Monday, 30 October 2017

मेरे मन अभिमानी!

कविता
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मन मत कर मनमानी,
मेरे मन अभिमानी!
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तेरी प्रीत सुख-साधन में,
पर तू तो निपट अज्ञानी,
सुख-दुःख नहीं देह को व्यापैं,
देह न सुख-दुःख जानी,
इन्द्रिय साधन सुख-दुःख के,
वे सेवक बस चाकर तेरे,
पीनेवाला प्याला ना जाने
अमरित गरल या हाला,
जाने पीनेवाला सुख-दुःख,
वो तू ही निपट अज्ञानी,
देह, विषय, इन्द्रियाँ सभी,
अनित्य सब आनी-जानी,
तेरा राम जो तुझ में बसा,
जैसे घट-घट में पानी,
प्यास तेरी है राम के लिए,
तूने सुख-दुःख की मानी,
मेरे मन तू अब तो समझ ले,
यह दुनिया सुख-दुःख फ़ानी
मन मत कर मनमानी,
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Sunday, 29 October 2017

आँवला और तुलसी

स्कंद-पुराण, वैष्णव-खण्ड, कार्त्तिकमास-माहात्म्य से दो कथाएँ:
१.पूर्वकाल में दुर्वासा के शाप से जब इन्द्र का ऐश्वर्य छिन गया था, उस समय ब्रह्मा आदि देवताओं और असुरों ने मिलकर क्षीरसागर का मंथन किया । उससे ऐरावत हाथी, कल्पवृक्ष, चन्द्रम्, लक्ष्मी, उच्चैःश्रवा घोड़ा, कौस्तुभमणि तथा धन्वन्तरिरूप भगवान् श्रीहरि और दिव्य ओषधियाँ प्रकट हुईं । तदनन्तर अजरता और अमरता प्रदान करनेवाले उस अमृतकलश को दोनों हाथों में लिए हुए श्रीविष्णु बड़े हर्ष को प्राप्त हुए । उनके नेत्रों से आनन्दाश्रु की कुछ बूँदें उस अमृत के ऊपर गिरीं । उनसे तत्काल ही मंडलाकार तुलसी उत्पन्न हुईं । 
२.पूर्वकाल में जब सारा जगत् एकार्णव के जल में निमग्न हो गया था, समस्त चराचर प्राणी नष्ट हो गए थे, उस समय देवाधिदेव सनातन परमात्मा ब्रह्माजी अविनाशी परब्रह्म का जप करने लगे थे । ब्रह्म का जप करते-करते उनके आगे श्वास निकला । साथ ही भगवद्दर्शन के अनुरागवश उनके नेत्रों से जल निकल आया । प्रेम के आँसुओं से परिपूर्ण वह जल की बूँद पृथ्वी पर गिर पड़ी । उसी से आँवले का महान् वृक्ष उत्पन्न हुआ, जिसमें बह्त सी शाखाएँ उपशाखाएँ निकली थीं । वह फलों के भार से लदा हुआ था । सब वृक्षों में सबसे पहले आँवला ही प्रकट हुआ, इसलिए उसे ’आदिरोह’ कहा गया । ब्रह्मा ने पहले आँवले को उत्पन्न किया । उसके बाद समस्त प्रजा की सृष्टि की । जब देवता आदि की भी सृष्टि हो गयी, तब वे उस स्थान पर अये जहाँ भगवान् विष्णु को प्रिय लगनेवाला आँवला वृक्ष था ।
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Saturday, 28 October 2017

जातिवाद, वर्णवाद, वृत्ति और 'आरक्षण'

जातिवाद, वर्णवाद, वृत्ति (profession) और 'आरक्षण'
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वैदिक आधार पर 'जाति' एक गौण तत्व है, जबकि ’वर्ण’ एक प्रधान तत्व है ।
जिन चार आधारों पर वैदिक धर्म प्रतिष्ठित हैं वे चार चतुष्क इस प्रकार हो सकते हैं :
चार युग : सत-युग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग,
चार वर्ण : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र,
चार आश्रम : ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास,
चार अन्तःकरण : भावना, बुद्धि, मन (विचार), और वृत्ति,
'जाति' मुख्यतः कुल, वंश और परंपरा पर आधारित है और उसका अपना महत्व है क्योंकि वह वर्ण-आधारित है किंतु जाति वर्ण का पर्याय नहीं हो सकती । इसलिए ’आर्य’ और ’अनार्य’ जो वर्णवाचक न होकर भी जातिवाचक हैं ।
’आर्य’ शब्द का पाश्चात्य इतिहासकारों ने जाति के अर्थ में प्रयोग केवल उनके अपने किन्हीं कुत्सित ध्येयों के लिए किया ।
गीता और धम्मपद तथा दूसरे ग्रन्थों में भी ’आर्य’ शब्द का प्रयोग वर्ण या जाति के अर्थ और सन्दर्भ में नहीं बल्कि चरित्र और गुणों की श्रेष्ठता के अर्थ में किया है । इसी प्रकार का कृत्रिम भेद ’आर्य’ और ’द्रविड’ के बीच सृजित किया गया है । द्रविड भाषा और संस्कृति है न कि जाति या वर्ण । और संस्कृतियों के भेद होने से द्रविडभाषी और संस्कृतभाषी समुदायों के बीच परंपराओं में कुछ भिन्नताएँ हैं । किंतु ऐसी भिन्नताएँ किसी एक ही वर्ण की भिन्न-भिन्न शाखाओं में भी पाए जाते हैं जिनका परस्पर सम्मान ही किया जाता है न कि अवमानना ।
द्रविड, तमिऴ, तेलुगू या मलयालम भी संस्कृत से ही व्युत्पन्न हैं इसे ध्यान में रखना आवश्यक है ।
जैसे वेद केवल ब्राह्मणों के ही लिए पठनीय और ग्राह्य हैं और अन्य वर्णों के लिए पुराण ही श्रवणीय मात्र हैं वैसे ही ’चार अन्तःकरणों’ की प्रधानता के अनुसार भावना ब्राह्मण-वर्ण, बुद्धि क्षत्रिय-वर्ण, मन (विचार) वैश्य-वर्ण तथा वृत्ति शूद्र-वर्ण है ।
जैसे इन चार वर्णों के संतुलन से ही समाज स्थिर और सुचारु व्यवस्था के रूप में संचालित होता है, वैसे ही इन चार वर्णों के ही संतुलन से मनुष्य का मन भी सामञ्जस्यपूर्ण हो सकता है ।
चार ’युगों’ के संबंध में यह दृष्टव्य है कि जहाँ सतयुग में ब्राह्मण-वर्ण का, त्रेता-युग में क्षत्रिय-वर्ण का, द्वापर में वैश्य-वर्ण का वर्चस्व रहता है, वैसी ही कलियुग में शूद्र-वर्ण का वर्चस्व है ।
चार वर्णों के गुण-कर्म (अर्थात् मुख्य प्रवृत्ति) गीता में और मनुस्मृति तथा अन्य ग्रन्थों में तो वर्णित हैं ही, किंतु उन्हें ’जाति’ से जोड़कर नहीं देखा जा सकता । ’मनुवादी’ कहकर मनु और दूसरे शास्त्रकारों का जैसा उपहास और अपमान किया गया है वह भी हमारे समय की विडंबना ही है ।
अब वर्ण अर्थात् गुण-कर्म पर आधारित ’अन्तःकरण’ के वर्गीकरण पर एक दृष्टि डालें :
ब्राह्मण के लिए ब्रह्म-कर्म ही एकमात्र कर्तव्य है जिसका अर्थ है तप, स्वाध्याय, तितिक्षा आदि के अभ्यास से संसार का और स्वयं का कल्याण करना ।
स्पष्ट है कि ब्राह्मण न तो युद्ध कर सकता है, न व्यापार और न किसी का दासत्व । भिक्षा या दक्षिणा ब्राह्मण का अधिकार अवश्य है किंतु वह भी पात्र से ही ग्रहण किया जाना चाहिए । ब्राह्मण को न तो लोभ से धन या भोग-विलास के साधनों और वस्तुओं का संग्रह करना चाहिए न उनके अभाव में व्याकुल होना चाहिए ।
इसी प्रकार से क्षत्रिय के लिए भिक्षा माँगना संभव नहीं है । वह पराक्रम से ही समाज और परिवार की रक्षा और ’राज्य’ तथा भूमि का अर्जन करता है । भूमि से ही वह ’कर’ द्वारा धन का अर्जन करता है जो उसके भोग-विलास के लिए नहीं बल्कि उसकी प्रजा के कल्याण के कार्य में ही प्रयुक्त किया जाना चाहिए । किंतु जब क्षत्रिय वर्चस्व के लिए युद्ध करते हैं तो वह केवल उनके पराक्रम का ही द्योतक होना चाहिए, न कि लोभ अऔर् शासन की लिप्सा से प्रेरित कृत्य ।
वैश्य के लिए वस्तुओं और सेवाओं का विनिमय तथा उनसे अर्जित लाभ के द्वारा आजीविका प्राप्त करना सर्वथा स्वाभाविक और उचित ही है ।
इसी प्रकार शूद्र के लिए शारीरिक कर्म एकमात्र उचित व्यावहारिक उपाय है जिससे वह जीवन-निर्वाह के लिए आय अर्जित कर सकता है ।
कहना न होगा कि आज के समय में ’अन्तःकरण’ के आधार से वास्तविक ’ब्राह्मण’ अत्यन्त कम हैं ।
उनसे कुछ अधिक क्षत्रिय हैं, उनसे अधिक वैश्य हैं और सबसे अधिक शूद्र हैं ।
’नौकरी’ और ’बेरोज़गारी’ की समस्या इसी वर्ग के लिए है ।
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण तो जीवन के लिए ज़रूरी साधन ज्ञान, पराक्रम और व्यवसाय-व्यापार से भी अर्जित कर सकता है । उसके लिए ’आरक्षण’ की माँग किसी दूसरे संदर्भ में तो की जा सकती है, किंतु तब भी आरक्षण की व्यवस्था लागू करने के लिए ’जातिवाद’ को आधार नहीं बनाया जाना चाहिए । क्योंकि जहाँ केवल ’योग्यता’ के आधार पर ’अवसर’ दिए और प्राप्त किए जाने चाहिए वहाँ केवल ’योग्यता’ प्राप्त करने के लिए अवश्य ही निर्धन-मात्र को समुचित और आवश्यक आर्थिक सहायता दी जाना चाहिए न कि ’जन्म’ से किसी जाति-विशेष में पैदा होने या न-होने से ।
यह विषय इस दृष्टि से भी विचारणीय है क्योंकि समाज में वैदिक-धर्म से इतर अन्य मतावलंबियों के साथ भी न्याय हो सके ।
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Tuesday, 24 October 2017

English Translation of my 2 Hindi posts

English Translation of my 2 Hindi posts
अर्धनारीश्वर and विकल्प
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I’m looking for learning something from you.
What is the very first step towards understanding the sanātana-dharma ?
I read your blog.
It seems you don’t think study of Veda by women is advisable.
But now, I have no other option.
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What is the very first step towards understanding the sanātana-dharma ?
I would like to draw your attention that the purpose of attaching the word ‘dharma’ with sanātana in sanātana-dharma is to make it clear that ‘dharma’ is what is sanātana, that exists for ever, without an end. ‘Time’ has been accepted in 4 forms. Eternal, transitory, recurring, and immutable, -unmoving. The one who accepts this ‘Time’ is the right and the eligible recipient who takes the ‘Time’ in these 4 ways. The recipient is the one who deserves for and can hold ‘Time’ in this way in his understanding. How far and how much, one can grasp, depends upon the eligibility and the capacity, the merits and demerits of the recipient. Accordingly, how he can apply this in the right way and transmit the same to others. 
Here, the ‘recipient’ means the man.
The man is again a complex and consequential of two elementary fundamental principles :
the male and the female principles.
Again the according to the साङ्ख्य दर्शन / sāṅkhya darshana, the male principle is  पुरुष / puruṣa and the female is प्रकृति / prakṛti .
Though Veda treats them as the Divine ‘Mother-principle’/ मातृ-शक्ति /  देवी / devī / mātṛ-śakti  and the Divine ‘Father-principle’ शिव-तत्व / śiva-tatva respectively.
As a conscious being, identification with  प्रकृति / prakṛti means : to lose the ego.
As a conscious being, identification with  पुरुष / puruṣa means : to have ego,
And transcending the same (ego) by the proper understanding of this ‘ego’.
In both these ways, the conscious being attains the right understanding of the ‘Self’ – the आत्मन् / ātman
Which is another name for ब्रह्मन् / brahman only.
One there-by realizes one’s identity as आत्मन् / ātman / and ब्रह्मन् / brahman .
The physical body is प्रकृति / prakṛti, -the nature-external, while the ‘mind’ / अन्तःकरण / antaḥkaraṇa
 / inner organ / consciousness is the nature-internal .
In the process of being eligible (पात्र / pātra, अधिकारी / adhikārī ),  there are four streams according to the age, and the four distinct classes of society, to be followed by a human being.
Thus ब्रह्मचर्य / brahmacarya,  गृहस्थ / gṛhastha,  वानप्रस्थ / vānaprastha,  संन्यास / saṃnyāsa आश्रम /  āśrama / are the four stages in life according to one’s age, while ब्राह्मण / brāhmaṇa , क्षत्रिय / kṣatriya, वैश्य / vaiśya, शूद्र / śūdra  are the four social classes or, वर्ण / varṇa. This classification of वर्ण / varṇa, is not ‘caste’ as we are often told. Caste is the professional occupation of the family.
So every-one has to undergo these stages of age by nature itself and no one can escape this. Just as a child one has to learn the skills and get educated about life and manners, ethics and all that, when grown up as an adult one has to run the life of a house-hold and raise the family and clan, when old enough to retire to renounce the family and the worldly pursuits and retire and go to forest for preparation of attaining the higher, spiritual truths, other than worldly and finally to attain the eternal state of the the ब्रह्मन् / brahman.
This is the general outline.     
Again the external signs (gender) of a person also determines what tendencies are natural to him / her that will help him / her most to gain the best in life and even after one is dead. As female is ‘nature’ / being  प्रकृति / prakṛti which is kind of passive energy, which always gives only, so ‘service’ of the family and the needy is the only virtue that makes her attain the (Highest) State of Self and she has no other obligations any. Thus devotion भक्ति / bhakti alone is enough and sufficient way of her emancipation.
But in case of a male, the ego and aggressiveness inherent in him make him entrepreneur, dominating and industrious, that is active. That is natural for him. 
In this way, study and performing of the rituals and sacrifices (अनुष्ठान / anuṣṭhāna यज्ञ / yajña) is natural and obligatory for a person with a  पुरुष / puruṣa -male body. This is quite against the nature of a female-person, and at the same time detrimental to her natural rhythm as well.
For a female, that is a woman the simple way is service and following the duties as are enjoined upon her by scriptures. The highest form of such a dharma / virtue is to practice पातिव्रत-धर्म / pātivrata-dharma, which means following the husband and accompanying him in all walks of life, in all his pains, troubles, joys and pleasures. Veda declares this the highest virtue and such a woman is treated as Mother Divine, a Goddess in human form and body. She has power to change the course of destiny as is evident from the examples of  सावित्री / sāvitrī, सीता / sītā, अनसूया / anasūyā, and other such noble women of yore.
In comparision, man (male) is but a labourer, kind of a servant who has to go through austerities that are quite hard and arduous. Woman even if fallen is free of sin while man (male) is quite prone to be stained by sin and has to suffer the results and consequences. 
Study of scriptures is thus only for males and that too for a ब्राह्मण / brāhmaṇa only.
Because he has to perform the rituals that means propitiating divine entities (देवता / devatā ) which are the core-principle of all Vedika procedures.
This is verily the आधिदैविक / ādhidaivika sphere of subtle elements of nature who govern the whole life at a subtle level and as they could be contacted through  मंत्र / maṃtra and यज्ञ / yajña only,  this is rather a strict condition that could not be ignored.
Therefore study of Veda is the prerogative of a male and a ब्राह्मण / brāhmaṇa only.
Then such a ब्राह्मण / brāhmaṇa only needs to follow the injunctions as are dictated by Veda with perfect compliance to them.
Veda is not a book or merely a text, but the compilation of  मंत्र / maṃtra and the procedures that are not, could not and should not be translated into any other language. That is the beauty of Veda. Veda is the Code of Creation, discovered and rediscovered  from time to time by the ऋषि / ṛṣi, by the sages, so every single letter, phoneme, syllable of Veda is well-defined देवता / devatā ) while a मंत्र / maṃtra is again such a देवता / devatā.
That is how the Veda is the Wisdom and Intelligence independent of ‘Time’ (in terms of our concept of ‘Time’) . Study of Veda is therefore the duty and right of a ब्राह्मण / brāhmaṇa only.
Without initiation from a capable  आचार्य / ācārya  and the proper sacrifices (यज्ञ / yajña) and  मंत्र / maṃtra, such a man is not a द्विज / dvija and all his ‘knowledge’ of Veda is just vain, useless and invalid. If the वर्ण / varṇa (the social-class) and the  संस्कार / saṃskāra of a man favour, even a अब्राह्मण  abrāhmaṇa could be initiated in the system of Vedika Learning as is evident from the case of 

