Monday, 27 July 2015

Vedika Science -9 - लोभ / greed.

Vedika Science -9
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लोभ / greed.
प्रश्न 5 :
कौन स्वाध्यायशील ब्राह्मण समुद्र में रहनेवाले महान् ग्राह की जानकारी रखता है?
उत्तर:
एकमात्र लोभ ही इस संसार-समुद्र के भीतर महान् ग्राह है । लोभ से पाप में प्रवृत्ति होती है, लोभ से क्रोध प्रकट होता है, लोभ से कामना होती है, लोभ से ही मोह, माया (शठता), अभिमान, स्तम्भ (जडता), दूसरे के धन की स्पृहा, अविद्या और मूर्खता होती है । यह सब कुछ लोभ से ही उत्पन्न होता है । दूसरे के धन का अपहरण, परायी स्त्री के साथ बलात्कार, सब प्रकात्र के दुस्साहस मे प्रवृत्ति तथा न करने योग्य कार्यों का अनुष्ठान भी लोभ की ही प्रेरणा से होता है । अपने मन को जीतनेवाले संयमी पुरुष को उचित है कि वह उस लोभ को मोहसहित जीते । जो लोभी और अजितात्मा हैं, उन्हीं में दम्भ, द्रोह, निन्दा, चुगली और दूसरों से डाह - ये सब दुर्गुण प्रकट होते हैं । जो बड़े बड़े शास्त्रों को याद रखते हैं और दूसरों की शंकाओं का निवारण करते हैं, ऐसे बहुज्ञ विद्वान् भी लोभ के वशीभूत होकर नीचे गिर जाते हैं । लोभ और क्रोध में आसक्त मनुष्य सदाचार से दूर हो जाते हैं । उनका अन्तःकरण छुरे के समान तीखा होता है । परंतु ऊपर से वे मीठी बातें करते हैं । ऐसे लोग तिनकों से ढँके कुएँ के समान भयंकर होते हैं । वे ही लोग युक्तिवाद का सहारा लेकर अनेकों पन्थ चलाते हैं । लोभवश मनुष्य समस्त धर्ममार्गों का लोप कर देते हैं । लोभ से ही कुटुम्बीजनों के प्रति निष्ठुरता का बर्ताव करते हैं ।कितने ही नीच मनुष्य लोभवश धर्म को अपना बाह्य आभूषण बना धर्मध्वजी होकर जगत् को लूटते हैं । वे सदा लोभ में डूबे रहनेवाले महान् पापी हैं । राजा जनक, युवनाश्व, वृषादर्भि, प्रसेनजित, तथा और भी बहुत से राजा लोभ का नाश करके स्वर्गलोक में गये हैं । इसलिये जो लोग लोभ का परित्याग करते हैं, वे ही इस संसार-समुद्र के पार जाते हैं । इनसे भिन्न लोभी मनुष्य ग्राह के चंगुल में ही फँसे हुए हैं । इसमें संशय नहीं है ।
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.........................पञ्चमं चाप्यतः श्रुणु ।
एको लोभो महान् ग्राहो लोभात्पापं प्रवर्तते ॥
लोभात् क्रोधः प्रभवति लोभात् कामः प्रवर्तते ।
लोभान्मोहश्च माया च मानः स्तंभः परेप्सुता ॥
अविद्याऽप्रज्ञता चैव सर्वं लोभात् प्रवर्तते ।
हरणं परवित्तानां प्रदाराभिमर्शनम्॥
साहसानां च सर्वेषामकार्याणां क्रियास्तथा ।
स लोभः सह मोहेन विजेतव्यो जितात्मना ॥
दम्भो द्रोहश्च निन्दा च पैशुन्यं मत्सरस्तथा ।
भवन्त्येतानि सर्वाणि लुब्धानामकृतात्मनाम् ॥
सुमहान्त्यपि शास्त्राणि धारयन्ति बहुष्रुताः ।
छेत्तारः संशयानां च लोभग्रस्ता व्रजन्त्यधः ॥
लोभक्रोधप्रसक्ताश्च शिष्टाचारबहिष्कृताः ।
अन्तःक्षुरा वाङ्मधुराः कूपाश्छन्नास्तृणैरिव ॥
कुर्वते ये बहून् मार्गांस्तान्तान् हेतुबलान्विताः ।
सर्वं मार्गं विलुम्पन्ति लोभज्ज्ञातिषु निष्ठुराः ॥
धर्मावतंसकाः क्षुद्रा मुष्णन्ति ध्वजिनो जगत् ।
एतेऽतिपापिनः सन्ति नित्यं लोभसमन्विताः ॥
जनको युवनाश्वश्च वृषादर्भिः प्रसेनजित् ।
लोभक्षयाद्दिवं प्राप्तास्तथैवान्ये जनाधिपाः ॥
तस्मात्त्यजन्ति ये लोभं तेऽतिक्रामन्ति सागरम् ।
संसाराख्यमतोऽन्ये ये ग्राहग्रस्ता न संशयः ॥
(स्कन्दपुराण, माहेश्वर-कुमारिका खण्ड 3-277 ... 287)
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Vedika Science -9
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लोभ / greed.
