जातिवाद, वर्णवाद, वृत्ति (profession) और 'आरक्षण'
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वैदिक आधार पर 'जाति' एक गौण तत्व है, जबकि ’वर्ण’ एक प्रधान तत्व है ।
जिन चार आधारों पर वैदिक धर्म प्रतिष्ठित हैं वे चार चतुष्क इस प्रकार हो सकते हैं :
चार युग : सत-युग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग,
चार वर्ण : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र,
चार आश्रम : ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास,
चार अन्तःकरण : भावना, बुद्धि, मन (विचार), और वृत्ति,
'जाति' मुख्यतः कुल, वंश और परंपरा पर आधारित है और उसका अपना महत्व है क्योंकि वह वर्ण-आधारित है किंतु जाति वर्ण का पर्याय नहीं हो सकती । इसलिए ’आर्य’ और ’अनार्य’ जो वर्णवाचक न होकर भी जातिवाचक हैं ।
’आर्य’ शब्द का पाश्चात्य इतिहासकारों ने जाति के अर्थ में प्रयोग केवल उनके अपने किन्हीं कुत्सित ध्येयों के लिए किया ।
गीता और धम्मपद तथा दूसरे ग्रन्थों में भी ’आर्य’ शब्द का प्रयोग वर्ण या जाति के अर्थ और सन्दर्भ में नहीं बल्कि चरित्र और गुणों की श्रेष्ठता के अर्थ में किया है । इसी प्रकार का कृत्रिम भेद ’आर्य’ और ’द्रविड’ के बीच सृजित किया गया है । द्रविड भाषा और संस्कृति है न कि जाति या वर्ण । और संस्कृतियों के भेद होने से द्रविडभाषी और संस्कृतभाषी समुदायों के बीच परंपराओं में कुछ भिन्नताएँ हैं । किंतु ऐसी भिन्नताएँ किसी एक ही वर्ण की भिन्न-भिन्न शाखाओं में भी पाए जाते हैं जिनका परस्पर सम्मान ही किया जाता है न कि अवमानना ।
द्रविड, तमिऴ, तेलुगू या मलयालम भी संस्कृत से ही व्युत्पन्न हैं इसे ध्यान में रखना आवश्यक है ।
जैसे वेद केवल ब्राह्मणों के ही लिए पठनीय और ग्राह्य हैं और अन्य वर्णों के लिए पुराण ही श्रवणीय मात्र हैं वैसे ही ’चार अन्तःकरणों’ की प्रधानता के अनुसार भावना ब्राह्मण-वर्ण, बुद्धि क्षत्रिय-वर्ण, मन (विचार) वैश्य-वर्ण तथा वृत्ति शूद्र-वर्ण है ।
जैसे इन चार वर्णों के संतुलन से ही समाज स्थिर और सुचारु व्यवस्था के रूप में संचालित होता है, वैसे ही इन चार वर्णों के ही संतुलन से मनुष्य का मन भी सामञ्जस्यपूर्ण हो सकता है ।
चार ’युगों’ के संबंध में यह दृष्टव्य है कि जहाँ सतयुग में ब्राह्मण-वर्ण का, त्रेता-युग में क्षत्रिय-वर्ण का, द्वापर में वैश्य-वर्ण का वर्चस्व रहता है, वैसी ही कलियुग में शूद्र-वर्ण का वर्चस्व है ।
चार वर्णों के गुण-कर्म (अर्थात् मुख्य प्रवृत्ति) गीता में और मनुस्मृति तथा अन्य ग्रन्थों में तो वर्णित हैं ही, किंतु उन्हें ’जाति’ से जोड़कर नहीं देखा जा सकता । ’मनुवादी’ कहकर मनु और दूसरे शास्त्रकारों का जैसा उपहास और अपमान किया गया है वह भी हमारे समय की विडंबना ही है ।
अब वर्ण अर्थात् गुण-कर्म पर आधारित ’अन्तःकरण’ के वर्गीकरण पर एक दृष्टि डालें :
ब्राह्मण के लिए ब्रह्म-कर्म ही एकमात्र कर्तव्य है जिसका अर्थ है तप, स्वाध्याय, तितिक्षा आदि के अभ्यास से संसार का और स्वयं का कल्याण करना ।
स्पष्ट है कि ब्राह्मण न तो युद्ध कर सकता है, न व्यापार और न किसी का दासत्व । भिक्षा या दक्षिणा ब्राह्मण का अधिकार अवश्य है किंतु वह भी पात्र से ही ग्रहण किया जाना चाहिए । ब्राह्मण को न तो लोभ से धन या भोग-विलास के साधनों और वस्तुओं का संग्रह करना चाहिए न उनके अभाव में व्याकुल होना चाहिए ।