सत्यकाम जाबाल satyakāma-jābāla.
This implies and is a proof that ‘caste’ is not same as the social-class वर्ण / varṇa .
Veda never imposes anything upon any-one, but only warns about the results, -auspicious or inauspicious one reaps by one’s actions (karma) here and afterwards. In this life and in the next lives. Veda never forces
that one should accept Veda nor threatens about the harmful consequences that befall upon one by not following Veda.
As Veda is not a ‘book’ but a compendium of मंत्र / maṃtra, rituals and procedures, so as to facilitate the performance of those strictly according to the rules, these have been preserved in the written form also.  And it is evident that these Vedika texts could never be translated in any language whatsoever. The genre छन्दस् / chandas also  indicates that Veda is poetry in metre-form. So also just as in the case of poetry, it is almost impossible to translate the core of these texts so as to convey correctly the essence. Of course one could find out ‘stories’ in Veda but that is just speculative and takes nowhere. Again the  छन्दस् / chandas and the मंत्र / maṃtra also are the instruments only and just like a computer-programe they have no inherent meaning any but are of use only. Veda are closely related with the Divine Powers आधिदैविक / ādhidaivika देवता / devatā element which the scholars have deliberately or through error treated as inert natural powers.
But there is also an alternative for those who are pure at heart and humble enough to see their limits and understand that The Supreme Power that is the foremost cause of this whole existence could be reached through devotion as well. And they can adhere to and follow the way of  पुराण / purāṇa / which emphasize that according to one’s inclination that power could be invoked in the form of whatever देवता / devatā one worships according to his / her interest / inclination.
This stream of भक्ति / bhakti or ’Devotion’ is also equally effective in attainment of the Supreme.

 This भक्ति / bhakti or ’Devotion’ or the निष्ठा / niṣṭhā / the natural conviction arises in the heart of one who is earnest in seeking the ‘Savior’, Who can save one from the sorrow of repeated incarnations in the world.
This Savior is not a ‘Messenger’ but Truly the Supreme God-head Himself who assumes the form of a living-being and not only a human-one but also some other like Fish, Tortoise, …etc.
The पुराण / purāṇa narrate in much detail about them and that is not just a wishful imagination, because all relate and refer to one-another in such a closely compact manner that no human-intellect can think.
This भक्ति / bhakti or ’Devotion’ leads one to  तप / tapa that is spontaneous for the aspirant and absolves him from all sin. Woman and those who don’t fall under the category of वर्ण / varṇa (the social-class)  are the best  suitable for this path.
Gita Chapter 30, verse 30, 31, 32, 33 shed light upon this aspect of भक्ति / bhakti or ’Devotion’.
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I don’t know much about this terminology of this पुरुष / puruṣa and प्रकृति / prakṛti tendencies, but an urge for knowing the Self has come up from the deep, Longing to come under the proverbial  बोधि-वृक्ष / bodhi-vṛkṣa / and attain the Enlightenment that makes one a Buddha.
Looks like my fate is to become first a ‘कालिदास / kālidāsa’ (-an utter stupid) and then the विद्योत्तमा / vidyottamā (-a learned woman).
What is the meaning of ‘अर्धनारीश्वर / ardhanārīśvara’ ?
What is the purport of  ‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा / athāto brahmajijñāsā’ ?
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‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा / athāto brahmajijñāsā’ ?
is the first aphorism of the famous Vedika-Text  ब्रह्म-सूत्र / brahma-sūtra यह ब्रह्म-सूत्र (ग्रंथ) का प्रथम सूत्र है । which is taken at par with गीता / gītā and उपनिषद् / upaniṣad. Together they form the traditional प्रस्थान-त्रयी / prasthāna-trayī.

When  one realizes that all the knowledge earned by him is mediate, indirect (acquired through a medium that is senses, mind, intellect, experience and memory), and so partial, limited, incomplete, absurd and useless then there is a question in his mind :
“Is there such a knowledge which is not mediate, but direct, immediate,  so partial, limited, incomplete, absurd and useless?”
 The knowledge gained by means of senses is indirect / mediate.
All experience is kind of knowledge acquired through senses.
Experience itself is perception through senses.
That is limited and partial according to the capacity of senses.
Whatever is seen through eyes, whatever is heard through the ears, are of mutually different kinds.
And you can’t translate one kind of experience into another kind of experience. You can not translate such experience / knowledge into another kind of experience / knowledge. Even if you invent some language for this purpose that could facilitate such translation, that will be a programe of the kind as is used in computer. And you know the coding and decoding only. The experience of seeing can’t be translated into the experience of hearing. And if you could somehow do this miracle happen, there will be thousands of such translations and which one is the only correct will always be doubted.And you can’t provide proof for the same.
The intellect does the same; -translates the experience in such a way. We say a song was pleasant and a sight was pleasant.
And because intellect depends upon and is supported by logic, there are innumerable intellects.
This knowledge therefore by means of ‘intellect’ could not be reliable.
Then we conjure up premises and formulate them. We create theory / verbal forms whicha are taken as ‘True’. And that theory is accepted as evidence’.
The intellect is again the indirect / mediate knowledge.
The ‘one’ who gains such knowledge is always the same irrespective of the conditions.
And the ‘one’ who knows this ‘one’ is again oneself.
So knowing of oneself is intuitive and though not verbal (and could not be made verbal), it is immediate and impartial, complete and undivided in terms of the knowledge, the known and the ‘one’ who knows.
This may look a little awkward and rather difficult, but once you go through this contemplation you at once discover how true it is.
In this knowledge, there is no division of  ‘knower’-‘known’-‘knowledge’. and the शायद यह आपको कठिन या निरर्थक श्रम लग रहा हो किंतु इस श्रम से गुज़रने पर ही उस ’ज्ञान’ से परिचय होता है जो ’अपरोक्ष’ (इम्मीडिएट) ज्ञान है । जहाँ ज्ञाता-ज्ञान और ज्ञेय में विभाजन नहीं है । The same Trth is what is known, the one who knows and the knowledge of oneself.
Let us hava another glance at it.
अब इसे दूसरे ढंग से देखें ।
Whatever is ‘known’ is information. And what is thought of hitherto unknown is grasped as information  becomes known. This way we just move in a circle from known to known only, yet we hope we can (possibly in some distant future) know all knowldge some day. And we hope we shall have the ‘complete’ knowledge.
‘Enlightenment’, ‘Supreme knowledge’ ’पर-ज्ञान’ / ’परम-ज्ञान’ बोधि-वृक्ष / bodhi-vṛkṣa are no doubt wonderful words, and we get enchanted by these words but are vacant, meaningless to us as long we have not realized that thought and such mediate knowledge is essentially limited, absurd, fragmentary and misleading too. And we keep wandering in dark.


In comparision and contrast, when we test the element of permanency in each and everything that we come across, and on this criteria intutively see / realize that there is nothing permanent. The objects, the experience, the knowledge, the memory, the intellect, and then there may be a deep urge in us to find out : “What is there that is imperishable, never changing, immutable, and abiding.” And then we can feel avertion towards all sensory pleasures, experiences, the objects of enjoyment. This kind of maturity is called ‘dispassion’ which is different from like or hatred. Then we are told :
“There is such a Truth, a principle which is the Ultimate Supreme Reality  the ‘ब्रह्मन् / Brahman’.
Without this urge one can go through scriptures and though studied in great detail, can’t come to it.
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Unfortunately ‘Spirituality’ has been turned into a lucrative business and the simple, natural truth and Reality is for sale.
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’अर्धनारीश्वर’ could be explained and interpreted on the basis of genetics but that would be only a distortion to and deviation from what Veda and पुराण / purāṇa would tell us about ardhanārīśvara .
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Monday, 23 October 2017

निष्ठुर

निष्ठुर
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प्रायः शब्दों के संस्कार होने पर उनके अर्थ भी बदल जाते हैं, और इसलिए किसी शब्द के मूल अर्थ को समझने के लिए उनकी व्युत्पत्ति बहुत सहायक होती है ।
उसके पिता, बाबा से जब पहली बार मिला था तो वे बोले थे :
’आप निष्ठुर हो ।’
’निष्ठुर’ मतलब?
वे बहुत देर तक कुछ न बोले । फिर हम इस प्रसंग को भूल गए ।
फिर बातों-बातों में एक दिन उन्होंने पूछा था :
"आपको क्या दुःख है?"
मैंने सुना और उनके प्रश्न पर सोचता रहा ।
किसी ज़माने में मुझे हाज़िर-जवाब कहा जाता था और इससे मुझे आश्चर्य होता था क्योंकि कभी-कभी अपरिपक्व बुद्धि का व्यक्ति भी हाज़िर जवाब होता है । यह तो उसे बहुत बाद में पता चलता है कि हर प्रश्न का उत्तर हो यह ज़रूरी नहीं और उत्तर दिया जाना तो नितांत मूर्खता भी हो सकता है, क्योंकि तब हम प्रश्न के तात्पर्य को समझे बिना ही कोई ऐसा उत्तर दे देते हैं जो सर्वथा अप्रासंगिक और असंबद्ध हो ।
बरसों बीत चुके ।
आज अचानक सोचा कि मुझे क्या दुःख है?
इस प्रश्न को समझने की यात्रा बहुत दुरूह है, लंबी या छोटी नहीं है ।
क्योंकि इसमें जिन दो वस्तुओं का उल्लेख है, उनके बारे में स्पष्टता न हो तो इसका कोई भी उत्तर व्यावहारिक भले ही हो, समस्या के रूप में इस प्रश्न का समाधान नहीं दे पाता ।
उनके प्रथम वाक्य ’आप निष्ठुर हो ।’ और दूसरे प्रश्न "आपको क्या दुःख है?" का मैं ने न तो कोई उत्तर दिया न उस पर उस समय कोई प्रतिक्रिया ही मेरे मन में उठी । कहा जा सकता है कि यह ठीक ही था ।
उनकी पुत्री उन दिनों वहाँ नहीं थी ।
वैसे तो रिश्ते में वह मेरी दूर की कोई परिचित महिला हैं और आत्मीयता होने के बावज़ूद भी न तो उनसे मिलने का कोई ख़याल कभी आया, न उनके बारे में मैं सोचता ही हूँ । शायद उनका कुछ राग / लगाव मुझसे अवश्य है लेकिन वह वैसा ही सांसारिक प्रकार का है जैसा कि अपने परिवार में किसी से होता है । इसे आसक्ति कहना अधिक अच्छा है क्योंकि इस राग में आशा-अपेक्षा, कर्तव्य, स्वार्थ भी हैं जिनसे यह राग कभी कभी क्रोध या शिकायत भी बन जाता है ।
कुछ दिन पहले जब वे अचानक मिलने आ पहुँची, आते ही अधिकार-पूर्वक किचन में चली गईं, किचन का निरीक्षण किया, फिर आकर ड्रॉइंग-रूम में बैठ गईं ।
’तुम्हें पता है विनय कि तुम कितने सुखी हो । पुरुष तो कैसे भी चरित्र का हो विवाह कर या किए बिना भी सुखी रह सकता है, जबकि स्त्री के लिए इधर कुआँ उधर खाईं की स्थिति होती है ।’
’हाँ...’
’तुम्हें जीवन में वह सब प्राप्त हो गया जो तुम चाहते थे लेकिन हम गृहस्थों में, क्या स्त्री, या क्या पुरुष, बहुत कम लोगों को वह सब मिल पाता है जो उसने चाहा होता है । यहाँ तक कि अन्त में बस निराशा, व्यर्थता और मज़बूरी में जीवन की गाड़ी को जैसे-तैसे खींचते रहना ही एकमात्र विकल्प होता है ।’
मैं जानता था कि उसका वैवाहिक और पारिवारिक जीवन भी बहुत संतोषप्रद नहीं रहा, यद्यपि वह और उसका पति उच्च-शिक्षित, संभ्रांत परिवार के हैं और उनके बच्चे भी बहुत अच्छी स्थिति में हैं ।
’आपको क्या दुःख है?’
बरबस मैंने पूछ लिया ।
’इसीलिए तो तुमसे मिलने आई थी ।’
’जी, बताइये ।’
’अरे! मैं तो आपसे पूछने आई थी कि अब मैं इस सबसे छुटकारा कैसे पाऊँ !’
’सच? सुनेंगीं आप या बस शिकायत ही करेंगीं?’
’नहीं, सुनने के लिए तैयार होकर आई हूँ, वैसे मुझे पता है कि तुम निष्ठुर हो ।’
’निष्ठुर मतलब?’
’निष्ठुर मतलब कठोर हृदय ।’
’बाय द वे, एक बार आपके बाबा ने भी मुझसे यही कहा था :
’आप निष्ठुर हो ।’
और मैंने उनसे भी यही पूछा था :
’निष्ठुर मतलब?’
और फिर एक दिन उन्होंने मुझसे प्रश्न किया था :
"आपको क्या दुःख है?"
’आपको पता है कि मैं आपके बाबा को सुनता भर था कभी उनसे तर्क-वितर्क नहीं करता था ।
हाँ उस बारे में चिंतन ज़रूर करता था । क्या कठोर-हृदय होना अपराध है?’
’अपराध तो नहीं, लेकिन आपमें प्रेम की कमी है ।’
शायद इसे किसी दूसरे ढंग से सोचा जाए । जब बाबा ने मुझसे कहा था :
’आप निष्ठुर हो ।’
तो मैंने उनसे इसका मतलब पूछा था और फिर अचानक एक दिन इस पर सोचते सोचते मुझे पता चला कि निष्ठुर वह होता है जिसकी किसी सत्य में पूर्ण निष्ठा होती है, जिसे उसने जिया होता है और ऐसा सत्य आत्यंतिक होता है न कि वैयक्तिक । इसलिए ऐसा मनुष्य लौकिक अर्थ में शायद संसार के दुःखों कष्टों के प्रति उदासीन भी होता हो लेकिन वह न तो उन दुःखों कष्टों को पैदा करता है, न दूसरों के द्वारा स्वकल्पित दुःखों कष्टों को दूर करने में उनकी कोई सहायता कर सकता है । ऐसा मनुष्य क्रूर या दुष्ट तो होता ही नहीं बल्कि उसमें दूसरों के प्रति करुणा अवश्य होती है और वह जानता है कि वे भी उस जैसे ही किसी दिन किसी निष्ठा का आविष्कार स्वयं में कर लेंगे । वैसे भी यह सब कल्पना ही तो है ।
बाबा ने मुझसे ’दुःख क्या है?’ यह प्रश्न पूछा होता तो मैं शायद हज़ारों लाखों दूसरे लोगों की तरह दर्शन-शास्त्र की भूल-भुलैया में उलझा रहता । लेकिन उन्होंने मुझसे बस इतना पूछा :
"आपको क्या दुःख है?"
और मैंने पूरा प्रयास यह समझने में किया कि उनके इस प्रश्न का तात्पर्य क्या है,
’किसे’ दुःख है?’ और ’क्या’ दुःख है?
अर्थात् यह जो सुखी-दुखी होता है वह क्या / कौन है? 'व्यक्ति' कोरा विचार, या कोई ठोस सत्य?
और 'वह' क्या है जिसे ’दुःख’ समझा जाता है?
वह दूर दीवार पर टंगी कोई पेंटिंग देख रही थी । जैसे कोई अंधा कहीं देखता हो ।
बहुत देर तक भाव-विह्वल होकर सुनने के बाद वैसी ही सुस्थिर शांत बैठी रही ।
’तुम्हारे दो ही शब्द मुझे छू गए : स्वकल्पित दुःखों कष्टों ...
और तो क्या कहना है ।'
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Saturday, 21 October 2017

