रावण :
एक विचार / एक चमत्कार
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"रावण की मृत्यु एवं अंतिम संस्कार (पूजन-सहित) भी श्रीराम के कर-कमलों से हुआ था ।
इससे प्रारंभ हुआ रावण-दहन परंपरा के रूप में स्थापित हुआ लेकिन इस परंपरा के साथ रावण का पूजन किया जाना तो बंद हो गया, उसे अपमानित करने और उसके दहन को ’उत्सव’ का रूप दिया जाना निश्चित ही सभी के लिए अत्यन्त अनिष्टप्रद है यह तो वैदिक-तन्त्र के विद्वान भी आपको बता देंगे ।"
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एक प्रतिक्रिया :
प्रियवर .. जी,
माननीय पं. विनय कुमार वैद्यजी का कथन निराधार है। श्रीराम ने न तो रावण का कभी पूजन-अर्चन किया और न अंतिम संस्कार। यह कर्म विभीषण जी के कर कमलों से संपन्न हुआ था। श्रीराम या लक्ष्मण जी ने कभी रावण से कोई उपदेश ग्रहण नहीं किया और न उससे शिक्षा प्राप्त की। रावण को कभी भगवान ने अपना पुरोहित बनाकर रामेश्वरम् शिवलिंग की स्थाना* भी नहीं कराई। यह सब तथाकथित पंडितों के वाग्जाल और जल्पनाएँ हैं। किसी रामायण में इन तथ्यों का कोई समर्थन नहीं मिलता।
लंकेश्वर रावण का वध भगवान ने चैत्र कृष्ण चतुर्दशी को किया। तदुपरांत विभीषण जी का राज्याभिषेक, सीताजी की अग्निपरीक्षा, वानरसेना के मृत सेनानियों पर अमृतवर्षा और उनका लंकेश्वर द्वारा सम्मान के अनंतर प्रभु चैत्र शुक्ल चतुर्थी को विमान से भरद्वाज ऋषि के आश्रम पहुँचे तथा पंचमी को उनका पुष्य नक्षत्र में राज्यारोहण हुआ। दशहरे या दीवाली का रामकथासे कोई संबंध नहीं है। आज भी अयोध्या जी में प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ल पंचमी को श्रीराम का राज्याभिषेक उत्सव मनाया जाता है। हाँ, रावण के पुतलादहन से मैं सहमत नहीं हूँ। यह सनातन धर्म के प्रतिकूल है। तुलसीदास जी के समय तक यह प्रथा नहीं थी।
*संशोधनः स्थापना
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मेरा प्रत्युत्तर :
मैं न तो व्यवसाय या कर्मकाण्ड से पंडित हूँ न श्रीरामचरित्र की कथा का ज्ञाता,
और कथावाचक तो कदापि नहीं हूँ ।
अध्यात्मरामायण युद्धकाण्ड सर्ग १२, श्लोक ३३ में भगवान् राम से विभीषण कहते हैं :
रामस्यैवानुवृत्त्यर्थमुत्तरं पर्यभाषत ।
नृशंसमनृतं क्रूरं त्यक्तधर्मव्रतं प्रभो ॥३१
नार्होऽस्मि देव संस्कर्तुं परदाराभिमर्शिनम् ।
जिसके प्रत्युत्तर में भगवान् राम विभीषण से कहते हैं :
श्रुत्वा तद्वचनं प्रीतो रामो वचनमब्रवीत ॥३२
मरणान्तानि वैराणि निवृत्तं नः प्रयोजनम् ।
क्रियतामस्य संस्कारो ममाप्येष यथा तव ॥३२
जिसकी मृत्यु हो चुकी है, उससे वैरभाव भी समाप्त हो जाता है,
इसलिये उसका इष्ट-संस्कार (अंत्येष्टि) करना जैसा तुम्हारे लिए कर्तव्य है वैसे ही मेरे लिए भी (कर्तव्य) है ।
अपनी अल्प-बुद्धि से मैंने इसका यही तात्पर्य ग्रहण किया कि भगवान् श्रीराम ने रावण की अंत्येष्टि के लिए विभीषण को आज्ञा दी ।
उन्होंने स्वयं रावण का ’पार्थिव’ पूजन किया है या नहीं इस पर मेरा कोई आग्रह नहीं है ।
न इस सब विवेचना में मेरी कोई रुचि है ।
रामायण का एक ऐतिहासिक पक्ष है, एक पौराणिक और एक लोककथात्मक भी ।
इनमें परस्पर विरोधाभास होने संभव हैं । सत्य क्या है, कितना है इसे तो राम जानें ...!