इसी प्रकार से क्षत्रिय के लिए भिक्षा माँगना संभव नहीं है । वह पराक्रम से ही समाज और परिवार की रक्षा और ’राज्य’ तथा भूमि का अर्जन करता है । भूमि से ही वह ’कर’ द्वारा धन का अर्जन करता है जो उसके भोग-विलास के लिए नहीं बल्कि उसकी प्रजा के कल्याण के कार्य में ही प्रयुक्त किया जाना चाहिए । किंतु जब क्षत्रिय वर्चस्व के लिए युद्ध करते हैं तो वह केवल उनके पराक्रम का ही द्योतक होना चाहिए, न कि लोभ अऔर् शासन की लिप्सा से प्रेरित कृत्य ।
वैश्य के लिए वस्तुओं और सेवाओं का विनिमय तथा उनसे अर्जित लाभ के द्वारा आजीविका प्राप्त करना सर्वथा स्वाभाविक और उचित ही है ।
इसी प्रकार शूद्र के लिए शारीरिक कर्म एकमात्र उचित व्यावहारिक उपाय है जिससे वह जीवन-निर्वाह के लिए आय अर्जित कर सकता है ।
कहना न होगा कि आज के समय में ’अन्तःकरण’ के आधार से वास्तविक ’ब्राह्मण’ अत्यन्त कम हैं ।
उनसे कुछ अधिक क्षत्रिय हैं, उनसे अधिक वैश्य हैं और सबसे अधिक शूद्र हैं ।
’नौकरी’ और ’बेरोज़गारी’ की समस्या इसी वर्ग के लिए है ।
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण तो जीवन के लिए ज़रूरी साधन ज्ञान, पराक्रम और व्यवसाय-व्यापार से भी अर्जित कर सकता है । उसके लिए ’आरक्षण’ की माँग किसी दूसरे संदर्भ में तो की जा सकती है, किंतु तब भी आरक्षण की व्यवस्था लागू करने के लिए ’जातिवाद’ को आधार नहीं बनाया जाना चाहिए । क्योंकि जहाँ केवल ’योग्यता’ के आधार पर ’अवसर’ दिए और प्राप्त किए जाने चाहिए वहाँ केवल ’योग्यता’ प्राप्त करने के लिए अवश्य ही निर्धन-मात्र को समुचित और आवश्यक आर्थिक सहायता दी जाना चाहिए न कि ’जन्म’ से किसी जाति-विशेष में पैदा होने या न-होने से ।
यह विषय इस दृष्टि से भी विचारणीय है क्योंकि समाज में वैदिक-धर्म से इतर अन्य मतावलंबियों के साथ भी न्याय हो सके ।
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वैदिक आधार पर 'जाति' एक गौण तत्व है, जबकि ’वर्ण’ एक प्रधान तत्व है ।
जिन चार आधारों पर वैदिक धर्म प्रतिष्ठित हैं वे चार चतुष्क इस प्रकार हो सकते हैं :
चार युग : सत-युग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग,
चार वर्ण : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र,
चार आश्रम : ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास,
चार अन्तःकरण : भावना, बुद्धि, मन (विचार), और वृत्ति,
'जाति' मुख्यतः कुल, वंश और परंपरा पर आधारित है और उसका अपना महत्व है क्योंकि वह वर्ण-आधारित है किंतु जाति वर्ण का पर्याय नहीं हो सकती । इसलिए ’आर्य’ और ’अनार्य’ जो वर्णवाचक न होकर भी जातिवाचक हैं ।
’आर्य’ शब्द का पाश्चात्य इतिहासकारों ने जाति के अर्थ में प्रयोग केवल उनके अपने किन्हीं कुत्सित ध्येयों के लिए किया ।
गीता और धम्मपद तथा दूसरे ग्रन्थों में भी ’आर्य’ शब्द का प्रयोग वर्ण या जाति के अर्थ और सन्दर्भ में नहीं बल्कि चरित्र और गुणों की श्रेष्ठता के अर्थ में किया है । इसी प्रकार का कृत्रिम भेद ’आर्य’ और ’द्रविड’ के बीच सृजित किया गया है । द्रविड भाषा और संस्कृति है न कि जाति या वर्ण । और संस्कृतियों के भेद होने से द्रविडभाषी और संस्कृतभाषी समुदायों के बीच परंपराओं में कुछ भिन्नताएँ हैं । किंतु ऐसी भिन्नताएँ किसी एक ही वर्ण की भिन्न-भिन्न शाखाओं में भी पाए जाते हैं जिनका परस्पर सम्मान ही किया जाता है न कि अवमानना ।
द्रविड, तमिऴ, तेलुगू या मलयालम भी संस्कृत से ही व्युत्पन्न हैं इसे ध्यान में रखना आवश्यक है ।
