Thursday, 12 October 2017

वैदिक या वैज्ञानिक

वैदिक या वैज्ञानिक
"मैं कार्य-कारण पर विश्वास नहीं करता
"क्यों?"
वैसे तो ’क्यों?" यह प्रश्न ही असंगत (invalid) है किंतु तर्क की सीमा में इसका उत्तर यह होगा कि चूँकि तर्क ’ज्ञात’ अर्थात् विचार और बुद्धि के अन्तर्गत कार्य करता है और विचार तथा बुद्धि उसे नहीं ग्रहण कर पाते जहाँ से उनका उद्भव होता है । शरीर के स्थूल या सूक्ष्म भौतिक अंग की दृष्टि से उसे ’मस्तिष्क’ कहा जा सकता है, किंतु विचार और बुद्धि इन्द्रिय-ज्ञान पर आधारित होने से उस सीमा के भीतर ’अधिकतम’, निकटतम सत्य को ग्रहण करने की चेष्टा करते हैं जिसे विज्ञान कहा जाता है । विचार और बुद्धि के आधार पर उपजी ’परिकल्पना’ (hypotheses) का विकास ही ’विज्ञान’ है । तथाकथित वैज्ञानिक भी विचार और बुद्धि से ’सत्य’ को पाने का प्रयास करता है और विचार और बुद्धि पर आश्रित होता है । वह विचार और बुद्धि को ’प्रमाण’ मानता है और भूल से या प्रमादवश मान बैठता है कि ’अज्ञात’ को उस कसौटी (criteria) से जाना जा सकता है । विचार और बुद्धि ’ज्ञात’ के क्षेत्र में कार्य-कारण को अटल सत्य मानकर ’निष्कर्ष’ प्राप्त करते हैं जो उनके ’ज्ञात’ की परिधि से बाहर महीं ले जा सकता । संक्षेप में ’विज्ञान’ का ’सत्य’ अपने संदर्भों तक सीमित है ।
उस परिधि में ही वह ’प्रयोग-सिद्ध’ भी अवश्य है ।
विज्ञान विचार और बुद्धि अर्थात् तर्क पर आश्रित है जबकि स्वयं तर्क विचार और धारणाओं का विस्तार जो बेतरतीब हो सकता है या ’ज्ञात’ के किसी ’विशेष’ क्षेत्र तक सीमित । ’निष्कर्ष’ के रूप में ऐसे अनेक क्षेत्र निरंतर स्थापित किए जा सकते हैं और इतिहास भी बन जाते हैं । इसलिए एक ही विज्ञान की अनेक शाखाएँ हो जाती हैं, जिनकी पुनः और भी अनेक होती रहती हैं । लेकिन उनकी सत्यता काल से सीमित होती है, जबकि काल स्वयं ’धारणा’ / ’कलन’ / कल्पन और कल्पना मात्र है । गणितज्ञ और वैज्ञानिक भी काल के स्वरूप पर किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके हैं ।
वेद कहता है :
अक्षरात् संजायते कालं कालाद्व्यापक उच्यते । व्यापको ही भगवान् रुद्रो, भोगायमानो यदा शेते रुद्रस्तदा संहार्यते प्रजाः ।
उच्छ्वसिते तमो भवति ....।
इसी के अन्तर्गत ’क्लामयति’ का उल्लेख भी है ।
क्लामयति ’रुद्र’ अर्थात् ’सत्य’ के अक्षर-स्वरूप का ’देवी-रूप’ है
यहाँ विस्तार में जाना अनावश्यक है । ’देवी-रूप’ का संदर्भ इसलिए प्रस्तुत किया गया कि ’अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्सुवन्तः समुद्रे ।’ से इसकी तुलना की जा सके ।
क्या वेद ’विज्ञानसम्मत हैं? इस प्रश्न की त्रुटि यहीं समझली जा सकती है ।
बुद्धि और विचार का आगमन होने के बाद ही ’शून्य’ और ’एक’ की धारणा अस्तित्व में आती है और ’गणित’ इस प्रकार की धारणाओं का सुनियोजित विस्तार है ।
देवी कहती हैं :
"अहं ब्रह्मस्वरूपिणि । मत्तः प्रकृति-पुरुषात्मकं जगत् । शून्यं चाशून्यं च ॥"
"... एकैव सर्वत्र वर्तते तस्मादुच्यते एका ।
एकैव विश्वरूपिणी तस्मादुच्यते नैकेति ॥"
यह विद्या ब्राह्मणों के ही लिए है । किंतु ब्राह्मण (द्विज) भी विधि से संस्कारित होने पर ही होता है । प्रश्न है ’पात्र’ होने का । (व्याख्या की दृष्टि से) कार्य-कारण की युक्ति (tool) का प्रयोग करें तो कहा जा सकता है कि पारिस्थितिकी-विज्ञान / ( environment-science ) के अनुसार शरीर-विशेष की अन्तःपारिस्थिकी और बाह्य-पारिस्थितिकी विचारणीय है । और इस आधार पर किसी भी प्रणाली (वैदिक या वैज्ञानिक) का औचित्य उसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए ।
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