आत्म-मंथन और आत्म-चिन्तन
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यदि उस ’सत्य’ के बारे में सोचें जिस रूप में वह सब को अनायास प्राप्त है, तो ’स्व’ अर्थात् अपने अस्तित्व का स्वाभाविक बोध वह अकाट्य सत्य है जिसके बारे में न तो कोई सन्देह किया जा सकता है और न उसे कल्पना कहा जा सकता है । इस अपने होने के स्वाभाविक बोध का अभाव किसी बाह्य स्थान, काल या परिस्थितिआदि में नहीं हो सकता । किन्तु ध्यान देने योग्य बात यह है कि अपने होने के बोध से भी पूर्व जो बोध है, वह ’अपने’ के विचार से भी रहित है ।
इस अस्तित्व के बोध और बोध के अस्तित्व से कौन अनभिज्ञ है?
स्पष्ट है कि ऐसा कोई नहीं है, न हो सकता है ।
किन्तु अस्तित्व का बोध और बोध का अस्तित्व एक ही वास्तविकता के दो पहलू हैं ,जब इस सत्य को शब्द दिए जाते हैं तो ’आत्मा’ और ’संसार’ को ग्रहण किया जाता है । ’आत्मा’ का संस्कृत में तात्पर्य है जो श्वास लेता है, ’अत्’ , ’अद्’ धातु का अर्थ है खाना । इस श्वास के चलने से ही ’आत्मा’ का लौकिक रूप व्यक्त होता है । प्रश्न यह भी है कि श्वास के चलने से ’आत्मा’ का पृथक् रूप प्रकट होता है, या पृथक् रूप (शरीर) के होने से श्वास चलती है?
जो भी हो, श्वास, प्राण और अस्तित्व का बोध /बोध का अस्तित्व इन सबके परस्पर संयुक्त होने से ही एक आभासी ’आत्मा’ एक आभासी संसार में अस्तित्व में आती है । इसके साथ ही ’स्मृति’ और ’पहचान’ की भी एक आभासी निरन्तरता उत्पन्न होती है । यदि स्मृति नहीं तो पहचान नहीं, और पहचान नहीं तो स्मृति नहीं । इसलिए यह ’निरन्तरता’ अपने आप में एक कल्पना के सिवा कुछ नहीं ।
अब हम आत्म-मंथन और आत्म-चिन्तन के बारे में देखें
चूँकि हर जीव अस्तित्व के बोध और बोध के अस्तित्व से युक्त है, इसलिए ’स्मृति’ और ’पहचान’ के उत्पन्न होने के बाद अपनी एक पहचान और अपने से भिन्न एक संसार की एक पहचान बनती है । उनकी निरन्तरता की कल्पना उनके एक नित्य वस्तु की तरह अस्तित्वमान होने का भ्रम उत्पन्न करती है । यह भ्रम भी स्मृति का ही हिस्सा है । और इस भ्रम में अपने को, अर्थात् ’मै’ / ’स्व’ / आत्मा और संसार को दो भिन्न इकाइयों की तरह ग्रहण कर लिया जाता है । इस प्रकार देह में विचारों द्वारा एक कृत्रिम केन्द्र उत्पन्न हो जाता है जो संसार के स्थिरता की तुलना में देह को अधिक स्थिर दर्शाता है । विचार स्मृति से और स्मृति विचार से ही उत्पन्न होती है । यहाँ हम भाषागत विचार के बारे में कह रहे हैं । विचार नामक मूर्त तत्व का स्थान और संबंध शरीर-स्थित मस्तिष्क से है, तो दूसरी ओर भावना नामक अमूर्त तत्व का स्थान और संबंध शरीर में स्थित हृदय नामक अंग से है । विचार जहाँ एक शुद्ध बौद्धिक, भौतिक और यान्त्रिक गतिविधि है, वहीं भावना बहुत भिन्न प्रकार की अनिश्चित स्वरूप की एक जीवन्त गतिविधि है, और विचार तथा भावना परस्पर एक दूसरे को एक सीमा तक प्रभावित भी करते हैं । इसलिए भावना-प्रधान मनुष्य और बुद्धि-प्रधान मनुष्य भिन्न-भिन्न प्रकार के अनुभवों, धारणाओं और सुखों-दुःखों, इच्छाओं भयों और कल्पनाओं से अभिभूत होते हैं ।
जब अपने (यथार्थ नहीं, आभासी) अस्तित्व को इन दो धरातलों पर टटोला जाता है, और तदनुसार परिभाषित करते हुए उसके बारे में कोई निष्कर्ष निकाला जाता है, जब अपने को अच्छा या बुरा, सही या गलत, कहा जाता है तो यह तो हुआ आत्म-मंथन ।
दूसरी ओर, जब अपने (आभासी नहीं, यथार्थ) अस्तित्व के बोध और बोध के अस्तित्व को उसके वास्तविक स्वरूप में समझने जाननए का प्रयास किया जाता है, तो वह होता है आत्म-चिन्तन ।
अपने अस्तित्व का बोध और अपने बोध का अस्तित्व भावना और विकार इन दो रूपों में अभिव्यक्त होता है जिसे व्यावहारिक स्तर पर व्यक्ति-विशेष के रूप में 'मैं' कहा जाता है। इसे ही आत्मा भी कहते हैं और दर्शन-शास्त्र, मनोविज्ञान इसे अपने अपने तरीके से परिभाषित करते हैं।
ध्यान योग्य बात यह है कि इस आत्मचिंतन में 'ईश्वर', 'आस्था', 'अहं (ego)' की स्वर्ग नरक, सृष्टिकर्ता, जन्म-पुनर्जन्म या कर्म के सिद्धांत की कोई आवश्यकता या भूमिका नहीं होती।
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इस अस्तित्व के बोध और बोध के अस्तित्व से कौन अनभिज्ञ है?
