स्वान्तः सुखाय
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मुझमें एक द्वन्द्व था । लिखना मेरा कर्म है यह तो बचपन से ही लगता था, किंतु स्वाभाविक कर्म होने से यह मेरा धर्म भी है यह कुछ बाद में ठीक ठीक समझ में आया । और फिर आगे जाकर पूरी तरह स्पष्ट हुआ कि यह लिखने की प्रवृत्ति किसी विशेष लक्ष्य की प्राप्ति के लिए नहीं है यद्यपि अनुवाद-कार्य एक अपवाद अवश्य है । साहित्य या शास्त्र जो भी मैंने पढ़े ज्ञान-अर्जन की दृष्टि से नहीं बल्कि इसलिए पढ़े ताकि भाषा-विन्यास और संवाद की सूक्ष्मताओं पर संतोषप्रद पकड़ हो सके ।
इसी क्रम में गीता उपनिषद् और फिर वेद का अध्ययन किया ।
और चूँकि मेरा आग्रह किसी भी ग्रंथ को उसके अनुवाद या व्याख्या के माध्यम से नहीं बल्कि उसके मूल स्वरूप में पढ़ने का रहा इसलिए मैंने बौद्ध-ग्रन्थों का और वेद-पुराण-उपनिषद आदि और तत्संबंधित ग्रंथों को उनके मूल-स्वरूप में अर्थात् संस्कृत या पालि में ही पढ़ा । कौतूहलवश मैंने उनके अंग्रेज़ी अनुवादों और अंग्रेज़ी में लिखी समीक्षाओं को भी किसी हद तक ’सन्दर्भ’ के लिए पढ़ा और बहुत ध्यान से उतनी ही गंभीरता से भी पढ़ा जितनी गंभीरता और रुचि से मैंने संस्कृत या पालि के मूल ग्रंथ पढ़े ।
’सन्दर्भ’ की दृष्टि से जे.कृष्णमूर्ति का साहित्य भी देखा जो मूलतः अंग्रेज़ी में ही है । दूसरे भी कई विख्यात विद्वानों जैसे अरविन्द घोष के साहित्य का थोड़ा बहुत अवलोकन किया ।
मराठी मातृभाषा होने से श्री समर्थ रामदास के ’दासबोध’ का पूरा ’पाठ’ किया और जैसी कि मेरी आदत है, पेंसिल से मार्ज़िन पर कठिन शब्दों की विवेचना भी अंकित की ।
श्री रमण महर्षि की मूल संस्कृत कृतियों का केवल अनेक बार ध्यानपूर्वक अध्ययन ही नहीं किया बल्कि उसका आशय समझने की चेष्टा भी की । उनका हिंदी में अनुवाद भी किया । तमिऴ् मेरे लिए वेद-तुल्य है इसलिए उसे शायद किसी भावी जन्म में सीखूँगा और जैसे वेद में भाषा की अपेक्षा ज्ञान का तत्व प्रमुख है और भाषा गौण तत्व है वैसे ही तमिऴ् भी मेरे लिए भाषा की अपेक्षा ज्ञान के रूप में अधिक महत्वपूर्ण है । इस विषय में पहले भी लिख चुका हूँ इसलिए यहाँ इतना ही ।
वेदों और संस्कृत के मूल ग्रंथों का पाश्चात्य ’विद्वानों’ ने जैसा अनर्थपूर्ण अनुवाद किया है उसके लिए उनका आभार ही व्यक्त किया जा सकता है, या बस उनकी दुर्बुद्धि का, हठधर्मिता और शठधर्मिता का जो प्रमाण उन्होंने दिया, इस पर बस हँसा भर जा सकता है । क्योंकि उनके इस कृत्य के लिए दंड या पुरस्कार देने का अधिकार और दायित्व तो विधाता के ही पास है ।
जब यह स्पष्ट हो गया कि लिखना मेरा कर्तव्य-कर्म है तो यह भी स्पष्ट हो गया कि मेरे लेखन को कौन पढ़ता है यह जानना मेरे लिए महत्वहीन हो गया । यद्यपि कोई पढ़े तो मुझे इस पर कोई आपत्ति भी नहीं है और न मेरा ऐसा आग्रह है कि कोई पढ़े ही । कोई इस से कितना सहमत हो या असहमत, इससे भी मेरा कोई लेना-देना नहीं । मेरा अनुवाद-कार्य भी मैं इसी भावना से करता हूँ ।
इसलिए लिखने से एक संतोष तो मिलता ही है जिसे पुरस्कार य प्रसाद भी कह सकते हैं
आप कह सकते हैं, - स्वान्तः सुखाय ।