मेरा कोई दावा नहीं है न कोई ’मत’ ...
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एक आलोचनात्मक प्रत्युत्तर :
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण एकमात्र प्रामाणिक रामकथा है। इसे स्वयं ब्रह्मदेव ने प्रमाणित किया है। शेष रामकथाएँ काव्य रचनाएँ हैं, जिनमें नवीन उद्भावनाएँ, प्रक्षिप्तांशों और सामयिक रूढ़ियों को अंतर्निविष्ट किया गया है।
दूसरी प्रतिक्रिया :
क्या श्रीमद्वाल्मिकीय रामायण के प्रामाणिक होने से रामकथा की अन्य रचनाएँ अप्रामाणिक सिद्ध हो जाती हैं?
अध्यात्मरामायण भी ब्रह्माण्डपुराण के अन्तर्गत एक आख्यान है । यदि इस पर भी संशय किया जा सके तो श्रीमद्वाल्मिकीय रामायण के ही अन्तर्गत युद्धकाण्ड १०९वें सर्ग के अंतिम श्लोक में भगवान् श्रीराम द्वारा कहा गया प्रस्तुत श्लोक अवश्य दृष्टव्य है :
मरणान्तानि वैराणि निर्वृत्तं नः प्रयोजनम् ।
क्रियतामस्य संस्कारो ममाप्येष यथा तव ॥२५
क्या यह केवल संयोग ही है कि अध्यात्मरामायण के जिस श्लोक को मैंने पहले उद्धृत किया था और जिस पर अप्रामाणिक होने का संदेह किया जा रहा है उसे महर्षि भगवान् वेदव्यास ने ही श्रीमद्वाल्मीकि-रामायण से ही अक्षरशः यथावत् अपने ’अध्यात्मरामायण’ में उद्धृत किया है?
मैं इससे अधिक आगे और कुछ नहीं कहूँगा ।
सादर!
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टिप्पणी : जब एक 'विचार' प्रस्तुत किया था, उस समय मेरे मन में वह स्मृति थी जो क़रीब तीन-चार वर्षों पहले 'अध्यात्म-रामायण' पढ़ते समय विचार के रूप में मन में आई थी। इस पर प्राप्त प्रतिक्रिया की सत्यता का अन्वेषण करने के लिए और संभवतः मुझसे हुई त्रुटि का शोधन करने के उद्देश्य से जब मैंने श्रीमद्वाल्मिकीय रामायण में इस प्रसंग में क्या कहा गया है इस उत्सुकता और जिज्ञासा से प्रेरित होकर उसे पढ़ा तो बस चकित होकर रह गया। मेरे लिए तो यह चमत्कार ही था !
जब एक पाठक को मेरा उल्लेख अच्छा लगा और उसने प्रशंसा की, तो मैंने उन्हें लिखा :
"आशा है वाल्मीकि रामायण पर विमल किशोर जी के प्रश्न के मेरे उत्तरों से आपको संतोष हुआ होगा । मेरे लिए तो यह चमत्कार था कि मेरे प्रमाण की स्वयं उन्होंने ही पुष्टि कर दी! उनका ही उत्तर देने के लिए मैंने वाल्मीकि रामायण में संबंधित प्रसंग देखा तो वहाँ मेरा उद्धृत श्लोक जैसे मुझे आशीर्वाद दे रहा था ।
जा पर कृपा राम की होई, ... "
मुझे अपने 'विचार' पर इसलिए भी भरोसा था, क्योंकि अध्यात्म-रामायण में ही मैंने यह उल्लेख भी पढ़ा था कि भगवान श्रीराम ने जटायु का 'श्राद्ध-कर्म' भी अपने 'कर-कमलों' किया था | अब फिर से उस जटायु-प्रसंग का अवलोकन किया तो पाया कि 'कर-कमलों' का विवरण मेरी स्मृति में वहीं से था, क्योंकि गीताप्रेस की जिस प्रति से मैंने 'अध्यात्म-रामायण' को पिछली बार पढ़ा था उसमें उसके हिंदी अनुवाद में 'कर-कमलों' का प्रयोग दृष्टव्य है और वही मुझे स्मरण रह गया होगा । (मूल संस्कृत श्लोक में केवल 'हस्ताभ्यां' का प्रयोग है।)
संदर्भ :
जटायु कहते हैं :
अन्तकालेऽपि दृष्ट्वा त्वां मुक्तोऽहं रघुसत्तम ।
हस्ताभ्यां स्पृश मां राम पुनर्यास्यामि ते पदम् ॥३५
(अरण्यकाण्ड, सर्ग ८)
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एक विचार / एक चमत्कार