स्वान्तः सुखाय

स्वान्तः सुखाय
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मुझमें एक द्वन्द्व था । लिखना मेरा कर्म है यह तो बचपन से ही लगता था, किंतु स्वाभाविक कर्म होने से यह मेरा धर्म भी है यह कुछ बाद में ठीक ठीक समझ में आया । और फिर आगे जाकर पूरी तरह स्पष्ट हुआ कि यह लिखने की प्रवृत्ति किसी विशेष लक्ष्य की प्राप्ति के लिए नहीं है यद्यपि अनुवाद-कार्य एक अपवाद अवश्य है । साहित्य या शास्त्र जो भी मैंने पढ़े ज्ञान-अर्जन की दृष्टि से नहीं बल्कि इसलिए पढ़े ताकि भाषा-विन्यास और संवाद की सूक्ष्मताओं पर संतोषप्रद पकड़ हो सके ।
इसी क्रम में गीता उपनिषद् और फिर वेद का अध्ययन किया ।
और चूँकि मेरा आग्रह किसी भी ग्रंथ को उसके अनुवाद या व्याख्या के माध्यम से नहीं बल्कि उसके मूल स्वरूप में पढ़ने का रहा इसलिए मैंने बौद्ध-ग्रन्थों का और वेद-पुराण-उपनिषद आदि और तत्संबंधित ग्रंथों को उनके मूल-स्वरूप में अर्थात् संस्कृत या पालि में ही पढ़ा । कौतूहलवश मैंने उनके अंग्रेज़ी अनुवादों और अंग्रेज़ी में लिखी समीक्षाओं को भी किसी हद तक ’सन्दर्भ’ के लिए पढ़ा और बहुत ध्यान से उतनी ही गंभीरता से भी पढ़ा जितनी गंभीरता और रुचि से मैंने संस्कृत या पालि के मूल ग्रंथ पढ़े ।
’सन्दर्भ’ की दृष्टि से जे.कृष्णमूर्ति का साहित्य भी देखा जो मूलतः अंग्रेज़ी में ही है । दूसरे भी कई विख्यात विद्वानों जैसे अरविन्द घोष के साहित्य का थोड़ा बहुत अवलोकन किया ।
मराठी मातृभाषा होने से श्री समर्थ रामदास के ’दासबोध’ का पूरा ’पाठ’ किया और जैसी कि मेरी आदत है, पेंसिल से मार्ज़िन पर कठिन शब्दों की विवेचना भी अंकित की ।
श्री रमण महर्षि की मूल संस्कृत कृतियों का केवल अनेक बार ध्यानपूर्वक अध्ययन ही नहीं किया बल्कि उसका आशय समझने की चेष्टा भी की । उनका हिंदी में अनुवाद भी किया । तमिऴ् मेरे लिए वेद-तुल्य है इसलिए उसे शायद किसी भावी जन्म में सीखूँगा और जैसे वेद में भाषा की अपेक्षा ज्ञान का तत्व प्रमुख है और भाषा गौण तत्व है वैसे ही तमिऴ् भी मेरे लिए भाषा की अपेक्षा ज्ञान के रूप में अधिक महत्वपूर्ण है । इस विषय में पहले भी लिख चुका हूँ इसलिए यहाँ इतना ही ।
वेदों और संस्कृत के मूल ग्रंथों का पाश्चात्य ’विद्वानों’ ने जैसा अनर्थपूर्ण अनुवाद किया है उसके लिए उनका आभार ही व्यक्त किया जा सकता है, या बस उनकी दुर्बुद्धि का, हठधर्मिता और शठधर्मिता का जो प्रमाण उन्होंने दिया, इस पर बस हँसा भर जा सकता है । क्योंकि उनके इस कृत्य के लिए दंड या पुरस्कार देने का अधिकार और दायित्व तो विधाता के ही पास है ।
जब यह स्पष्ट हो गया कि लिखना मेरा कर्तव्य-कर्म है तो यह भी स्पष्ट हो गया कि मेरे लेखन को कौन पढ़ता है यह जानना मेरे लिए महत्वहीन हो गया । यद्यपि कोई पढ़े तो मुझे इस पर कोई आपत्ति भी नहीं है और न मेरा ऐसा आग्रह है कि कोई पढ़े ही । कोई इस से कितना सहमत हो या असहमत, इससे भी मेरा कोई  लेना-देना नहीं । मेरा अनुवाद-कार्य भी मैं इसी भावना से करता हूँ ।
इसलिए लिखने से एक संतोष तो मिलता ही है जिसे पुरस्कार य प्रसाद भी कह सकते हैं
आप कह सकते हैं, - स्वान्तः सुखाय ।

Good bye Scriptures!

Discovering the Silence within...!
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Scriptures are of no use to any-one. They are obsolete, redundant, outdated. The most important factor is dissatisfaction from the life we live. As long as we don't see the way we live, the bare facts of life that is fear, desire, anger, hope, conflict and confusion, anger, sorrow, relationship, through clear eyes, without defining and verbalizing and go through them without resistance, nothing can happen. 'faith', tradition, security, future, past all these are in thought only and thought gives rise to thought and a false world appears before us, to have existence which 'one' takes separate and distinct from oneself. In fact there is no such a world. But when and if the movement of thought is keenly observed, -not because one has to get rid of thought, but just because there is thought playing its role before us, and we are trying to understand what it is all about, just as we try to understand the mechanism of a new device or instrument, just like we try to play a musical instrument and just listen to the 'notes' and try to grasp their relative higher or lower pitch and positions in the scale, in the tune and then the whole scale is understood. Likewise every single thought could be seen carefully without condemning, glorifying or criticizing. Then perhaps we could detect a silence overpowers us. This is really meditation. But one should have interest.
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Friday, 20 October 2017

मर्म का मरहम

पुरुष या प्रकृति की प्रवृत्ति का तो नहीं पता मुझे स्वयं में  पर ज्ञानना की प्रवृत्ति का प्राकट्य हुआ है
मुझे सिर्फ़ बोधि वृक्ष की कामना है
शायद विद्योत्तमा होने की शुरुआत कालिदास हो कर हो।
अर्धनारीश्वर होने का क्या अर्थ है? एक जिज्ञासा है।
"अथातो ब्रह्म जिज्ञासा"
-इस सूत्र से क्या समझना चाहिए ?
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यह ब्रह्म-सूत्र (ग्रंथ) का प्रथम सूत्र है ।
जब मनुष्य को अपने संपूर्ण अर्जित किए हुए ज्ञान की सीमितता, व्यर्थता और अधूरापन अनुभव हो जाता है तब उसमें यह जिज्ञासा पैदा होती है कि क्या ऐसा ज्ञान भी है जो सीमित, व्यर्थ या अधूरा (खंडित) न हो?
इंद्रिय-ज्ञान इंद्रियों के माध्यम से होता है इसलिए ’परोक्ष’ इन्डायरेक्ट indirect / mediate है ।
अनुभव इंद्रियज्ञान है ।
इंद्रियों का ज्ञान इंद्रियों की ग्रहण-क्षमता तक सीमित और अधूरा होता है । आँखों से देखा गया, कानों से सुना गया ज्ञान भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है और एक के अनुभव / ज्ञान को दूसरे में ’अनुवादित’ नहीं किया जा सकता । आप ’अनुवाद’ के लिए कोई भाषा ईजाद भी कर लें तो भी वह एक ’प्रोग्राम’ होगा और आप ’कोड्स’ / codes और ’कोडिंग’/ coding ही जानते हैं । दृष्टि के अनुभव को श्रवण के अनुभव में रूपांतरित नहीं किया जा सकता और जैसे तैसे कर भी लिया जाए तो ऐसे असंख्य अनुवाद हो सकते हैं जिनमें से कौन सा पूरी तरह सही है इसका प्रमाण नहीं दिया जा सकता ।
बुद्धि के द्वारा इंद्रिय-अनुभव का ऐसा ही एक अनुवाद किया जाता है ।
और बुद्धि तर्क-आश्रित होने से असंख्य प्रकार की है ।
फिर बुद्धि की ही भाषा में कोई शाब्दिक-सिद्धान्त गढ़ लिया जाता है और उस सिद्धान्त को ’प्रमाण’ मान लिया जाता है ।
इस प्रकार बुद्धि भी ’परोक्ष’ इन्डायरेक्ट indirect / mediate है ।
’जिसे’ इंद्रियजन्य या बुद्धिजन्य ज्ञान होता है उसका अस्तित्व स्वयं सिद्ध है और उसे ही मनुष्यमात्र ’मैं’ शब्द से व्यक्त करता है । लेकिन यह ’मैं’ जिसका अर्थ है उसे जाननेवाला दूसरा कोई ’मैं’ नहीं है । जैसे इंद्रियों और बुद्धि से जिसे जाना जाता है, उसे जाननेवाला उनसे पृथक् है, वैसे ’मैं’ को जाननेवाला ’मैं’ से पृथक् नहीं है ।
शायद यह आपको कठिन या निरर्थक श्रम लग रहा हो किंतु इस श्रम से गुज़रने पर ही उस ’ज्ञान’ से परिचय होता है जो ’अपरोक्ष’ (immediate / direct) ज्ञान है । जहाँ ज्ञाता-ज्ञान और ज्ञेय में विभाजन नहीं है । वही वस्तु ज्ञाता है, ज्ञान भी है और ज्ञेय भी है ।
अब इसे दूसरे ढंग से देखें ।
जो भी ज्ञात है वह ’जानकारी’ है और जो अज्ञात जान पड़ता है उसे जानते ही वह ’ज्ञात’ के रूप में ग्रहण कर लिया जाता है ।
इस प्रकार हम बस ’ज्ञात’ से ’ज्ञात’ में ही घूमते रहते हैं और सोचते हैं कि कभी ज्ञात पूर्ण हो सकेगा ।
’पर-ज्ञान’ / ’परम-ज्ञान’ बोधि-वृक्ष मोहक शब्द हैं किंतु जब तक बुद्धि और तर्क की सीमितता, व्यर्थता और अधूरापन हम पर पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो जाता इन शब्दों का हमें कतई उपयोग नहीं है ।
जब तक  संसार की प्रत्येक वस्तु को ’नित्य-अनित्य’ की कसौटी पर कसते हुए हममें उन सभी वस्तुओं को ’अनित्य’ अनुभव कर उनके प्रति गहरा असंतोष अर्थात् वैराग्य उत्पन्न नहीं हो जाता तब तक हममें उनकी तुलना में ’नित्य’ अर्थात् उन सबके कारणस्वरूप तत्व (ब्रह्म) को जानने की उत्सुकता या कौतूहल तो हो सकता है किंतु गहरी उत्कंठा नहीं होगी ।
शास्त्रों को पढ़ भी लिया तो ज्ञात पर ज्ञात का आवरण चढ़ता रहेगा ब्रह्म को नहीं जाना जा सकेगा ।
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सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि इन तथाकथित ज्ञानियों ने हमारे मन में इतनी नई-नई धारणाएँ पैदा कर हमें इतना भ्रमित कर दिया है कि हमारी वास्तविक आवश्यकता क्या है इस पर से हमारा ध्यान हटाकर जो हमें अनावश्यक और क्षतिकारक है उसके प्रति हमारे मन में कृत्रिम लालसा जगा दी है । हमारा चञ्चल मन बस इधर से उधर दौड़ता रहता है और हम दुःखी रहते हैं ।
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’अर्धनारीश्वर’ की गुण-सूत्रात्मक (जीनेटिक) व्याख्या भी की जा सकती है जो शायद विज्ञान के प्रशंसकों को प्रभावित भी करे, लेकिन वह अर्धनारीश्वर के वास्तविक अर्थ का विरूपण भी होगा ।
’अर्धनारीश्वर’ की वैदिक और पौराणिक व्याख्या अधिक व्यापक अर्थयुक्त होगी किंतु किसे चाहिए?
मर्म का मरहम बना सकना मेरे बस में नहीं,
दर्द का मरहम बना सकता हूँ किसको चाहिए?
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विकल्प