जैसे वेद केवल ब्राह्मणों के ही लिए पठनीय और ग्राह्य हैं और अन्य वर्णों के लिए पुराण ही श्रवणीय मात्र हैं वैसे ही ’चार अन्तःकरणों’ की प्रधानता के अनुसार भावना ब्राह्मण-वर्ण, बुद्धि क्षत्रिय-वर्ण, मन (विचार) वैश्य-वर्ण तथा वृत्ति शूद्र-वर्ण है ।
जैसे इन चार वर्णों के संतुलन से ही समाज स्थिर और सुचारु व्यवस्था के रूप में संचालित होता है, वैसे ही इन चार वर्णों के ही संतुलन से मनुष्य का मन भी सामञ्जस्यपूर्ण हो सकता है ।
चार ’युगों’ के संबंध में यह दृष्टव्य है कि जहाँ सतयुग में ब्राह्मण-वर्ण का, त्रेता-युग में क्षत्रिय-वर्ण का, द्वापर में वैश्य-वर्ण का वर्चस्व रहता है, वैसी ही कलियुग में शूद्र-वर्ण का वर्चस्व है ।
चार वर्णों के गुण-कर्म (अर्थात् मुख्य प्रवृत्ति) गीता में और मनुस्मृति तथा अन्य ग्रन्थों में तो वर्णित हैं ही, किंतु उन्हें ’जाति’ से जोड़कर नहीं देखा जा सकता । ’मनुवादी’ कहकर मनु और दूसरे शास्त्रकारों का जैसा उपहास और अपमान किया गया है वह भी हमारे समय की विडंबना ही है ।
अब वर्ण अर्थात् गुण-कर्म पर आधारित ’अन्तःकरण’ के वर्गीकरण पर एक दृष्टि डालें :
ब्राह्मण के लिए ब्रह्म-कर्म ही एकमात्र कर्तव्य है जिसका अर्थ है तप, स्वाध्याय, तितिक्षा आदि के अभ्यास से संसार का और स्वयं का कल्याण करना ।
स्पष्ट है कि ब्राह्मण न तो युद्ध कर सकता है, न व्यापार और न किसी का दासत्व । भिक्षा या दक्षिणा ब्राह्मण का अधिकार अवश्य है किंतु वह भी पात्र से ही ग्रहण किया जाना चाहिए । ब्राह्मण को न तो लोभ से धन या भोग-विलास के साधनों और वस्तुओं का संग्रह करना चाहिए न उनके अभाव में व्याकुल होना चाहिए ।
इसी प्रकार से क्षत्रिय के लिए भिक्षा माँगना संभव नहीं है । वह पराक्रम से ही समाज और परिवार की रक्षा और ’राज्य’ तथा भूमि का अर्जन करता है । भूमि से ही वह ’कर’ द्वारा धन का अर्जन करता है जो उसके भोग-विलास के लिए नहीं बल्कि उसकी प्रजा के कल्याण के कार्य में ही प्रयुक्त किया जाना चाहिए । किंतु जब क्षत्रिय वर्चस्व के लिए युद्ध करते हैं तो वह केवल उनके पराक्रम का ही द्योतक होना चाहिए, न कि लोभ अऔर् शासन की लिप्सा से प्रेरित कृत्य ।
वैश्य के लिए वस्तुओं और सेवाओं का विनिमय तथा उनसे अर्जित लाभ के द्वारा आजीविका प्राप्त करना सर्वथा स्वाभाविक और उचित ही है ।
इसी प्रकार शूद्र के लिए शारीरिक कर्म एकमात्र उचित व्यावहारिक उपाय है जिससे वह जीवन-निर्वाह के लिए आय अर्जित कर सकता है ।
कहना न होगा कि आज के समय में ’अन्तःकरण’ के आधार से वास्तविक ’ब्राह्मण’ अत्यन्त कम हैं ।
उनसे कुछ अधिक क्षत्रिय हैं, उनसे अधिक वैश्य हैं और सबसे अधिक शूद्र हैं ।
’नौकरी’ और ’बेरोज़गारी’ की समस्या इसी वर्ग के लिए है ।
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण तो जीवन के लिए ज़रूरी साधन ज्ञान, पराक्रम और व्यवसाय-व्यापार से भी अर्जित कर सकता है । उसके लिए ’आरक्षण’ की माँग किसी दूसरे संदर्भ में तो की जा सकती है, किंतु तब भी आरक्षण की व्यवस्था लागू करने के लिए ’जातिवाद’ को आधार नहीं बनाया जाना चाहिए । क्योंकि जहाँ केवल ’योग्यता’ के आधार पर ’अवसर’ दिए और प्राप्त किए जाने चाहिए वहाँ केवल ’योग्यता’ प्राप्त करने के लिए अवश्य ही निर्धन-मात्र को समुचित और आवश्यक आर्थिक सहायता दी जाना चाहिए न कि ’जन्म’ से किसी जाति-विशेष में पैदा होने या न-होने से ।
यह विषय इस दृष्टि से भी विचारणीय है क्योंकि समाज में वैदिक-धर्म से इतर अन्य मतावलंबियों के साथ भी न्याय हो सके ।
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