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"रावण की मृत्यु एवं अंतिम संस्कार (पूजन-सहित) भी श्रीराम के कर-कमलों से हुआ था ।
इससे प्रारंभ हुआ रावण-दहन परंपरा के रूप में स्थापित हुआ लेकिन इस परंपरा के साथ रावण का पूजन किया जाना तो बंद हो गया, उसे अपमानित करने और उसके दहन को ’उत्सव’ का रूप दिया जाना निश्चित ही सभी के लिए अत्यन्त अनिष्टप्रद है यह तो वैदिक-तन्त्र के विद्वान भी आपको बता देंगे ।"
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एक प्रतिक्रिया :
प्रियवर .. जी,
माननीय पं. विनय कुमार वैद्यजी का कथन निराधार है। श्रीराम ने न तो रावण का कभी पूजन-अर्चन किया और न अंतिम संस्कार। यह कर्म विभीषण जी के कर कमलों से संपन्न हुआ था। श्रीराम या लक्ष्मण जी ने कभी रावण से कोई उपदेश ग्रहण नहीं किया और न उससे शिक्षा प्राप्त की। रावण को कभी भगवान ने अपना पुरोहित बनाकर रामेश्वरम् शिवलिंग की स्थाना* भी नहीं कराई। यह सब तथाकथित पंडितों के वाग्जाल और जल्पनाएँ हैं। किसी रामायण में इन तथ्यों का कोई समर्थन नहीं मिलता।
लंकेश्वर रावण का वध भगवान ने चैत्र कृष्ण चतुर्दशी को किया। तदुपरांत विभीषण जी का राज्याभिषेक, सीताजी की अग्निपरीक्षा, वानरसेना के मृत सेनानियों पर अमृतवर्षा और उनका लंकेश्वर द्वारा सम्मान के अनंतर प्रभु चैत्र शुक्ल चतुर्थी को विमान से भरद्वाज ऋषि के आश्रम पहुँचे तथा पंचमी को उनका पुष्य नक्षत्र में राज्यारोहण हुआ। दशहरे या दीवाली का रामकथासे कोई संबंध नहीं है। आज भी अयोध्या जी में प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ल पंचमी को श्रीराम का राज्याभिषेक उत्सव मनाया जाता है। हाँ, रावण के पुतलादहन से मैं सहमत नहीं हूँ। यह सनातन धर्म के प्रतिकूल है। तुलसीदास जी के समय तक यह प्रथा नहीं थी।
*संशोधनः स्थापना
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मेरा प्रत्युत्तर :
मैं न तो व्यवसाय या कर्मकाण्ड से पंडित हूँ न श्रीरामचरित्र की कथा का ज्ञाता,
और कथावाचक तो कदापि नहीं हूँ ।
अध्यात्मरामायण युद्धकाण्ड सर्ग १२, श्लोक ३३ में भगवान् राम से विभीषण कहते हैं :
रामस्यैवानुवृत्त्यर्थमुत्तरं पर्यभाषत ।
नृशंसमनृतं क्रूरं त्यक्तधर्मव्रतं प्रभो ॥३१
नार्होऽस्मि देव संस्कर्तुं परदाराभिमर्शिनम् ।
जिसके प्रत्युत्तर में भगवान् राम विभीषण से कहते हैं :
श्रुत्वा तद्वचनं प्रीतो रामो वचनमब्रवीत ॥३२
मरणान्तानि वैराणि निवृत्तं नः प्रयोजनम् ।
क्रियतामस्य संस्कारो ममाप्येष यथा तव ॥३२
जिसकी मृत्यु हो चुकी है, उससे वैरभाव भी समाप्त हो जाता है,
इसलिये उसका इष्ट-संस्कार (अंत्येष्टि) करना जैसा तुम्हारे लिए कर्तव्य है वैसे ही मेरे लिए भी (कर्तव्य) है ।
अपनी अल्प-बुद्धि से मैंने इसका यही तात्पर्य ग्रहण किया कि भगवान् श्रीराम ने रावण की अंत्येष्टि के लिए विभीषण को आज्ञा दी ।
उन्होंने स्वयं रावण का ’पार्थिव’ पूजन किया है या नहीं इस पर मेरा कोई आग्रह नहीं है ।
न इस सब विवेचना में मेरी कोई रुचि है ।
रामायण का एक ऐतिहासिक पक्ष है, एक पौराणिक और एक लोककथात्मक भी ।
इनमें परस्पर विरोधाभास होने संभव हैं । सत्य क्या है, कितना है इसे तो राम जानें ...!