आप से कुछ सीखने की लालसा है
सनातन धर्म को जानने का पहला उपाय क्या है?
मैंने आपका ब्लॉग पढ़ा
शायद आप स्त्रियों द्वारा वेदाध्ययन को उचित नहीं मानते
किन्तु अब मेरे पास कोई विकल्प नहीं
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सनातन धर्म को जानने का पहला उपाय क्या है?
इस ओर ध्यान दिलाना चाहूँगा कि सनातन के साथ धर्म शब्द लगाने का उद्देश्य है यह स्पष्ट करना कि धर्म वह है जो सनातन होता हो ।
शाश्वत, अनित्य, नित्य और सनातन ’काल’ को इन चार रूपों में ग्रहण किया जाता है । ग्रहण करनेवाला पात्र होता है । इसलिए पात्र के गुण-दोष के आधार पर यह सुनिश्चित है कि वह किसी वस्तु (या ज्ञान) को कितना, कैसे ग्रहण और धारण कर सकता है, उसका सही प्रयोग कर दूसरों को प्रदान कर सकता है ।
प्रथमतया पात्र का अर्थ है मनुष्य ।
मनुष्य भी अस्तित्व के मूल कारकों पुरुष और प्रकृति का संयोग है ।
प्रकृति होने का अर्थ है अहंकार को जाने देना ।
पुरुष होने का अर्थ है अहंकार को जान लेना ।
दोनों स्थितियों में मनुष्य आत्मा से अपनी अनन्यता को समझ लेता है ।
शरीर तो बाह्य प्रकृति है, जबकि मन / अन्तःकरण अन्तःप्रकृति है ।
पात्र होने के क्रम में ही वेद के अनुसार चार वर्ण और चार आश्रम मनुष्यमात्र को स्वाभाविक रूप से प्राप्त होनेवाली स्थितियाँ हैं, जिनमें बाह्य-प्रकृति की प्रमुखता से वह स्त्री या पुरुष शरीर धारण करता है ।
इस प्रकार बाह्य लक्षण (स्त्री या पुरुष) होना प्रथमतया इसका सूचक होता है कि उसके लिए जीवन में विकास होने का स्वाभाविक क्रम क्या होगा । इसलिए स्त्री के लिए सेवा ही स्वाभाविक धर्म है क्योंकि प्रकृति सदा देती ही है लेती नहीं कुछ ।
जबकि पुरुष के लिए कर्म / उद्यमशीलता ही स्वाभाविक धर्म है ।
फिर वेदाध्ययन ’कर्म’ है जो पुरुष के लिए तो स्वाभाविक है, स्त्री के लिए कठिन और अस्वाभाविक भी । किसी प्रतिक्रिया के रूप में स्त्री की प्रवृत्ति भले ही कर्म में हो जाए पर वह उसका स्थायी स्वभाव नहीं है । दूसरी ओर ’सृजन’ स्त्री के लिए नितांत स्वाभाविक धर्म है । और उसका गौरव भी है । पुरुष वस्तुतः ’श्रमिक’ है और प्रकृति का दास ।प्रकृति पूर्ण है, पुरुष को पूर्ण होने की कठिन यात्रा करना होती है ।
पुरुषों में ही ब्राह्मण को ही वेदाध्ययन का अधिकार (अर्थात् पात्रता) हो सकती है ।
वेद कोई ग्रंथ नहीं अलिखित सृष्टि-विधान है जिसे ऋषियों ने ’मंत्र-रूप’ में प्राप्त किया अर्थात् आविष्कार किया ।
वेद इसलिए काल के सन्दर्भ में नित्य, शाश्वत और सनातन हैं क्योंकि सृष्टि भी नित्य,  शाश्वत और सनातन है ।
वेदाध्यन ब्राह्मण का न सिर्फ़ अधिकार है बल्कि दायित्व और कर्तव्य भी है ।
इसलिए यज्ञोपवीत संस्कार के बिना मनुष्य द्विज नहीं होता ।
यदि मनुष्य का वर्ण बाधक या विपरीत न हो तो किसी अब्राह्मण को भी संस्कार देकर द्विज बनाया जा सकता है ।
वर्ण को जाति का पर्याय समझ लिया जाता है जबकि जाति एक बाह्य लक्षण है जिसका आधार तो वर्ण ही है ।
बाह्य लक्षण की अनुकूलता या प्रतिकूलता के अनुसार मनुष्य अपने मूल वर्ण को जान समझकर चार में से किसी एक वर्ण को अपने लिए स्वीकार कर सकता है । उस वर्ण के अनुसार ही जीवन में उसे सार्थक कर्म करने के लिए सहायता और प्रेरणा मिलती है । स्त्री का अपने वर्ण के अनुसार परिवार की सेवा करना ही एकमात्र धर्म है । और उसमें भी पति और उसका परिवार प्रमुख है । वेद इसका आग्रह नहीं करता कि मनुष्य वेद-धर्म को स्वीकार करे ही । तब वह अपनी राह चुनने के लिए उसकी प्रकृति के अनुसार स्वतंत्र (होने के भ्रम में रहे) तो वेद बलपूर्वक उसे धर्म का उपदेश नहीं करता ।
चूँकि वेद ग्रंथ नहीं ’मन्त्र-संहिता’ अर्थात् मंत्रों का संकलन मात्र है और वेद-विहित कर्मकाण्ड का अनुष्ठान सुचारु रूप से संभव हो सके इस दृष्टि से उन्हें ग्रंथ-रूप में लिखित स्वरूप में सुरक्षित कर लिया गया है अतः वेद का अनुवाद तक संभव नहीं । वेद छन्द और मंत्र हैं और तन्त्र (साधन) हैं । वेदों का संबंध प्रकृति के अधिष्ठाता ’देवता’ तत्व से है जिन्हें संतुष्ट किए बिना वैदिक कर्मकाण्ड का अनुष्ठान असंभव है । यह तो हुआ वेद का कर्म-काण्ड से संबंधित पक्ष, किंतु वेद स्वयं भी परम सत्य और परमेश्वर भी होने से परम-ज्ञान और परमेश्वर की प्राप्ति में भी सहायक हैं और इसलिए कर्मकाण्ड और देवता आदि को पूरी तरह नकारकर भी मनुष्य केवल भक्ति से भी वेद के सारतत्व को प्राप्त कर सकता है ।
भक्ति का अर्थ है निष्ठा और निष्ठा की प्राप्ति तप और जिज्ञासा से ही होती है न कि किसी दबाव या भय, प्रलोभन से प्रेरित किए जाने से ।
गीता के अनुसार ऐसी जिज्ञासा भी अपनी रुचि के अनुसार ’ज्ञान’ (सांख्य-निष्ठा) और ’कर्म’ (निष्काम कर्मयोग) के रूप में हर किसी के लिए इन दो रूपों में होती है ।
गीता तो अवर्ण या सवर्ण स्त्री-पुरुष सभी के लिए एकमात्र सर्वश्रेष्ठ ’विकल्प’ के रूप में भक्ति को ही सर्वोपरि मानती है ।
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Thursday, 19 October 2017

Purity of Speech / वाणी की शुद्धि

वाणी-दीप 
The Lamp of Speech 
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वक्तव्यं किमवक्तव्यं कर्तव्यं किमकर्तव्यं ।
श्रोतव्यं किमश्रोतव्यं दृष्ट्वा वाचां परिमार्जयेत् ॥
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vaktavyaṃ kimavaktavyaṃ kartavyaṃ kimakartavyaṃ |
śrotavyaṃ kimaśrotavyaṃ dṛṣṭvā vācāṃ parimārjayet ||
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अर्थ :
क्या कहना शोभनीय है, और क्या नहीं है,
क्या करना शोभनीय है, और क्या नहीं है,
क्या सुनना श्रवणीय है, और क्या नहीं है,
इसे ध्यान से देखकर वाणी को शुद्ध रखे ।
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Meaning :
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What is auspicious to say through voice, what is not,
What is auspicious to act upon, what is not,
What is auspicious to listen to, what is not,
One should see carefully and keep the Speech pure.
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वाकः तु सेतु एकं अन्तःबहिश्चेतनाभ्याम् ।
ततो परिमार्जिता वाचा चित्तशुद्धिमाप्नुयात् ॥
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vākaḥ tu setu ekaṃ antaḥbahiścetanābhyām |
tato parimārjitā vācā cittaśuddhimāpnuyāt ||
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अर्थ :
वाणी अन्तःचेतना और बहिश्चेतना के मध्य एक प्रत्यक्ष पुल है, इसलिए इस पुल को सुदृढ़ और सुव्यवस्थित रखता हुआ चित्तशुद्धि प्राप्त करे ! 
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Meaning :
The Speech as is uttered and heard / listened to is the only bridge between the consciousness of the mind and the consciousness of the world, so one should purify the Speech and gain the purity of mind.
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वागैकं प्रज्ज्वलितं दीपं देहलीद्वारसंस्थितं ।
आलोकितं तेनैव ध्यायेन्मनः अन्तर्बाह्ययोः ॥
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vāgaikaṃ prajjvalitaṃ dīpaṃ dehalīdvārasaṃsthitaṃ |
ālokitaṃ tenaiva dhyāyenmanaḥ antarbāhyayoḥ ||
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अर्थ :
वाणी  देहली-द्वार पर सुस्थित प्रज्ज्वलित दीपक है जिससे भीतर और बाहर दोनों स्थान आलोकित होते हैं ।
इस दीपक के प्रकाश में मनुष्य ध्यानपूर्वक चित्त की स्पष्टता को  प्राप्त करे !
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Meaning :
Speech is the lighted lamp placed at the threshold at the door that illuminates the inside as well as outside also. Taking care of this lamp, one should attain the clarity of mind.
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एक घटनाक्रम / स्वप्न-संकेत

एक घटनाक्रम / स्वप्न-संकेत
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Monday, 16 October 2017

स्व-प्रतिमा / self-image

स्व-प्रतिमा और स्व का यथार्थ
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आप जैसे हैं,
लोग आपको वैसा
रहने नहीं देंगे ...
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कुछ भी!
आप जो हैं वो बदल नहीं सकता,
आप जैसे हैं ज़रूर बदल जाता है,
पहले तो ये तय हो जाना चाहिए,
कि आप क्या हैं और आप कैसे हैं!
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पहली दृष्टि में हमारा ध्यान इस वक्तव्य की विसंगति पर नहीं जाता, किंतु जब ध्यान देकर इसकी वैधता की जाँच-परख की जाती है तो समझ में आ जाता है कि हम तो हमेशा वही हैं जो कि वस्तुतः हम है / हैं, और वैसे नहीं हैं जैसी अपनी स्वयं की प्रतिमा हमारे मन ने बनाई होती है । क्या यह प्रतिमा वैसे भी नित्य बदलती नहीं रहती? लेकिन अगर हम इस तथ्य पर ध्यान देने से चूक जाते हैं तो अपने-आपको परिस्थितियों और लोगों के हाथ का खिलौना समझ सकते हैं और तब उस प्रतिमा में वैसा हेर-फेर  देख कर दुःखी या ख़ुश होते हैं, चिंतित या प्रसन्न होते हैं, .. आशान्वित या निराश, व्याकुल या निश्चिंत होते हैं !
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और यहीं एक विकल्प यह भी है कि इस ओर ध्यान दें कि हम हमारी स्व-प्रतिमा हैं या शायद हम कुछ भी नहीं हैं, या शायद वह समग्र जीवन ही हम हैं जहाँ हमारी या दूसरों की कोई प्रतिमा बनती ही नहीं !   
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एक मौलिक प्रश्न
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क्या हम बदलते हैं? अगर हम बदलते हैं तो यह किसे पता चलता है कि हम बदल रहे हैं या बदल गए?
स्पष्ट है कि हम (जो कुछ भी हम वस्तुतः हैं), कभी नहीं बदलता, हाँ हमारा मन, बुद्धि, याददाश्त, अनुभव, विचार, भावना, शरीर की स्थिति ज़रूर निरंतर वैसे भी बदलते रहते हैं । हममें कोई ऐसा तत्व है जो केवल बदलाव को जानता है लेकिन यह 'जानना' अनुभव, विचार, भावना, जानकारी या स्मृति नहीं होता । यह 'जानना' हमारा वह अपरिवर्तनशील स्वरूप है जिसमें तमाम बदलाव जाने भर जाते हैं । और उस अपरिवर्तनशीलता को मन, बुद्धि, याददाश्त, अनुभव, विचार, भावना, शरीर की स्थिति नहीं जानते । मन, बुद्धि, याददाश्त, अनुभव, विचार, भावना, आदि में तो बस हमारी एक अस्थायी स्व-प्रतिमा बनती है जो वैसे भी अपने-आप बदलती रहती है और उसे बदलने से रोका भी नहीं जा सकता । ’कौन’ रोकेगा?
यद्यपि इस सबको समझने के लिए बुद्धि तक आवश्यक नहीं क्योंकि बुद्धि का आगमन और प्रस्थान होता रहता है और हमारा स्वरूप निरंतर यथावत रहता है ।
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और यह समझना अत्यंत सरल है कि इस ’जानने’ का ’जन्म’ और ’मृत्यु’ से कोई संबंध नहीं हो सकता । ’जन्म’ और ’मृत्यु’ केवल कल्पना और विचार-मात्र हैं ।
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The English Translation :
Self-image and the truth of the self 
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What-ever you are like; people wouldn’t let you be like that.
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Awkward but not Absurd
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What you are can never change.
What you are like keeps changing.
First let it be very clear to you.
What you are and what you are like!
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At first, we usually fail to note the contradiction in the above statement. 
But when paid due attention, and the validity of the same is checked, one can easily see the inherent discrepancy there-in. We are what we are all the time, irrespective of our own self-image and the way our body, moods, feelings, emotions, memory, experiences, information, and this self-image too keep changing. 
Is not there obviously something unchangeable too which we intuitively know without deliberate effort and spontaneously refer to as ‘me’?
Having keenly discovered what this unchangeable factor in our being is, we at once realize what we are like is but our own image made by oneself. And this keeps changing all the time and no one can stop or interfere with this phenomenon. It is up to oneself what one takes oneself. Assumes oneself as the changing phenomenal things like our body, moods, feelings, emotions, memory, experiences, information, and this self-image that is, -the ‘person’,
Or understands the inherent individuality that is immutable inherent Reality of our very being.
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Thursday, 12 October 2017

