संभ्रम / कविता
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मुझमें कोई राम नहीं है,
और नहीं है कोई रावण मुझमें!
मुझमें कोई गाँधी नहीं है,
और नहीं है कोई नाथूराम,
मुझमें कोई औरंगज़ेब नहीं है,
और नहीं है कोई शिवाजी मुझमें,
मुझमें कोई कंस नहीं है,
और नहीं है कोई श्रीकृष्ण मुझमें,
क्योंकि नहीं है कोई प्रतिमा मेरे मन में,
और नहीं है अपनी खुद की ही कोई,
जिससे तुलना और किसी की कर पाऊँ,
मैं नहीं इतिहास-पुरुष,
अतीत का कोई उजला या मैला पन्ना,
मैं हूँ नित्य सनातन शाश्वत्,
सब मुझमें हैं , लेकिन मैं किसी में नहीं ।
क्योंकि नहीं है कोई प्रतिमा मेरे मन में,
और नहीं है अपनी खुद की ही कोई,
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कोई प्रतिमा भी आख़िर क्या होती है?
वह जो तुम आरोपित कर देते हो,
किसी वस्तु पर जो स्थान समय से,
यूँ तो होती है नितांत अछूती,
लेकिन जिसे नाम आकृति में बाँधते हुए,
’पहले’ और ’बाद’ की रचना कर लेते हो ।
तुम दूसरी वस्तुओं की ही नहीं,
तुम दूसरे व्यक्तियों की ही नहीं,
खुद की, अपनी भी प्रतिमा गढ़ लेते हो,
बाँध लेते हो खुद ही खुद को उस कारा में ।
’मैं दुःखी हूँ, या मैं सुखी हूँ,
मैं स्त्री हूँ या कि मैं पुरुष हूँ,
या कभी-कभी नपुंसक भी !
सफल, विफल, या संघर्षरत,
निर्धन, धनिक, कंगाल,
पति, पत्नी, बेटा, बेटी,
पिता, माता, भाई या बहन,
नौकर, स्वामी, नेता, अनुयायी,
क्रांतिकारी, दब्बू, डरपोक, कायर,
वीर, असहाय, धार्मिक, अधार्मिक,
अधर्मी, विधर्मी, धर्मरक्षक,
आस्तिक या नास्तिक,
पापी या पुण्यवान,
शोषक या शोषित, ...'
जबकि ये सब तुम नहीं,
तुम्हारी प्रतिमाएँ होती हैं,
जिन्हें तुमने ही गढ़ा होता है
ये सब तुम नहीं,
तुम्हारे शरीर, मन, बुद्धि, संस्कारों के,
परिस्थितियाँ, और उनसे होनेवाले,
कर्म होते हैं, न कि होते हो तुम!
क्या इस सबसे खुद को जोड़कर ही,
तुम अपनी कोई प्रतिमा नहीं गढ़ लेते?
क्या ऐसे ही तुम राम, रावण,
गाँधी और नाथूराम,
औरंगज़ेब और शिवाजी,
श्रीकृष्ण और कंस,
भारत और जर्मनी,
अमेरिका और फ़्रांस,
गाँधीवाद, साम्यवाद या समाजवाद,
इस्लाम, हिन्दुत्व, क्रिश्चियनिटी,
यहूदी, पारसी या बौद्ध-सिख,
ईश्वर, सत्य, अहिंसा,
की भी प्रतिमा नहीं गढ़ लेते?
तुम इन प्रतिमाओं को जानते हो या उसे,
जिसे तुमने ही प्रमादवश,
अपनी अनवधानपूर्ण मनःस्थिति में,
खुद ही ढाला था,?
तुम चाहो तो अभी ही,
इन प्रतिमाओं को विसर्जित कर सकते हो,
और इनके ही साथ,
अपनी खुद की प्रतिमा को भी !
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मुझमें कोई राम नहीं है,
और नहीं है कोई रावण मुझमें!
मुझमें कोई गाँधी नहीं है,
और नहीं है कोई नाथूराम,
मुझमें कोई औरंगज़ेब नहीं है,
और नहीं है कोई शिवाजी मुझमें,
मुझमें कोई कंस नहीं है,
और नहीं है कोई श्रीकृष्ण मुझमें,
क्योंकि नहीं है कोई प्रतिमा मेरे मन में,
और नहीं है अपनी खुद की ही कोई,
जिससे तुलना और किसी की कर पाऊँ,
मैं नहीं इतिहास-पुरुष,
अतीत का कोई उजला या मैला पन्ना,
मैं हूँ नित्य सनातन शाश्वत्,
सब मुझमें हैं , लेकिन मैं किसी में नहीं ।
क्योंकि नहीं है कोई प्रतिमा मेरे मन में,
और नहीं है अपनी खुद की ही कोई,
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कोई प्रतिमा भी आख़िर क्या होती है?
वह जो तुम आरोपित कर देते हो,
किसी वस्तु पर जो स्थान समय से,
यूँ तो होती है नितांत अछूती,
लेकिन जिसे नाम आकृति में बाँधते हुए,
’पहले’ और ’बाद’ की रचना कर लेते हो ।
तुम दूसरी वस्तुओं की ही नहीं,
तुम दूसरे व्यक्तियों की ही नहीं,
खुद की, अपनी भी प्रतिमा गढ़ लेते हो,
बाँध लेते हो खुद ही खुद को उस कारा में ।
’मैं दुःखी हूँ, या मैं सुखी हूँ,
मैं स्त्री हूँ या कि मैं पुरुष हूँ,
या कभी-कभी नपुंसक भी !
सफल, विफल, या संघर्षरत,
निर्धन, धनिक, कंगाल,
पति, पत्नी, बेटा, बेटी,
पिता, माता, भाई या बहन,
नौकर, स्वामी, नेता, अनुयायी,
क्रांतिकारी, दब्बू, डरपोक, कायर,
वीर, असहाय, धार्मिक, अधार्मिक,
अधर्मी, विधर्मी, धर्मरक्षक,
आस्तिक या नास्तिक,
पापी या पुण्यवान,
शोषक या शोषित, ...'
जबकि ये सब तुम नहीं,
तुम्हारी प्रतिमाएँ होती हैं,
जिन्हें तुमने ही गढ़ा होता है
ये सब तुम नहीं,
तुम्हारे शरीर, मन, बुद्धि, संस्कारों के,
परिस्थितियाँ, और उनसे होनेवाले,
कर्म होते हैं, न कि होते हो तुम!
क्या इस सबसे खुद को जोड़कर ही,
तुम अपनी कोई प्रतिमा नहीं गढ़ लेते?
क्या ऐसे ही तुम राम, रावण,
गाँधी और नाथूराम,
औरंगज़ेब और शिवाजी,
श्रीकृष्ण और कंस,
भारत और जर्मनी,
अमेरिका और फ़्रांस,
गाँधीवाद, साम्यवाद या समाजवाद,
इस्लाम, हिन्दुत्व, क्रिश्चियनिटी,
यहूदी, पारसी या बौद्ध-सिख,
ईश्वर, सत्य, अहिंसा,
की भी प्रतिमा नहीं गढ़ लेते?
तुम इन प्रतिमाओं को जानते हो या उसे,
जिसे तुमने ही प्रमादवश,
अपनी अनवधानपूर्ण मनःस्थिति में,
खुद ही ढाला था,?
तुम चाहो तो अभी ही,
इन प्रतिमाओं को विसर्जित कर सकते हो,
और इनके ही साथ,
अपनी खुद की प्रतिमा को भी !
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