.........................pañcamaṃ cāpyataḥ śruṇu |
eko lobho mahān grāho lobhātpāpaṃ pravartate ||
lobhāt krodhaḥ prabhavati lobhāt kāmaḥ pravartate |
lobhānmohaśca māyā ca mānaḥ staṃbhaḥ parepsutā ||
avidyā:'prajñatā caiva sarvaṃ lobhāt pravartate |
haraṇaṃ paravittānāṃ pradārābhimarśanam||
sāhasānāṃ ca sarveṣāmakāryāṇāṃ kriyāstathā |
sa lobhaḥ saha mohena vijetavyo jitātmanā ||
dambho drohaśca nindā ca paiśunyaṃ  matsarastathā |
bhavantyetāni sarvāṇi lubdhānāmakṛtātmanām ||
sumahāntyapi śāstrāṇi dhārayanti bahuṣrutāḥ |
chettāraḥ saṃśayānāṃ ca lobhagrastā vrajantyadhaḥ ||
lobhakrodhaprasaktāśca śiṣṭācārabahiṣkṛtāḥ |
antaḥkṣurā vāṅmadhurāḥ kūpāśchannāstṛṇairiva ||
kurvate ye bahūn mārgāṃstāntān hetubalānvitāḥ |
sarvaṃ mārgaṃ vilumpanti lobhajjñātiṣu niṣṭhurāḥ ||
dharmāvataṃsakāḥ kṣudrā muṣṇanti dhvajino jagat |
ete:'tipāpinaḥ santi nityaṃ lobhasamanvitāḥ ||
janako yuvanāśvaśca vṛṣādarbhiḥ prasenajit |
lobhakṣayāddivaṃ prāptāstathaivānye janādhipāḥ ||
tasmāttyajanti ye lobhaṃ te:'tikrāmanti sāgaram |
saṃsārākhyamato:'nye ye grāhagrastā na saṃśayaḥ ||
(skandapurāṇa, māheśvara-kumārikā khaṇḍa 3-277 ... 287)
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Q.5 :
Who could be accepted as such a ब्राह्मण / brahmān scholar dedicated to learning that is aware of the one great formidable crocodile?
Answer :
Now listen to the answer to the fifth question -
Greed (see how the word 'greed' resembles with the word ग्राह grāh meaning crocodile!) alone is the formidable treacherous crocodile that lives in the ocean that is this world. This forces one to indulge in sin, Greed causes anger, delusion, cruelty born of arrogance, false pride, stupidity / obtuseness of the mind, desire grabbing for other's wealth, ignorance, and idiocy. Stealing other's money, raping the women of others (as an act of violence), engaging in all kinds of misadventures. and getting joy in performing the actions that are strictly forbidden by the scriptures, all this follow from greed. One who is trying to win over one's own mind, should first attempt to defeat this greed along-with its companion, - the delusion. Those possessed by greed and has no control over mind, give place in their heart for deceitfulness, animosity, contempt, slander / back-biting, and envy all these evils. Even those great and learned, who though remember great voluminous scriptures in length, clear difficult doubts of others are not spared from the grip of this crocodile and meet their fall. The men possessed by greed and anger stray away from the right conduct. Their mentality is like a sharp blade, though outwardly they may speak in sweet tones. They are dangerous like the wells covered-up with weeds. By their captious logic, they pave the ways for different sects. Prompted by greed, they ruin and demolish all the paths that lead to true dharma. Because of greed, they behave in a harsh way with their own family and kin. Many a fallen because of greed show-off being piteous, great saints and keep hoarding ill-gotten wealth and respect. They are the biggest sinners who are always sunk deep in the quagmire of this greed. The King Janaka, Yuvanāsḥva, vṛṣādarbhi, Prasenajit, and many other kings likewise won over the greed and attain great heavens.
Therefore only those who can overcome greed, can hope transcending this ocean of world (bhava-sāgara. While those, who are of a different kind will never,... There is no doubt about this.
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Care : The above English text is the translation of the original Hindi text. My only purpose here is to bring out the purport of the Hindi / Sanskrit text, for those who can't read / understand the original Hindi / Sanskrit text, -please note.
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