From : श्रीदक्षिणामूर्तिस्तोत्रम् / śrīdakṣiṇāmūrtistotram -

From :
श्रीदक्षिणामूर्तिस्तोत्रम् / śrīdakṣiṇāmūrtistotram
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वटविटपसमीपे भूमिभागे निषण्णम्
सकलमुनिजनानां ज्ञानदातारमारात् ।
त्रिभुवनगुरुमीशं दक्षिणामूर्तिदेवं
जननमरणदुःखच्छेददक्षं नमामि ॥
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Beneath the vat-tree, Seated on the ground,
The One who Bestows the wisdom,
Upon the Sages gathered around,
The Preceptor Supreme,
the Lord of the 3 worlds,
dakṣiṇāmūrtideva,
The One who is Expert in severing,
The bondage of the sorrow,
Of repeated births, deaths and rebirths,
To Him I offer obeisances.
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vaṭaviṭapasamīpe bhūmibhāge niṣaṇṇam
sakalamunijanānāṃ jñānadātāramārāt |
tribhuvanagurumīśaṃ dakṣiṇāmūrtidevaṃ
jananamaraṇaduḥkhacchedadakṣaṃ namāmi ||
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अर्थ :
जो वटवृक्ष के तले भूमि पर विराजित हैं,
जो शरण में आए सकलमुनिजनों के लिए ज्ञानदाता हैं,
तीनों लोकों के परमेश्वर श्रीदक्षिणामूर्ति देव,
जन्ममरण के क्लेश का नाश करने में दक्ष हैं,
श्रीदक्षिणामूर्ति को मेरा प्रणाम !!
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वैदिक या वैज्ञानिक

वैदिक या वैज्ञानिक
"मैं कार्य-कारण पर विश्वास नहीं करता
"क्यों?"
वैसे तो ’क्यों?" यह प्रश्न ही असंगत (invalid) है किंतु तर्क की सीमा में इसका उत्तर यह होगा कि चूँकि तर्क ’ज्ञात’ अर्थात् विचार और बुद्धि के अन्तर्गत कार्य करता है और विचार तथा बुद्धि उसे नहीं ग्रहण कर पाते जहाँ से उनका उद्भव होता है । शरीर के स्थूल या सूक्ष्म भौतिक अंग की दृष्टि से उसे ’मस्तिष्क’ कहा जा सकता है, किंतु विचार और बुद्धि इन्द्रिय-ज्ञान पर आधारित होने से उस सीमा के भीतर ’अधिकतम’, निकटतम सत्य को ग्रहण करने की चेष्टा करते हैं जिसे विज्ञान कहा जाता है । विचार और बुद्धि के आधार पर उपजी ’परिकल्पना’ (hypotheses) का विकास ही ’विज्ञान’ है । तथाकथित वैज्ञानिक भी विचार और बुद्धि से ’सत्य’ को पाने का प्रयास करता है और विचार और बुद्धि पर आश्रित होता है । वह विचार और बुद्धि को ’प्रमाण’ मानता है और भूल से या प्रमादवश मान बैठता है कि ’अज्ञात’ को उस कसौटी (criteria) से जाना जा सकता है । विचार और बुद्धि ’ज्ञात’ के क्षेत्र में कार्य-कारण को अटल सत्य मानकर ’निष्कर्ष’ प्राप्त करते हैं जो उनके ’ज्ञात’ की परिधि से बाहर महीं ले जा सकता । संक्षेप में ’विज्ञान’ का ’सत्य’ अपने संदर्भों तक सीमित है ।
उस परिधि में ही वह ’प्रयोग-सिद्ध’ भी अवश्य है ।
विज्ञान विचार और बुद्धि अर्थात् तर्क पर आश्रित है जबकि स्वयं तर्क विचार और धारणाओं का विस्तार जो बेतरतीब हो सकता है या ’ज्ञात’ के किसी ’विशेष’ क्षेत्र तक सीमित । ’निष्कर्ष’ के रूप में ऐसे अनेक क्षेत्र निरंतर स्थापित किए जा सकते हैं और इतिहास भी बन जाते हैं । इसलिए एक ही विज्ञान की अनेक शाखाएँ हो जाती हैं, जिनकी पुनः और भी अनेक होती रहती हैं । लेकिन उनकी सत्यता काल से सीमित होती है, जबकि काल स्वयं ’धारणा’ / ’कलन’ / कल्पन और कल्पना मात्र है । गणितज्ञ और वैज्ञानिक भी काल के स्वरूप पर किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके हैं ।
वेद कहता है :
अक्षरात् संजायते कालं कालाद्व्यापक उच्यते । व्यापको ही भगवान् रुद्रो, भोगायमानो यदा शेते रुद्रस्तदा संहार्यते प्रजाः ।
उच्छ्वसिते तमो भवति ....।
इसी के अन्तर्गत ’क्लामयति’ का उल्लेख भी है ।
क्लामयति ’रुद्र’ अर्थात् ’सत्य’ के अक्षर-स्वरूप का ’देवी-रूप’ है
यहाँ विस्तार में जाना अनावश्यक है । ’देवी-रूप’ का संदर्भ इसलिए प्रस्तुत किया गया कि ’अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्सुवन्तः समुद्रे ।’ से इसकी तुलना की जा सके ।
क्या वेद ’विज्ञानसम्मत हैं? इस प्रश्न की त्रुटि यहीं समझली जा सकती है ।
बुद्धि और विचार का आगमन होने के बाद ही ’शून्य’ और ’एक’ की धारणा अस्तित्व में आती है और ’गणित’ इस प्रकार की धारणाओं का सुनियोजित विस्तार है ।
देवी कहती हैं :
"अहं ब्रह्मस्वरूपिणि । मत्तः प्रकृति-पुरुषात्मकं जगत् । शून्यं चाशून्यं च ॥"
"... एकैव सर्वत्र वर्तते तस्मादुच्यते एका ।
एकैव विश्वरूपिणी तस्मादुच्यते नैकेति ॥"
यह विद्या ब्राह्मणों के ही लिए है । किंतु ब्राह्मण (द्विज) भी विधि से संस्कारित होने पर ही होता है । प्रश्न है ’पात्र’ होने का । (व्याख्या की दृष्टि से) कार्य-कारण की युक्ति (tool) का प्रयोग करें तो कहा जा सकता है कि पारिस्थितिकी-विज्ञान / ( environment-science ) के अनुसार शरीर-विशेष की अन्तःपारिस्थिकी और बाह्य-पारिस्थितिकी विचारणीय है । और इस आधार पर किसी भी प्रणाली (वैदिक या वैज्ञानिक) का औचित्य उसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए ।
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Wednesday, 11 October 2017

ज्ञात से मुक्ति / Freedom from the known

अध्यात्म और आत्म-ज्ञान
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वर्ष 1986 में राजकोट में नौकरी कर रहा था । स्वयं ही ऑप्शन से इस शहर को चुना थाताकि ’घर’ से कुछ समय के लिए दूर रहा जा सके । तब दो-चार महीने बाद ’घर’ लौटना, एक-दो दिन रहकर वापस ड्यूटी पर चले जाना अच्छा लगता था । राजकोट में ’बस-स्टैंड’ से मेरे ’घर’ का रास्ता मुश्किल से दस मिनट का था । सामने से ’भक्तिनगर’ स्टेशन से गुज़रनेवाली मीटर-गेज़ लाइन थी ।
’घर’ और दफ़्तर के बीच एक रास्ता ’रामकृष्ण-मठ / आश्रम’ से गुज़रता था ।
सुबह और शाम क़रीब एक-घंटे प्रतिदिन वहाँ ’ध्यान’ करता था ।
रविवार को तो शायद और अच्छी तरह ।
जब दिसंबर 16, 1985 को राजकोट पहुँचा था तो एक हफ़्ते ’होटल’ / ’गेस्ट-हॉउस’ में बिताने के बाद यह घर मुश्किल से मिला था ।
रोज़ की तरह 18 फ़रवरी (1986) की सुबह चाय पीने के लिए पास के चौराहे तक गया, जहाँ उस समय ’रामनाथ-टी-स्टॉल’ हुआ करता था, लेकिन मैं सड़क पर खड़े रेकड़ीवाले से दूध लेने जाता था जो चाय भी बनाता था, इसलिए वहीं चाय पी लेता था, जबकि दूध एक-दो दिन तक के लिए पर्याप्त होता था ।
उस दिन सुबह सवा सात बजे होंगे जब अपनी कलाई-घड़ी बाँध रहा था कि वह हाथ से छूट गई और बिलकुल बंद हो गई ।
मैंने उसे दो चार बार ठकठकाया लेकिन वह बस अड़ ही गई थी ।
मुझे किसी अनहोनी की आशंका ने जकड़ लिया । उद्विग्न-चित्त जब चौराहे पर पहुँचा तो ’चाय’ बन रही थी, चायवाले को दूध का हैंडलवाला डिब्बा दिया और लोकल गुजराती अख़बार ’फूलछाब’ / ફૂલછાબ देखने लगा । मुखपृष्ठ पर ही दाँयी ओर नज़र गई तो दिल धक् से रह गया :
’जे कृष्णमूर्ति नो बुझायेलो जीवन-दीप’
 'જે.કૃષ્ણમૂર્તિ નો બુઝાયેલો જીવન-દીપ'
उसके बाद जैसे-तैसे चाय ख़त्म की, ’घर’ लौटा और दो-दिन कैसे गुज़रे कुछ कह नहीं सकता ।
दफ़्तर में दूसरे-तीसरे दिन ’मैनेजर’ ने पूछा : ’वैद्यजी! सब-ठीक तो है?’
’जी’
’ऐसे ही लगा कि आप दो-दिनों से बहुत गंभीर और चुप-चुप नज़र आरहे हैं इसलिए पूछ लिया ।’
बातों-बातों में एक-दो-दिन बाद उन्हें बताया कि मेरे गुरु का देहावसान हो गया है, इसलिए थोड़ा उद्विग्न था ।
बात आई-गई हो गई ।

इसके कुछ महीनों बाद उज्जैन जाना हुआ तो एक परिचित से मिलना हुआ । उनकी पत्नी का कोई ऑपरेशन हुआ था । वे घर में पिछले कमरे में बिस्तर पर लेटीं थी और उनके पति भीतर थे । उन्हें आवाज़ लगाई तो वे प्रसन्न-मन बाहर आए । आते ही उन्होंने पूछा :
"ज्ञात से मुक्ति?"
"जी नहीं, अज्ञात से मुक्ति"
मैंने बिना एक सेकंड देर किए ज़वाब दिया ।
वे चौंक गए फिर अपनी पत्नी के पास मुझे ले जाकर कहने लगे :
कुछ दिनों पहले हमने (वे ’मैं’ के स्थान पर हम कहते थे) सपने में देखा कि हम आपसे पूछ रहे थे ’ज्ञात से मुक्ति?’, और आपने हमारे उस सपने में भी हमें बिलकुल यही ज़वाब दिया था और हमने आपकी ऑन्टी से भी इसका ज़िक्र किया था !
ऑन्टी ने बहुत कमज़ोर आवाज़ में उनकी बात की तसदीक़ की ।
जे.कृष्णमूर्ति की एक सर्वाधिक प्रसिद्ध पुस्तक है ’फ़्रीडम फ़्रॉम् द नोन’/ Freedom from the known  जिसके हिंदी अनुवाद का शीर्षक है "ज्ञात से मुक्ति"
और उन दिनों वे यही किताब पढ़ रहे थे जिसे मैं काफ़ी पहले पढ़ चुका था और श्री जे.कृष्णमूर्ति की बात को अपने ढंग से यही समझता था कि जिसे वे ’ज्ञात’ कह रहे हैं उसे वास्तव में कभी ’जाना’ ही नहीं जाता, इसलिए उससे मुक्ति का प्रश्न ही कहाँ पैदा होता है? दूसरी ओर क्या कोई ऐसा है जो स्वयं से अनभिज्ञ हो या हो सके?
इसलिए ’अज्ञात से मुक्ति’ मुझे अधिक ग्राह्य लगता था ।
इसका एक कारण यह भी था कि मेरी आध्यात्मिक-दीक्षा भगवान् श्रीरमण की शिक्षाओं से हुई थी, इसलिए भी समस्त ’प्राप्त होनेवाला ज्ञान’ मेरी दृष्टि में अज्ञान का ही पर्याय था । अर्थात् यह मेरा ओरिएन्टेशन था । जे.कृष्णमूर्ति की शिक्षाओं से इसका अत्यन्त गहरा सामञ्जस्य था और मुझे उनकी शिक्षाओं में कहीं कोई विसंगति  नहीं दिखलाई देती थी ।
वर्षों बाद 1987-88  में श्री निसर्गदत्त महाराज के प्रसिद्धतम ग्रन्थ 'I AM THAT' में पढ़ा :
’ऑल नॉलेज इज़ इग्नरेन्स’/ 'All knowledge is ignorance'
तो मुझे यह बात एकदम गले उतर गई ।
सचमुच अध्यात्म की दृष्टि से यही सत्य है कि समस्त लौकिक-ज्ञान, यहाँ तक-कि ’ब्रह्म-ज्ञान’ भी, आत्म-ज्ञान के सन्दर्भ में अज्ञान मात्र है ।
-- 
टिप्पणी :
'I AM THAT' और मेरे द्वारा किया गया उसका हिंदी अनुवाद 'अहं ब्रह्मास्मि' से चेतना, मुंबई  प्राप्य है । 

 