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मुझमें एक द्वन्द्व था । लिखना मेरा कर्म है यह तो बचपन से ही लगता था, किंतु स्वाभाविक कर्म होने से यह मेरा धर्म भी है यह कुछ बाद में ठीक ठीक समझ में आया । और फिर आगे जाकर पूरी तरह स्पष्ट हुआ कि यह लिखने की प्रवृत्ति किसी विशेष लक्ष्य की प्राप्ति के लिए नहीं है यद्यपि अनुवाद-कार्य एक अपवाद अवश्य है । साहित्य या शास्त्र जो भी मैंने पढ़े ज्ञान-अर्जन की दृष्टि से नहीं बल्कि इसलिए पढ़े ताकि भाषा-विन्यास और संवाद की सूक्ष्मताओं पर संतोषप्रद पकड़ हो सके ।
इसी क्रम में गीता उपनिषद् और फिर वेद का अध्ययन किया ।
और चूँकि मेरा आग्रह किसी भी ग्रंथ को उसके अनुवाद या व्याख्या के माध्यम से नहीं बल्कि उसके मूल स्वरूप में पढ़ने का रहा इसलिए मैंने बौद्ध-ग्रन्थों का और वेद-पुराण-उपनिषद आदि और तत्संबंधित ग्रंथों को उनके मूल-स्वरूप में अर्थात् संस्कृत या पालि में ही पढ़ा । कौतूहलवश मैंने उनके अंग्रेज़ी अनुवादों और अंग्रेज़ी में लिखी समीक्षाओं को भी किसी हद तक ’सन्दर्भ’ के लिए पढ़ा और बहुत ध्यान से उतनी ही गंभीरता से भी पढ़ा जितनी गंभीरता और रुचि से मैंने संस्कृत या पालि के मूल ग्रंथ पढ़े ।
’सन्दर्भ’ की दृष्टि से जे.कृष्णमूर्ति का साहित्य भी देखा जो मूलतः अंग्रेज़ी में ही है । दूसरे भी कई विख्यात विद्वानों जैसे अरविन्द घोष के साहित्य का थोड़ा बहुत अवलोकन किया ।
मराठी मातृभाषा होने से श्री समर्थ रामदास के ’दासबोध’ का पूरा ’पाठ’ किया और जैसी कि मेरी आदत है, पेंसिल से मार्ज़िन पर कठिन शब्दों की विवेचना भी अंकित की ।
श्री रमण महर्षि की मूल संस्कृत कृतियों का केवल अनेक बार ध्यानपूर्वक अध्ययन ही नहीं किया बल्कि उसका आशय समझने की चेष्टा भी की । उनका हिंदी में अनुवाद भी किया । तमिऴ् मेरे लिए वेद-तुल्य है इसलिए उसे शायद किसी भावी जन्म में सीखूँगा और जैसे वेद में भाषा की अपेक्षा ज्ञान का तत्व प्रमुख है और भाषा गौण तत्व है वैसे ही तमिऴ् भी मेरे लिए भाषा की अपेक्षा ज्ञान के रूप में अधिक महत्वपूर्ण है । इस विषय में पहले भी लिख चुका हूँ इसलिए यहाँ इतना ही ।
वेदों और संस्कृत के मूल ग्रंथों का पाश्चात्य ’विद्वानों’ ने जैसा अनर्थपूर्ण अनुवाद किया है उसके लिए उनका आभार ही व्यक्त किया जा सकता है, या बस उनकी दुर्बुद्धि का, हठधर्मिता और शठधर्मिता का जो प्रमाण उन्होंने दिया, इस पर बस हँसा भर जा सकता है । क्योंकि उनके इस कृत्य के लिए दंड या पुरस्कार देने का अधिकार और दायित्व तो विधाता के ही पास है ।
जब यह स्पष्ट हो गया कि लिखना मेरा कर्तव्य-कर्म है तो यह भी स्पष्ट हो गया कि मेरे लेखन को कौन पढ़ता है यह जानना मेरे लिए महत्वहीन हो गया । यद्यपि कोई पढ़े तो मुझे इस पर कोई आपत्ति भी नहीं है और न मेरा ऐसा आग्रह है कि कोई पढ़े ही । कोई इस से कितना सहमत हो या असहमत, इससे भी मेरा कोई लेना-देना नहीं । मेरा अनुवाद-कार्य भी मैं इसी भावना से करता हूँ ।
इसलिए लिखने से एक संतोष तो मिलता ही है जिसे पुरस्कार य प्रसाद भी कह सकते हैं
आप कह सकते हैं, - स्वान्तः सुखाय ।
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