मेरा कोई दावा नहीं है न कोई ’मत’ ...
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एक आलोचनात्मक प्रत्युत्तर :
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण एकमात्र प्रामाणिक रामकथा है। इसे स्वयं ब्रह्मदेव ने प्रमाणित किया है। शेष रामकथाएँ काव्य रचनाएँ हैं, जिनमें नवीन उद्भावनाएँ, प्रक्षिप्तांशों और सामयिक रूढ़ियों को अंतर्निविष्ट किया गया है।
दूसरी प्रतिक्रिया :
क्या श्रीमद्वाल्मिकीय रामायण के प्रामाणिक होने से रामकथा की अन्य रचनाएँ अप्रामाणिक सिद्ध हो जाती हैं?
अध्यात्मरामायण भी ब्रह्माण्डपुराण के अन्तर्गत एक आख्यान है । यदि इस पर भी संशय किया जा सके तो श्रीमद्वाल्मिकीय रामायण के ही अन्तर्गत युद्धकाण्ड १०९वें सर्ग के अंतिम श्लोक में भगवान् श्रीराम द्वारा कहा गया प्रस्तुत श्लोक अवश्य दृष्टव्य है :
मरणान्तानि वैराणि निर्वृत्तं नः प्रयोजनम् ।
क्रियतामस्य संस्कारो ममाप्येष यथा तव ॥२५
क्या यह केवल संयोग ही है कि अध्यात्मरामायण के जिस श्लोक को मैंने पहले उद्धृत किया था और जिस पर अप्रामाणिक होने का संदेह किया जा रहा है उसे महर्षि भगवान् वेदव्यास ने ही श्रीमद्वाल्मीकि-रामायण से ही अक्षरशः यथावत् अपने ’अध्यात्मरामायण’ में उद्धृत किया है?
मैं इससे अधिक आगे और कुछ नहीं कहूँगा ।
सादर!
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टिप्पणी : जब एक 'विचार' प्रस्तुत किया था, उस समय मेरे मन में वह स्मृति थी जो क़रीब तीन-चार वर्षों पहले 'अध्यात्म-रामायण' पढ़ते समय विचार के रूप में मन में आई थी। इस पर प्राप्त प्रतिक्रिया की सत्यता का अन्वेषण करने के लिए और संभवतः मुझसे हुई त्रुटि का शोधन करने के उद्देश्य से जब मैंने श्रीमद्वाल्मिकीय रामायण में इस प्रसंग में क्या कहा गया है इस उत्सुकता और जिज्ञासा से प्रेरित होकर उसे पढ़ा तो बस चकित होकर रह गया। मेरे लिए तो यह चमत्कार ही था !
जब एक पाठक को मेरा उल्लेख अच्छा लगा और उसने प्रशंसा की, तो मैंने उन्हें लिखा :
"आशा है वाल्मीकि रामायण पर विमल किशोर जी के प्रश्न के मेरे उत्तरों से आपको संतोष हुआ होगा । मेरे लिए तो यह चमत्कार था कि मेरे प्रमाण की स्वयं उन्होंने ही पुष्टि कर दी! उनका ही उत्तर देने के लिए मैंने वाल्मीकि रामायण में संबंधित प्रसंग देखा तो वहाँ मेरा उद्धृत श्लोक जैसे मुझे आशीर्वाद दे रहा था ।
जा पर कृपा राम की होई, ... "
मुझे अपने 'विचार' पर इसलिए भी भरोसा था, क्योंकि अध्यात्म-रामायण में ही मैंने यह उल्लेख भी पढ़ा था कि भगवान श्रीराम ने जटायु का 'श्राद्ध-कर्म' भी अपने 'कर-कमलों' किया था | अब फिर से उस जटायु-प्रसंग का अवलोकन किया तो पाया कि 'कर-कमलों' का विवरण मेरी स्मृति में वहीं से था, क्योंकि गीताप्रेस की जिस प्रति से मैंने 'अध्यात्म-रामायण' को पिछली बार पढ़ा था उसमें उसके हिंदी अनुवाद में 'कर-कमलों' का प्रयोग दृष्टव्य है और वही मुझे स्मरण रह गया होगा । (मूल संस्कृत श्लोक में केवल 'हस्ताभ्यां' का प्रयोग है।)
संदर्भ :
जटायु कहते हैं :
अन्तकालेऽपि दृष्ट्वा त्वां मुक्तोऽहं रघुसत्तम ।
हस्ताभ्यां स्पृश मां राम पुनर्यास्यामि ते पदम् ॥३५
(अरण्यकाण्ड, सर्ग ८)
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