Tuesday, 10 October 2017

अन्वयव्यतिरेकाभ्याम् / anvayavyatirekābhyām

अन्वयव्यतिरेकाभ्याम् 
--विकारी/अविकारी--
--
क्या यह बूढ़ा आदमी मैं हूँ ?
तो वह जवान आदमी कौन था?
क्या मैं ’तब’ कुछ था,
’अब’ कुछ और हूँ?
तो क्या ’मैं’ वही हूँ?
तो क्या ’मैं’ वही नहीं हूँ ?
यह जो बदल रहा है,
क्या ’मैं’ वह हूँ ?
या जो इस बीच नहीं बदल रहा है,
क्या ’मैं’ वह हूँ ?
क्या जो जानता है बदलाव को,
क्या ’मैं’ वह हूँ ?
क्या ’जो’ जानता है बदलाव को,
क्या ’वह’ बदलता है?
तो, क्या जो बूढ़ा है वह जवान था?
तो, क्या जो जवान था वह बूढ़ा है?
क्या ’जानना’ बदलता है?
क्या ’जानना’ नहीं बदलता?
जो ’जानना’ / ’ज्ञाता’ बदलता है,
वह है बदलनेवाला ’मैं’, -विकारी, 
जो ’जानना’/ ’ज्ञाता’  नहीं बदलता,
वह है न-बदलनेवाला ’मैं’, -अविकारी, 
लेकिन इसे ’कौन’’मैं’ जानता है?
विकारी ’मैं’  या अविकारी  ’मैं’
--
anvayavyatirekābhyām
-vikārī / avikārī-
-Mutable/Immutable-
Am I this old man?
So, who was that young one?
Was then ‘I’ something else?
Am ‘I’ now something other?
So, am ‘I’ the same now?
So, am ‘I’ not the same now?
The one that changes,
Am ‘I’ that?
And that what changes not,
Am ‘I’ that?
The 'one' that perceives the change,
Am ‘I’ that?
The 'one' that perceives the change,
Does that 'one' change?
So, the 'one' that is old, was young?
So, the 'one' that was young, is old?
Does the 'perception' change?
Does not the perception change?
The perception that changes,
Is the 'I' changeable, that changes, -the Mutable,
The perception that does not change,
Is the 'I' the unchangeable, the -Immutable.
But exactly 'Who' is the 'one',
That knows the 'perception'?
Is that 'I' the 'known'?
Is that 'I' the 'one 'Who' knows?
'Who' knows?
-- 

पञ्चमृत्यु और पञ्चामृत / pañcamṛtyu and pañcāmṛta

आज की संस्कृत रचना
--
ततो पृष्टो देव्या उवाच तदा मदनान्तकः ।
आशाचिन्ताप्रमादभयलोभापञ्चमृत्युवः ॥
विवेकवैराग्यमुमुक्षा अवधानमनुसन्धानम् ।
पञ्चैते समाहारेण पञ्चामृतान्युदीर्यन्ते ॥
--
अर्थ :
तब देवी पार्वती के द्वारा पृच्छा किए जाने पर भगवान् शिव ने कहा :
आशा, चिन्ता, प्रमाद, भय और लोभ ये पाँच मृत्यु हैं ।
विवेक, वैराग्य, मुमुक्षा, अवधान और अनुसंधान इन पाँचों को संक्षेप में पञ्चमृत्यु कहा जाता है ॥
मनुष्य के द्वारा होनेवाला कर्म यदि प्रथम पाँच से प्रेरित होकर प्रारंभ होता है तो वह कर्म कर्म-श्रँखला को बनाए रखता है, जबकि अन्य पाँच से प्रेरित हुआ कर्म कर्म-बंधन को नष्ट कर (अमृतत्व की प्राप्ति करा) देता है इसलिए उन्हें पञ्चामृत कहा जाता है ।
--
 2 संस्कृत / saṃskṛta couplets,
 composed today 
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tato pṛṣṭo devyā uvāca madanāntakaḥ |
āśācintāpramādabhayalobhāpañcamṛtyuvaḥ ||
vivekavairāgyamumukṣā avadhānamanusandhānam |
pañcaite samāhāreṇa pañcāmṛtānyudīryante ||
--
Meaning :
Then questioned earnestly by देवी पार्वती / devī pārvatī , Lord   भगवान् शङ्कर / bhagavān śaṅkara answered thus :
hope, worry, inattention, fear, and greed these 5 are the death,
while discrimination, dispassion, longing for emancipation, attention and self-enquiry these 5 are  the way to the deathless.
-- 



Saturday, 7 October 2017

Solitaire


Solitaire
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Last night, I was waiting for a friend who usually comes to see me in between every few days. But as I was overcome by sleep so much, let the lights stay on and I myself went to the bed.
This was about 9:50.
Woke-up after about 2 hours (precisely at 11:42 p.m) and put the lights off and returned to bed.
At about 2:30, I might have had this dream.
In the dream, I was playing ‘patience’ / ‘solitaire’,
(So far I have played exactly 1600 times this on my computer.
I checked this just now.)
And in the dream I somehow sensed, it was not for the real, but in the dream only. So as I usually do when such a thing happens, I tried to ‘manipulate’ the things because ‘if this was a dream’ I could do this easily. I do this often even while something like this happens with me which looks like a ‘dream’ but almost usually an impossibility. I could see the columns suited well soon and in a jiffy, ‘I won’ and saw out of 1600 games, so far I had won 6 times. I was going to shut-down the system and laughed away about the whole thing.
Just then there was a ‘knock’ at the door.
At this hour? In my dream I checked ‘time’ in my system which was 2:56 a.m. date was 08/10/2017. ‘So it’s a dream only don’t worry!’ –I said to myself.
“No one is going to shoot you, and even if this happens you will not die, but will just wake-up from your dream in your sleep.”- I was convinced.
But the door was already open and I saw them sitting on the sofa in my drawing room. I had no reason and time to wonder who opened the door! We wanted to talk about with you, something about the ‘social ethics’.
She was a girl / lady about 30-35.
He was her brother, as she told me.
He could be younger or elder to her, I couldn’t say.
I thought for a moment:
Could I ‘shut-down’ this dream? Having in the ‘reins’, I could do this, but was interested in seeing what happens next, so let it ‘continue’.
Just then the street-dog, who often screams at this hour every night, started barking.
“Well, you know we are siblings, and we just knew about a friend who has incestuous feelings with her brother. And no doubt, she has a guilt-sense too for her feelings. As she could not deal with the situation well and is facing many mental problems, like depression, anxiety, and the many related symptoms ….”
At the very moment I knew perfectly well and was 'aware' that my own mind was ‘creating’ the dream, and all that was happening was like writing-down a screen-play, and getting played the same in an instant.
And as the ‘time’ had lost all its validity, it mattered not.
The street-dog started barking again rather in a shrilly voice, but mercifully could not disturb my dream and sleep.
“Why he is barking at this odd hour continuously, unstopped?”
-Her brother asked.
“Oh! It’s but his nature.”
“Nature? He exclaimed.
“Don’t they have something like ‘social-ethics’…?
-She chuckled.
“No, he doesn’t have a ‘nature’, Rather, he is ‘nature’ itself, - in the form of a body and actions done through that body.”
I tried to explain.
“What about us?”
-He asked.
“Well ethics is the learning and acquiring the so-called rights and wrongs dictated and imposed upon us by the society, - I think”.
So, shouldn’t she have the guilt-sense?
“Who are we to decide?”
"Are we also not 'nature' only?"
The brother asked.
"Yes, but we tend to think and start believing: we have 'a nature'. Your's and mine and theirs. And we treat the nature in terms of character and take pride in or feel guilt for that, ..."
"Or just stay confused all the time."
She said as if concluding the topic.
And this very moment, approaching my ears, I heard the loudest bark of the dog, and could not stay dreaming any more.
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एक कविता अधूरी सी

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एक कविता अधूरी सी
( जब ’मन’ नहीं होता!)
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क्या कोई कभी ’मन’ से थक पाता है?
क्या किसी का ’मन’ उससे थक जाता है?
क्या शायद तब, उसे नींद आ जाती है?
क्या नींद आने पर ’मन’ थक जाता है?
’कौन’ ढूँढता, खोजता है इसका उत्तर?
’जो’ खोजता है, क्या है ’मन’ से भिन्न?
फिर कोई क्यों कहता है : ’मैं’, मेरा ’मन’?
क्या ’मन’ ही कहता है ’मैं’, ’मेरा मन’?
जब हो जाती है बुद्धि किसी की कुंठित,
क्या तब थक जाता है  उसका ’मन’?
बुद्धि किसी की जब हो जाती है कुंठित,
क्या तब ’वह’ ’मन’ से थक जाता है?
’वह’ है कौन जो कि थक जाता है ’मन’ से?
’वह’ है कौन कि जिससे ’मन’ थक जाता है?
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Wednesday, 4 October 2017

रावण और रामायण

रावण :
एक विचार / एक चमत्कार 
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"रावण की मृत्यु एवं अंतिम संस्कार (पूजन-सहित) भी श्रीराम के कर-कमलों से हुआ था ।
इससे प्रारंभ हुआ रावण-दहन परंपरा के रूप में स्थापित हुआ लेकिन इस परंपरा के साथ रावण का पूजन किया जाना तो बंद हो गया, उसे अपमानित करने और उसके दहन को ’उत्सव’ का रूप दिया जाना निश्चित ही सभी के लिए अत्यन्त अनिष्टप्रद है यह तो वैदिक-तन्त्र के विद्वान भी आपको बता देंगे ।"
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एक प्रतिक्रिया :
प्रियवर ..  जी,
माननीय पं. विनय कुमार वैद्यजी का कथन निराधार है। श्रीराम ने न तो रावण का कभी पूजन-अर्चन किया और न अंतिम संस्कार। यह कर्म विभीषण जी के कर कमलों से संपन्न हुआ था। श्रीराम या लक्ष्मण जी ने कभी रावण से कोई उपदेश ग्रहण नहीं किया और न उससे शिक्षा प्राप्त की। रावण को कभी भगवान ने अपना पुरोहित बनाकर रामेश्वरम् शिवलिंग की स्थाना* भी नहीं कराई। यह सब तथाकथित पंडितों के वाग्जाल और जल्पनाएँ हैं। किसी रामायण में इन तथ्यों का कोई समर्थन नहीं मिलता।
लंकेश्वर रावण का वध भगवान ने चैत्र कृष्ण चतुर्दशी को किया। तदुपरांत विभीषण जी का राज्याभिषेक, सीताजी की अग्निपरीक्षा, वानरसेना के मृत सेनानियों पर अमृतवर्षा और उनका लंकेश्वर द्वारा सम्मान के अनंतर प्रभु चैत्र शुक्ल चतुर्थी को विमान से भरद्वाज ऋषि के आश्रम पहुँचे तथा पंचमी को उनका पुष्य नक्षत्र में राज्यारोहण हुआ। दशहरे या दीवाली का रामकथासे कोई संबंध नहीं है। आज भी अयोध्या जी में प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ल पंचमी को श्रीराम का राज्याभिषेक उत्सव मनाया जाता है। हाँ, रावण के पुतलादहन से मैं सहमत नहीं हूँ। यह सनातन धर्म के प्रतिकूल है। तुलसीदास जी के समय तक यह प्रथा नहीं थी।
*संशोधनः स्थापना
--
मेरा प्रत्युत्तर :
मैं न तो व्यवसाय या कर्मकाण्ड से पंडित हूँ न श्रीरामचरित्र की कथा का ज्ञाता,
और कथावाचक तो कदापि नहीं हूँ ।
अध्यात्मरामायण युद्धकाण्ड सर्ग १२, श्लोक ३३ में भगवान् राम से विभीषण कहते हैं :
रामस्यैवानुवृत्त्यर्थमुत्तरं पर्यभाषत ।
नृशंसमनृतं क्रूरं त्यक्तधर्मव्रतं प्रभो ॥३१
नार्होऽस्मि देव संस्कर्तुं परदाराभिमर्शिनम् ।
जिसके प्रत्युत्तर में भगवान् राम विभीषण से कहते हैं :
श्रुत्वा तद्वचनं प्रीतो रामो वचनमब्रवीत ॥३२
मरणान्तानि वैराणि निवृत्तं नः प्रयोजनम् ।
क्रियतामस्य संस्कारो ममाप्येष यथा तव ॥३२
जिसकी मृत्यु हो चुकी है, उससे वैरभाव भी समाप्त हो जाता है,
इसलिये उसका इष्ट-संस्कार (अंत्येष्टि) करना जैसा तुम्हारे लिए कर्तव्य है वैसे ही मेरे लिए भी (कर्तव्य) है ।
अपनी अल्प-बुद्धि से मैंने इसका यही तात्पर्य ग्रहण किया कि भगवान् श्रीराम ने रावण की अंत्येष्टि के लिए विभीषण को आज्ञा दी ।
उन्होंने स्वयं रावण का ’पार्थिव’ पूजन किया है या नहीं इस पर मेरा कोई आग्रह नहीं है ।
न इस सब विवेचना में मेरी कोई रुचि है ।
रामायण का एक ऐतिहासिक पक्ष है, एक पौराणिक और एक लोककथात्मक भी ।
इनमें परस्पर विरोधाभास होने संभव हैं । सत्य क्या है, कितना है इसे तो राम जानें ...!
मेरा कोई दावा नहीं है न कोई ’मत’ ...
--
एक आलोचनात्मक प्रत्युत्तर :
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण एकमात्र प्रामाणिक रामकथा है। इसे स्वयं ब्रह्मदेव ने प्रमाणित किया है। शेष रामकथाएँ काव्य रचनाएँ हैं, जिनमें नवीन उद्भावनाएँ, प्रक्षिप्तांशों और सामयिक रूढ़ियों को अंतर्निविष्ट किया गया है।
दूसरी प्रतिक्रिया :
क्या श्रीमद्वाल्मिकीय रामायण के प्रामाणिक होने से रामकथा की अन्य रचनाएँ अप्रामाणिक सिद्ध हो जाती हैं?
अध्यात्मरामायण भी ब्रह्माण्डपुराण के अन्तर्गत एक आख्यान है । यदि इस पर भी संशय किया जा सके तो श्रीमद्वाल्मिकीय रामायण के ही अन्तर्गत युद्धकाण्ड १०९वें सर्ग के अंतिम श्लोक में भगवान् श्रीराम द्वारा कहा गया प्रस्तुत श्लोक अवश्य दृष्टव्य है :
मरणान्तानि वैराणि निर्वृत्तं नः प्रयोजनम् ।
क्रियतामस्य संस्कारो ममाप्येष यथा तव ॥२५ 
क्या यह केवल संयोग ही है कि अध्यात्मरामायण के जिस श्लोक को मैंने पहले उद्धृत किया था और जिस पर अप्रामाणिक होने का संदेह किया जा रहा है उसे महर्षि भगवान् वेदव्यास ने ही श्रीमद्वाल्मीकि-रामायण से ही अक्षरशः यथावत् अपने ’अध्यात्मरामायण’ में उद्धृत किया है?
मैं इससे अधिक आगे और कुछ नहीं कहूँगा ।
सादर!
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टिप्पणी : जब एक 'विचार' प्रस्तुत किया था, उस समय मेरे मन में वह स्मृति थी जो क़रीब तीन-चार वर्षों पहले 'अध्यात्म-रामायण' पढ़ते समय विचार के रूप में मन में आई थी।  इस पर प्राप्त प्रतिक्रिया की सत्यता का अन्वेषण करने के लिए और संभवतः मुझसे हुई त्रुटि का शोधन करने के उद्देश्य से जब मैंने श्रीमद्वाल्मिकीय रामायण में इस प्रसंग में क्या कहा गया है इस उत्सुकता और जिज्ञासा से प्रेरित होकर उसे पढ़ा तो बस चकित होकर रह गया।  मेरे लिए तो यह चमत्कार ही था !
जब एक पाठक को मेरा उल्लेख अच्छा लगा और उसने प्रशंसा की, तो मैंने उन्हें लिखा :
"आशा है वाल्मीकि रामायण पर विमल किशोर जी के प्रश्न के मेरे उत्तरों से आपको संतोष हुआ होगा । मेरे लिए तो यह चमत्कार था कि मेरे प्रमाण की स्वयं उन्होंने ही पुष्टि कर दी! उनका ही उत्तर देने के लिए मैंने वाल्मीकि रामायण में संबंधित प्रसंग देखा तो वहाँ मेरा उद्धृत श्लोक जैसे मुझे आशीर्वाद दे रहा था ।
जा पर कृपा राम की होई, ... "
मुझे अपने 'विचार' पर इसलिए भी भरोसा था, क्योंकि अध्यात्म-रामायण में ही मैंने यह उल्लेख भी पढ़ा था कि भगवान श्रीराम ने जटायु का  'श्राद्ध-कर्म' भी अपने 'कर-कमलों' किया था | अब फिर से उस जटायु-प्रसंग का अवलोकन किया तो पाया कि 'कर-कमलों' का विवरण मेरी स्मृति में वहीं से था, क्योंकि गीताप्रेस की जिस प्रति से मैंने 'अध्यात्म-रामायण' को पिछली बार पढ़ा था उसमें उसके हिंदी अनुवाद में 'कर-कमलों' का प्रयोग दृष्टव्य है और वही मुझे स्मरण रह गया होगा । (मूल संस्कृत श्लोक में केवल 'हस्ताभ्यां' का प्रयोग है।) 
संदर्भ :
जटायु कहते हैं :
अन्तकालेऽपि दृष्ट्वा त्वां मुक्तोऽहं रघुसत्तम ।
हस्ताभ्यां स्पृश मां राम पुनर्यास्यामि ते पदम् ॥३५
(अरण्यकाण्ड, सर्ग ८) 
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Tuesday, 3 October 2017

