्तम धर्म हो सकता है । क्या वे इससे सहमत हैं? यदि हैं तो उन्हें पर-पुरुष से अनावश्यक बातचीत, बौद्धिक विचार-विनिमय भी नहीं करना चाहिए । नम्रता के कारण मैं उन्हें यह नहीं कह पाता कि स्त्री के लिए वेद का अध्ययन निषिद्ध है । क्योंकि तब उनके इससे असहमत होने की स्थिति में भी मैं कुछ नहीं कर सकता । उनकी स्वतंत्रता सर्वोपरि है । यह तो उन्हें ही तय करना है कि वे वेद, रामायण आदि को किस रूप में ग्रहण करती हैं । शास्त्रार्थ या वाद-विवाद तो मैं किसी से भी नहीं करता!
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The sand-bridges of communication.
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I sometimes come across the women who take pride in being a Hindu.
I have no objection but when I point out what duties according to Ramayana and Veda, a Hindu woman is expected to practice and observe, I sense we have lost the thread of communication. Though I can understand by 'Hindu' they might have the same meaning in their mind what I mean by 'Sanatana-dharma'. I fully honor their total and ultimate freedom of thought and the way they want to live their life, but I just feel unable to convey them this unpleasant fact that the duty and religion of a Hindu woman is to serve her husband taking him as the God. I feel this is what Veda and Ramayana too instruct for them.
This is the virtual sand-bridge between them and me that makes dialogue almost impossible.
And, I never debate with anybody who-so-ever about anything.
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रामचरितमानस / रामायण ग्रंथ के आदर्श-पुरुष (भगवान्) श्रीराम और आदर्श नारी (माता) सीता हैं इस से शायद ही कोई असहमत होगा ।
यदि हम (माता) सीता के आदर्श पर ध्यान दें तो वे पतिव्रता (और सती) भी कही जाती हैं । (माता) पार्वती ने जब प्रजापति दक्ष की कन्या के रूप में जन्म लिया था तो उनका नाम ’सती’ ही था । इसलिए ’सती’ का मूल अर्थ ’सत्’युक्त नारी अर्थात परम शुद्ध, देवी-तुल्य पवित्रतम स्त्री । इस ’सती’ ने ही दक्ष के यज्ञ में शिव को न बुलाये जाने पर ’योगाग्नि’ प्रज्वलित कर उसमें आत्मदाह कर लिया था । बाद में क्षत्रिय राजाओं की स्त्रियों ने भी पति के रण में मारे जाने या मारे जाने की संभावना की स्थिति में ’जौहर’ के रूप में आत्मदाह किया । इसे भी ’सती’ कहा गया । यह स्त्री का अधिकार है या नहीं इस पर तो उसे ही सोचना है (और मुझे लगता है कि सामान्य-बुद्धि से भी यह क्रूरता ही जान पड़ता है), लेकिन आज की स्त्री को भी यदि वह सीता और पार्वती के आदर्श का अनुकरण करना चाहती है, तो आज के समाज में रहते हुए यह कहाँ तक और कितना संभव है? यदि वह ऐसा न कर सके तो इसके लिए भी उसे पूर्ण स्वतंत्रता है और होनी भी चाहिए ।
उपरोक्त चिंतन इसलिए किया क्योंकि कभी-कभी बातचीत के लिए कोई उपयुक्त विषय न होने पर स्त्रियों से बातचीत करना अनावश्यक और व्यर्थ लगता है । तब मैं उनका ध्यान इस ओर दिलाना चाहता हूँ कि वेद एवं रामायण आदि के अनुसार स्त्री के लिए पति ही परमेश्वर है और पति की सेवा करना ही उसका सर्वोत्तम धर्म हो सकता है । क्या वे इससे सहमत हैं? यदि हैं तो उन्हें पर-पुरुष से अनावश्यक बातचीत, बौद्धिक विचार-विनिमय भी नहीं करना चाहिए । नम्रता के कारण मैं उन्हें यह नहीं कह पाता कि स्त्री के लिए वेद का अध्ययन निषिद्ध है । क्योंकि तब उनके इससे असहमत होने की स्थिति में भी मैं कुछ नहीं कर सकता । उनकी स्वतंत्रता सर्वोपरि है । यह तो उन्हें ही तय करना है कि वे वेद, रामायण आदि को किस रूप में ग्रहण करती हैं । शास्त्रार्थ या वाद-विवाद तो मैं किसी से भी नहीं करता!
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The sand-bridges of communication.
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I sometimes come across the women who take pride in being a Hindu.
I have no objection but when I point out what duties according to Ramayana and Veda, a Hindu woman is expected to practice and observe, I sense we have lost the thread of communication. Though I can understand by 'Hindu' they might have the same meaning in their mind what I mean by 'Sanatana-dharma'. I fully honor their total and ultimate freedom of thought and the way they want to live their life, but I just feel unable to convey them this unpleasant fact that the duty and religion of a Hindu woman is to serve her husband taking him as the God. I feel this is what Veda and Ramayana too instruct for them.
This is the virtual sand-bridge between them and me that makes dialogue almost impossible.
And, I never debate with anybody who-so-ever about anything.
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