स्पष्ट है कि ऐसा कोई नहीं है, न हो सकता है ।
किन्तु अस्तित्व का बोध और बोध का अस्तित्व एक ही वास्तविकता के दो पहलू हैं ,जब इस सत्य को शब्द दिए जाते हैं तो ’आत्मा’ और ’संसार’ को ग्रहण किया जाता है । ’आत्मा’ का संस्कृत में तात्पर्य है जो श्वास लेता है, ’अत्’ , ’अद्’ धातु का अर्थ है खाना । इस श्वास के चलने से ही ’आत्मा’ का लौकिक रूप व्यक्त होता है । प्रश्न यह भी है कि श्वास के चलने से ’आत्मा’ का पृथक् रूप प्रकट होता है, या पृथक् रूप (शरीर) के होने से श्वास चलती है?
जो भी हो, श्वास, प्राण और अस्तित्व का बोध /बोध का अस्तित्व इन सबके परस्पर संयुक्त होने से ही एक आभासी ’आत्मा’ एक आभासी संसार में अस्तित्व में आती है । इसके साथ ही ’स्मृति’ और ’पहचान’ की भी एक आभासी निरन्तरता उत्पन्न होती है । यदि स्मृति नहीं तो पहचान नहीं, और पहचान नहीं तो स्मृति नहीं । इसलिए यह ’निरन्तरता’ अपने आप में एक कल्पना के सिवा कुछ नहीं ।
अब हम आत्म-मंथन और आत्म-चिन्तन के बारे में देखें
चूँकि हर जीव अस्तित्व के बोध और बोध के अस्तित्व से युक्त है, इसलिए ’स्मृति’ और ’पहचान’ के उत्पन्न होने के बाद अपनी एक पहचान और अपने से भिन्न एक संसार की एक पहचान बनती है । उनकी निरन्तरता की कल्पना उनके एक नित्य वस्तु की तरह अस्तित्वमान होने का भ्रम उत्पन्न करती है । यह भ्रम भी स्मृति का ही हिस्सा है । और इस भ्रम में अपने को, अर्थात् ’मै’ / ’स्व’ / आत्मा और संसार को दो भिन्न इकाइयों की तरह ग्रहण कर लिया जाता है । इस प्रकार देह में विचारों द्वारा एक कृत्रिम केन्द्र उत्पन्न हो जाता है जो संसार के स्थिरता की तुलना में देह को अधिक स्थिर दर्शाता है । विचार स्मृति से और स्मृति विचार से ही उत्पन्न होती है । यहाँ हम भाषागत विचार के बारे में कह रहे हैं । विचार नामक मूर्त तत्व का स्थान और संबंध शरीर-स्थित मस्तिष्क से है, तो दूसरी ओर भावना नामक अमूर्त तत्व का स्थान और संबंध शरीर में स्थित हृदय नामक अंग से है । विचार जहाँ एक शुद्ध बौद्धिक, भौतिक और यान्त्रिक गतिविधि है, वहीं भावना बहुत भिन्न प्रकार की अनिश्चित स्वरूप की एक जीवन्त गतिविधि है, और विचार तथा भावना परस्पर एक दूसरे को एक सीमा तक प्रभावित भी करते हैं । इसलिए भावना-प्रधान मनुष्य और बुद्धि-प्रधान मनुष्य भिन्न-भिन्न प्रकार के अनुभवों, धारणाओं और सुखों-दुःखों, इच्छाओं भयों और कल्पनाओं से अभिभूत होते हैं ।
जब अपने (यथार्थ नहीं, आभासी) अस्तित्व को इन दो धरातलों पर टटोला जाता है, और तदनुसार परिभाषित करते हुए उसके बारे में कोई निष्कर्ष निकाला जाता है, जब अपने को अच्छा या बुरा, सही या गलत, कहा जाता है तो यह तो हुआ आत्म-मंथन ।
दूसरी ओर, जब अपने (आभासी नहीं, यथार्थ) अस्तित्व के बोध और बोध के अस्तित्व को उसके वास्तविक स्वरूप में समझने जाननए का प्रयास किया जाता है, तो वह होता है आत्म-चिन्तन ।
अपने अस्तित्व का बोध और अपने बोध का अस्तित्व भावना और विकार इन दो रूपों में अभिव्यक्त होता है जिसे व्यावहारिक स्तर पर व्यक्ति-विशेष के रूप में 'मैं' कहा जाता है। इसे ही आत्मा भी कहते हैं और दर्शन-शास्त्र, मनोविज्ञान इसे अपने अपने तरीके से परिभाषित करते हैं।
ध्यान योग्य बात यह है कि इस आत्मचिंतन में 'ईश्वर', 'आस्था', 'अहं (ego)' की स्वर्ग नरक, सृष्टिकर्ता, जन्म-पुनर्जन्म या कर्म के सिद्धांत की कोई आवश्यकता या भूमिका नहीं होती।
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