नित्य-अनित्य-अभ्यास / विवेक discrimination in Self-Enquiry.

नित्य-अनित्य-अभ्यास / विवेक
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When an aspirant takes up the practice of नित्य-अनित्य-अभ्यास seriously and regularly ponders over this question some-day eventually he starts to 'see' what is transient and what is permanent. Bringing attention from outward world and its things, one begins to see the 'me' is comparatively stable and permanent. But proceeding further on, he realizes that 'me' as thought , though forms the support of whole 'experience' this too appears and disappears as in the 3 states of mind, namely the waking, dream and deep sleep. One then realizes with full conviction the consciousness without even a trace of 'me' is the Reality unchangeable, immutable, अविकारी, while everything other than this is विकारी > always keeps undergoing change. (Because you wanted to stay in association with me, so I dared to write this.
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जब 'सत्य' का जिज्ञासु ध्यान से 'नित्य क्या है और अनित्य क्या है?' इसका गंभीरता से विचार करता है तो उसे पहले तो संसार और इसके समस्त 'विषय', सुख-दुःख 'अनुभव-मात्र' 'अनित्य' जाना पड़ते हैं, जबकि 'मैं' तुलनात्मक रूप से स्थिर और 'नित्य' जान पड़ता है।  और आगे खोजने का प्रयास करते हुए उसे समझ में आता है कि यह 'मैं' भी 'विचार-रूप' में आता-जाता रहता है, और सुषुप्ति, स्वप्न और जाग्रत अवस्था में ही होता है।स्पष्ट है कि इस 'मैं-विचार' का आधार कोई अविकारी तत्व है जिसमें 'मैं' का नितांत अभाव है।
इस अधिष्ठान की पहचान ही विवेक का चरम है।
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मनुष्य कितना ’स्वतंत्र’ है?

मनुष्य कितना ’स्वतंत्र’ है?
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आचार आचरण के लिए आवश्यक प्रमुख तत्व हैं ।
किसी भी प्रकार के आचरण के लिए ये ही तीन तत्व मूलतः और प्रेरक होते हैं ।
इसके ही अन्तर्गत इच्छा, अनिच्छा (स्वतंत्रता) तथा परेच्छा (बाध्यता / परतंत्रता) के अनुसार कर्म का आचरण होता है ।
स्वतंत्रता का अर्थ स्वेच्छाचारिता से बहुत भिन्न है ।
स्वतंत्रता का अर्थ है इच्छा, अनिच्छा या परेच्छा से प्रेरित हुए बिना ही कर्म करने का संकल्प ।
इसमें कर्तृत्व-भावना तो होगी ही ।
अर्थात् ऐसा ’स्व’ जो अपने-आपके कर्म के कर्ता होने की मान्यता से बँधा है ।
स्वेच्छाचारिता का अर्थ है  इच्छा, अनिच्छा या परेच्छा से प्रेरित होकर कर्म करने / न करने का संकल्प ।
अर्थात् ऐसा ’स्व’ जो अपने-आपके कर्म के कर्ता होने की मान्यता से बँधा है ।
किंतु कर्म पुनः नित्य, नैमित्तिक, काम्य और निषिद्ध इस प्रकार से चार प्रकार के होते हैं ।
इन्हें बुद्धि से भी समझा जा सकता है और आचार्य से आचार की शिक्षा ग्रहण कर, अर्थात् आचार्य के उपदेश से भी ।
बुद्धियाँ अनेक होती हैं जो कुटिल, जटिल, सरल, स्थूल, सूक्ष्म, स्थिर और अस्थिर आदि होती हैं जिनमें से हितप्रद को ही विवेक कहते हैं ।
वस्तु का विवेकपूर्वक निश्चय करना ही स्थितप्रज्ञता है ।
इस विवेक की सिद्धि के लिए अभ्यास आवश्यक है ।
स्वेच्छाचारी अपने-आपको स्वतंत्र समझता है किंतु वह इच्छा के वश में अपने हित-अहित पर ध्यान दिए बिना इच्छा को पूर्ण करने को स्वतंत्रता समझ बैठता है और इसे ’स्वतंत्रता’ कहकर अंततः दुःखी और निराश ही होता है ।
विवेकवान मनुष्य स्त्री हो या पुरुष कार्य / कर्म के शुभ-अशुभ परिणाम को दृष्टि में रखकर ही ऐसा कार्य करने में प्रवृत्त होता है जिसके परिणाम में क्लेश की प्राप्ति न हो । संसार के विषय में इतना ही पर्याप्त है । किंतु जिस विवेकवान को संसार के विषयों और विषय-सुखों की, इन्द्रियों के उपभोग करने की क्षमता की सीमा का, उनकी अनित्यता का स्मरण होता है वह ऐसा कार्य करने में प्रवृत्त होता है जिससे क्लेशमात्र की आत्यन्तिक निवृत्ति हो सके ।
वेद किसी को कर्म करने से न तो रोकते हैं न किसी कर्म को करने का आग्रह करते हैं ।
वेद केवल इतनी शिक्षा देते हैं कि किस कर्म का क्या शुभ, अशुभ और मिश्रित परिणाम होगा ।
तय तो मनुष्य को ही करना है ।
इसे ’स्वतंत्रतापूर्वक’, विवेक से करना है या स्वेच्छाचारिता से ।
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क्या स्त्री-स्वातंत्र्य के पक्ष-विपक्ष पर विचार करनेवाले इस संदर्भ पर ध्यान देते हैं ?

Monday, 2 October 2017

संभ्रम / कविता

संभ्रम / कविता
--
मुझमें कोई राम नहीं है,
और नहीं है कोई रावण मुझमें!
मुझमें कोई गाँधी नहीं है,
और नहीं है कोई नाथूराम,
मुझमें कोई औरंगज़ेब नहीं है,
और नहीं है कोई शिवाजी मुझमें,
मुझमें कोई कंस नहीं है,
और नहीं है कोई श्रीकृष्ण मुझमें,
क्योंकि नहीं है कोई प्रतिमा मेरे मन में,
और नहीं है अपनी खुद की ही कोई,
जिससे तुलना और किसी की कर पाऊँ,
मैं नहीं इतिहास-पुरुष,
अतीत का कोई उजला या मैला पन्ना,
मैं हूँ नित्य सनातन शाश्वत्,
सब मुझमें हैं , लेकिन मैं किसी में नहीं ।
क्योंकि नहीं है कोई प्रतिमा मेरे मन में,
और नहीं है अपनी खुद की ही कोई,
--
कोई प्रतिमा भी आख़िर क्या होती है?
वह जो तुम आरोपित कर देते हो,
किसी वस्तु पर जो स्थान समय से,
यूँ तो होती है नितांत अछूती,
लेकिन जिसे नाम आकृति में बाँधते हुए,
’पहले’ और ’बाद’ की रचना कर लेते हो ।
तुम दूसरी वस्तुओं की ही नहीं,
तुम दूसरे व्यक्तियों की ही नहीं,
खुद की, अपनी भी प्रतिमा गढ़ लेते हो,
बाँध लेते हो खुद ही खुद को उस कारा में ।
’मैं दुःखी हूँ, या मैं सुखी हूँ,
मैं स्त्री हूँ या कि मैं पुरुष हूँ,
या कभी-कभी नपुंसक भी !
सफल, विफल, या संघर्षरत,
निर्धन, धनिक, कंगाल,
पति, पत्नी, बेटा, बेटी,
पिता, माता, भाई या बहन,
नौकर, स्वामी, नेता, अनुयायी,
क्रांतिकारी, दब्बू, डरपोक, कायर,
वीर, असहाय, धार्मिक, अधार्मिक,
अधर्मी, विधर्मी, धर्मरक्षक,
आस्तिक या नास्तिक,
पापी या पुण्यवान,
शोषक या शोषित, ...'
जबकि ये सब तुम नहीं,
तुम्हारी प्रतिमाएँ होती हैं,
जिन्हें तुमने ही गढ़ा होता है
ये सब तुम नहीं,
तुम्हारे शरीर, मन, बुद्धि, संस्कारों के,
परिस्थितियाँ, और उनसे होनेवाले,
कर्म होते हैं, न कि होते हो तुम!
क्या इस सबसे खुद को जोड़कर ही,
तुम अपनी कोई प्रतिमा नहीं गढ़ लेते?
क्या ऐसे ही तुम राम, रावण,
गाँधी और नाथूराम,
औरंगज़ेब और शिवाजी,
श्रीकृष्ण और कंस,
भारत और जर्मनी,
अमेरिका और फ़्रांस,
गाँधीवाद, साम्यवाद या समाजवाद,
इस्लाम, हिन्दुत्व, क्रिश्चियनिटी,
यहूदी, पारसी या बौद्ध-सिख,
ईश्वर, सत्य, अहिंसा,
की भी प्रतिमा नहीं गढ़ लेते?
तुम इन प्रतिमाओं को जानते हो या उसे,
जिसे तुमने ही प्रमादवश,
अपनी अनवधानपूर्ण मनःस्थिति में,
खुद ही ढाला था,?
तुम चाहो तो अभी ही,
 इन प्रतिमाओं को विसर्जित कर सकते हो,
और इनके ही साथ,
अपनी खुद की प्रतिमा को भी !
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Sunday, 1 October 2017

संवाद के सिकता-सेतु

संवाद के सिकता-सेतु 
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रामचरितमानस / रामायण ग्रंथ के आदर्श-पुरुष (भगवान्) श्रीराम और आदर्श नारी (माता) सीता हैं इस से शायद ही कोई असहमत होगा ।
यदि हम (माता) सीता के आदर्श पर ध्यान दें तो वे पतिव्रता (और सती) भी कही जाती हैं । (माता) पार्वती ने जब प्रजापति दक्ष की कन्या के रूप में जन्म लिया था तो उनका नाम ’सती’ ही था । इसलिए ’सती’ का मूल अर्थ ’सत्’युक्त नारी अर्थात परम शुद्ध, देवी-तुल्य पवित्रतम स्त्री । इस ’सती’ ने ही दक्ष के यज्ञ में शिव को न बुलाये जाने पर ’योगाग्नि’ प्रज्वलित कर उसमें आत्मदाह कर लिया था । बाद में क्षत्रिय राजाओं की स्त्रियों ने भी पति के रण में मारे जाने या मारे जाने की संभावना की स्थिति में ’जौहर’ के रूप में आत्मदाह किया । इसे भी ’सती’ कहा गया । यह स्त्री का अधिकार है या नहीं इस पर तो उसे ही सोचना है (और मुझे लगता है कि सामान्य-बुद्धि से भी यह क्रूरता ही जान पड़ता है), लेकिन आज की स्त्री को भी यदि वह सीता और पार्वती के आदर्श का अनुकरण करना चाहती है, तो आज के समाज में रहते हुए यह कहाँ तक और कितना संभव है? यदि वह ऐसा न कर सके तो इसके लिए भी उसे पूर्ण स्वतंत्रता है और होनी भी चाहिए ।
उपरोक्त चिंतन इसलिए किया क्योंकि कभी-कभी बातचीत के लिए कोई उपयुक्त विषय न होने पर स्त्रियों से बातचीत करना अनावश्यक और व्यर्थ लगता है । तब मैं उनका ध्यान इस ओर दिलाना चाहता हूँ कि वेद एवं रामायण आदि के अनुसार स्त्री के लिए पति ही परमेश्वर है और पति की सेवा करना ही उसका सर्वोत्तम धर्म हो सकता है । क्या वे इससे सहमत हैं? यदि हैं तो उन्हें पर-पुरुष से अनावश्यक बातचीत, बौद्धिक विचार-विनिमय भी नहीं करना चाहिए । नम्रता के कारण मैं उन्हें यह नहीं कह पाता कि स्त्री के लिए वेद का अध्ययन निषिद्ध है । क्योंकि तब उनके इससे असहमत होने की स्थिति में भी मैं कुछ नहीं कर सकता । उनकी स्वतंत्रता सर्वोपरि है । यह तो उन्हें ही तय करना है कि वे वेद, रामायण आदि को किस रूप में ग्रहण करती हैं । शास्त्रार्थ या वाद-विवाद तो मैं किसी से भी नहीं करता!
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The sand-bridges of communication.
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I sometimes come across the women who take pride in being a Hindu.
I have no objection but when I point out what duties according to Ramayana and Veda, a Hindu woman is expected to practice and observe, I sense we have lost the thread of communication. Though I can understand by 'Hindu' they might have the same meaning in their mind what I mean by 'Sanatana-dharma'. I fully honor their total and ultimate freedom of thought and the way they want to live their life, but I just feel unable to convey them this unpleasant fact that the duty and religion of a Hindu woman is to serve her husband taking him as the God. I feel this is what Veda and Ramayana too instruct for them. 
This is the virtual sand-bridge between them and me that makes dialogue almost impossible.
And, I never debate with anybody who-so-ever about anything.
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Extensive and Comprehensive.

Marriage, Social Ethics,
Parenting, Companionship, Relationship,
Extensive and Comprehensive.
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The institution of Marriage has origins in Veda.
And though there is a historical way of finding out how old are the Veda in the form of written texts, the Veda as such are the code of creation, preservation and dissolution of the existence where the consciousness is the essential cause that could be attributed to all this manifestation.
There is a creation that is 'done' and there is a creation that 'happens'.
Life as such that emerges in an organism is the creation that happens, and though we can think we have arranged for it's happening, we ourselves as an organism are individually and collectively too such a creation only.
The idea of being and the idea of being oneself as a distinct person, -an individual are again what 'happens' to us. To each of us, though basically at individual level only.
We don't have a collective identity, though this has been made later on and is assumed as our 'being'. And whatever is made has a time-bound existence, including the 'time' itself.
Let us have a quick-glance at the vocabulary needed to understand this better :
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ब्रह्म, brahma > Totality That includes the Creator, the Creation and the inherent knowledge which is not different from them both.
This trinity, this triad is so classified for the sake of simplicity in grasping the principle.
 ब्राह्मण, brāhmaṇa > That which has its origin in ब्रह्म, brahma, though may be strictly in the subtle, gross or the intermediate form.
Thus the humans are but one kind of the multitude of forms (organisms).
Again, in humans there are few who by intuition or tradition, accept and follow the authority of Veda,
and practice the way accordingly as is enjoined upon by Veda.
Then there are others who have not such intuition, tradition or knowledge so for them there is no question of  following this वेद-धर्म / Veda-dharma i.e. ब्राह्मण-धर्म, brāhmaṇa-dharma, again according to their inherent nature-born tendencies within them, that lets them see one of the four major kinds of the classification further made is most convenient for them.
This four-fold classification is called  वर्ण / varṇa. are :
ब्राह्मण, brāhmaṇa, क्षत्रिय, kṣatriya, वैश्य, vaiśya and शूद्र, śūdra respectively.
As Veda proclaim, it is for the good and benefiting for all to live the life in harmony with one's natural tendencies, so there is no strife or conflict in thought and action, it is also important with a view for creating and preserving a cohesive society at the collective level.
Thus follows the 'profession' or the way of 'livelihood'.
And basically this is in the genes, along with the clan, the tradition also enhances the skill of any community, which is but an organ of the society at large.
At the formal level, one could have born in a family of one class, it is possible (and is seen as well) because of one's different inclinations and tendencies (as these vary from person to person) he is a better-fit in some other class.
And no class is superior or inferior, higher or lower, declare the scriptures.
But of course, there is emphasis of keeping the class as much 'pure' as possible.
We have a case Of Lord परशुराम / paraśurāma who was born of the ब्राह्मण-वर्ण / brāhmaṇa-varṇa, but had tendencies of क्षत्रिय-वर्ण, kṣatriya-varṇa.
Going into this here is quite out of subject and unimportant, but this shows, how the mixing-up of  वर्ण / varṇa can disturb the cohesive-balance of harmony of the Society.
The first and the foremost consequence is that whole of सनातन-धर्म, sanātana-dharma, वर्णाश्रम-धर्म, varṇāśrama-dharma, and ब्राह्मण-धर्म, brāhmaṇa-dharma is lost, What happened after the Great war of महाभारत / mahābhārata.
Presently we can't say with confidence how far and to what extent the harm has been done.
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The institution of Marriage as devised by Veda saw to it that purity of the वर्ण / varṇa is preserved at all cost. Because only then the ब्राह्मण-धर्म, brāhmaṇa-dharma could be able to perform the rituals according to the procedures strictly in compliance with the rules dictated by वेद-धर्म / Veda-dharma.
This was / is the fundamental of Marriage.
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These days though the वेद-धर्म / Veda-dharma and ब्राह्मण-धर्म, brāhmaṇa-dharma are still alive and perhaps prospering too, the institution of Marriage has lost this fundamental understanding and no new understanding could  evolve to replace the same.
Whatever be the idea of Marriage, Veda and all common-sense too suggest that Marriage is a social responsibility for every-one. Marriage is though gratification of sex-urge, this urge has implications that cause fragmentation in the society.
Religion of this day, whatever religion one practices enforces upon the followers to follow the ethics as is governed by their books. And the interpretations of the book itself varies so much that the disputes and differences are a common outcome.
At the level of society, how an individual deals with his / her own sex-urge has a great impact upon the society. Given that one can live 'in-relationship' and out of this Marriage-bracket, the question of the off-springs poses another problem.
Though companionship could be a good basis, but with every enjoyment and right the duty and responsibility is invariably associated. There is a 'price', one is expected to pay for, for whatever one gets in exchange from the society.
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Marriage and Religion as tradition have become outdated, obsolete and redundant.
We have to create and sustain a new society where relationship is based upon the relation of the one who for living happily is dependent upon the other. And this is possible only if we have a right understanding of the sexual relationship as well. We can't afford suppressing or glamorizing the sex-urge and seek gratification but take it as a normal urge and force that is at the core of Life and Creation. This is a bit difficult to understand but an important, vital need of our times.
Marriage and Religion as tradition have conditioned our mind in such a way that sex and sexuality, sexual behavior have become a nightmare and a vicious cycle for most of us.
Society or individuals or The Society with individuals need to have a second glance over all this and find out.
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Disclaimer :
As this is my swaadhyaaya-blog, here I note-down what I think.
This is all basically very personal only.
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पुत्तलिका-तन्त्र

पुत्तलिका-तन्त्र
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प्रत्येक वर्ण देवता है अर्थात् प्राण और चेतना का एक युग्म जो एक ओर तो एक सुनिश्चित ध्वनि-कंपन है तो दूसरी ओर वह चेतना है जो उस कंपन से युक्त वह वैश्विक चेतना है जो व्यक्ति-सत्ता के रूप में उस कंपन की अभिमानी देवता है । यह इस अर्थ में व्यावहारिक सत्य है कि वर्णों के सुनिश्चित संयोग से ऐसी चेतन-सत्ताएँ पाई जाती हैं जिनका अस्तित्व वेद से प्रमाणित तो है ही, वैदिक कर्मों के सुनिश्चित अनुष्ठान से उनसे संपर्क भी किया जा सकता है और चूँकि वर्ण नित्य और सनातन अर्थात् अमर है, इसलिए जैसे भौतिक विज्ञान में अनेक भिन्न-भिन्न तत्वों अर्थात् प्रकृति  के गुणों को परिभाषित कर उस आधार पर उन तत्वों का चरित्र तय किया जाता है वैसे ही अध्यात्म-विद्या में असंख्य देवताओं की सृष्टि की जा सकती है और उनसे किसी प्रयोजन की सिद्धि भी की जा सकती है । ये असंख्य देवता भी मूलतः मनुष्य के द्वारा उच्चारित किए जा सकनेवाले वर्णों की समष्टि है इसलिए कुछ ऐसे वर्ग (मातृकाएँ / Matrix) हैं जिनमें से प्रत्येक में भिन्न-भिन्न देवताओं का समुच्चय (Set) होता है । इसलिए ऐसा प्रत्येक देवता एक या एक से अधिक वर्ग में भिन्न-भिन्न उपाधि-सहित भिन्न-भिन्न लक्षणों और गुणों से युक्त एक तत्व / element / member होता है । ऐसे कुछ सीमित तत्वों से बने वर्ग / matrix उस बड़े वर्ग के उपसमुच्चय subset होते हैं। इस पूरे देवता-तंत्र को आज के गणित 'Topology' और modern algebra की भाषा में बहुत सटीक तरीके से समझा / समझाया जा सकता है।
किसी भी देवता की एक प्रतिमा होती है जो इन लक्षणों और गुणों के आधार पर निर्मित की गई होती है जिसमें प्राण की प्रतिष्ठा किए जाते ही वह देवता जागृत हो जाता है । यह सारा प्रयोग इनके ज्ञान-सहित भी किया जा सकता है और संयोगवश, अज्ञान-सहित भी होता रहता है जिससे प्रकृति में असंख्य जीव-चेतनाएँ स्थूल, सूक्ष्म या कारण-मात्र देह-धारी के रूप में व्यक्त होती हैं ।
इस प्रकार ’प्’ वर्ण, जो किसी देवता का लक्षण है, स्वतंत्र रूप से तथा अन्य किन्हीं एक अथवा अनेक वर्णों से युक्त होकर भिन्न-भिन्न रूप लेता है, एक सुनिश्चित अर्थ और कार्य का द्योतक है । यहाँ उदाहरण के रूप में इस वर्ण को प्रस्तुत करने का ध्येय यह है कि इसके कुछ रूपों का अध्ययन किया जाए ।
प् + अ, प् + आ, प् + इ, प् + ई, प् + उ, प् + ऊ, प् + ऋ, प् + ॠ, प् + ए, प् + ऐ, प्  + ओ, प् + औ, आदि ।
पुनः इन स्वरों से युक्त होने पर ’प्’ का एक विशिष्ट रूप प्राप्त होता है जो ’प’ ’पा’ ’पि’, ’पी’, ’पु’, ’पू’, ’पृ’, ’पॄ’, ’पे’, ’पै’, ’पो’, ’पौ’, इतादि रूप लेते हैं ।
विसर्ग और अनुस्वार भी ऐसे ही वर्ण और देवता हैं  जो उपरोक्त प्रत्येक संयुक्त वर्ण से जुड़ने पर ’पः’, ’पाः’ इत्यादि बनते हैं ।
इस प्रकार एक सुनिश्चित क्रम में वर्णों को रखकर संयुक्त-रूप में प्राप्त होनेवाले परिणाम उनके कार्य को फलित और इंगित करते हैं । इस प्रकार एक ही वर्ण ’प्’ के असंख्य संयोजन हो सकते हैं और मूलतः केवल एक पूर्ण वर्ण से भी उससे जुड़े दूसरे पूर्ण या अपूर्ण वर्ण से ’धातु’ घटित होती है ।
इस प्रकार धातु के अतिरिक्त भिन्न-भिन्न प्रत्यय भी अस्तित्व में पाए जाते हैं और यह तो स्पष्ट ही है कि इस प्रकार के अध्ययन से हम केवल उनका आविष्कार कर रहे हैं न कि सृष्टि या निर्माण । क्योंकि वे तो पहले से ही अस्तित्व में हैं, हम अपना ध्यान उन पर एकाग्र कर उन्हें अपनी चेतना में स्थापित कर शक्ति अर्थात् प्राण देते हैं ।
प् से जैसे ’पत्’ और ’पत्र’ की ’सृष्टि’ होती है, वैसे ही प् से ही ’पु’ तथा ’पु’ से ’पुत्’ एवं ’पुत्र’ / ’पुत्री’ की भी सृष्टि होती है ।
पु से ही ’पुर’ और ’पुरुष’ की भी सृष्टि होती है ।
यद्यपि अवांतर दृष्टि से,
’पृ’ से भी पुर् / पुर / ’पुरुष’ की सृष्टि दृष्टव्य है ही ।
उपनिषद् कहते हैं :
यो वै तत् पुरुषो ...
यह सब व्याप्ति एक ही पुरुष (साङ्ख्य) का विस्तार है ।
पुत् से ही पुत्तलिका की सृष्टि होती है जो ’प्रतिमा’ होती है अर्थात् विशिष्ट रूपाकार ।
इसलिए संसार में पाई जानेवाली या मन में निर्मित सभी प्रतिमाएँ पुत्र / पुत्री या पुत्तलकः / पुत्तलकं / पुत्तलिका हैं ।
किसी मनुष्य की मृत्यु हो जाने पर उसे जल, वायु, अथवा अग्नि को समर्पित कर दिए जाने पर वह मनुष्य इस जीवन की कल्पना से मुक्त नहीं हो पाता क्योंकि यह कल्पना उसके जीवन में उसके मन में बनी संसार की कल्पना / संसार की प्रतिमा थी ।
अग्नि को समर्पित कर दिए जाने पर उसकी वह कल्पनाऔर कल्प-बंध टूट जाता है ।
हाँ यदि वह मनुष्य जीते-जी ही अपने कल्पित संसार को ज्ञानाग्नि में समर्पित कर भस्म कर मुक्त हो चुका हो तो ऐसे ज्ञानी की देह शिव की भस्म होती है जिसे यूँ तो जल, भूमि, वायु या अग्नि को समर्पित किए जाने से उसे कोई अंतर नहीं पड़ता किंतु भूमि में समर्पित कर समाधि देना संसार के लिए सर्वाधिक शुभ है ।
किंतु जिन अन्य मनुष्यों को भूमि में उतार दिया जाता है वे और उनका कल्पित संसार ’महाप्रलय’ तक उसी स्थान पर बद्ध रहता है ।
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मरणोत्तर-धर्म
ऐसे मनुष्य की आत्मा का मरणोत्तर धर्म उसके ’संसार’ का ही फैलाव है, और प्रत्येक मनुष्य चाहे तो जीते-जी ही उस संसार की अन्त्येष्टि अर्थात् अग्नि-संस्कार कर सकता है या उसके परिजनों से आशा कर सकता है कि उसकी मृत्यु होने पर वे उसका अंतिम-संस्कार उसे अग्नि में समर्पित कर करें ।
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श्रीवत्स-स्वस्तिक

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श्रीवत्स श्री-वत्-स ...
श्री : लक्ष्मी, विष्णु की माया,
स > सः जैसे ’श्रीवत्स’ में,
यह नियति-चक्र,
जिसका एक अन्य रूप है स्वस्तिक,
किंतु स्वस्तिक वामावर्त या दक्षिणावर्त होने से खंडित है,
इसलिए हमें ’आर्य’ स्वस्तिक के दो प्रकार प्राप्त होते हैं ।
एक सृजनोन्मुख दक्षिणावर्त,
दूसरा विनाशोन्मुख वामावर्त
पहला वैदिक है,
दूसरा अवैदिक या वेद से भिन्न,
जिसे विपरीत भी कह सकते हैं,
दूसरा ’हिटलर’ का प्रिय चिह्न था सभी जानते हैं ।
हिटलर का इतिहास भी सभी को पता है ।
किंतु श्रीवत्स जिसे वामावर्त या दक्षिणावर्त,
दोनों रूपों में देखा जा सकता है,
संतुलित और सम है ।
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