मूर्ति, प्रतिमा और प्रतीक-1,
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कल एक पुलिस-अधिकारी का फोन आया । मेरे नए नए परिचित हैं और उज्जैन-दर्शन करते हुए वे मंगलनाथ जा पहुँचे । मुझे मंगलनाथ गए हुए बीस से वर्षों से भी ज्यादा समय हो चुका है । उनका एक प्रश्न था जो उन्होंने कुछ और लोगों से भी पूछा था लेकिन किसी से उन्हें सन्तोषजनक उत्तर नहीं मिल सका था । उन्का प्रश्न था :
"मंगलनाथ मन्दिर में भीतर तो शिवलिंग है, लेकिन बाहर नन्दी के स्थान पर बकरी जैसी कोई प्रतिमा है ऐसा क्यों?"
"देखिए यह प्रश्न शायद कुछ लोगों के मन में उठा होगा, वास्तव में सभी ग्रहों या देवताओं का पूजन करने के लिए उनके स्वरूप को तो शिवलिंग के रूप में ग्रहण किया जाता है, इसलिए ’मंगलेश्वर’ के रूप में मंगल ग्रह की प्रतिमा शिवलिंग के रूप में है । और जब किसी देवता की प्रतिमा मन्दिर में होती है, तो उस देवता के वाहन की प्रतिमा मन्दिर के प्रवेश-द्वार के सामने होती है । जैसे शिव-मन्दिर के सामने नन्दी, देवी मन्दिर के सामने सिंह या व्याघ्र आदि, यहाँ तक कि भगवान विष्णु के मन्दिर में गरुड़ की प्रतिमा पाई जाना स्वाभाविक है ।
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चूँकि मंगल ग्रह को मेष राशि का स्वामी कहा गया है, इसलिए मंगल का वाहन ’मेष’ अर्थात् भेड़ है । इसलिए उस मन्दिर में भीतर भगवान् मंगलनाथ विराजमान हैं और बाहर मेष / भेड़ की प्रतिमा है ।
उन्हें मेरी व्याख्या बहुत अच्छी लगी ।
इस आधार पर देखें तो सहज ही स्पष्ट हो जाता है कि पौराणिक और वैदिक देव-संस्कृति सम्पूर्ण विश्व में अत्यन्त प्राचीन काल से व्याप्त और प्रचलित भी है । भगवान् विष्णु, देवी और शिव की मूर्तियाँ, प्रतिमाएँ और प्रतीक पूरी धरती पर इतने आधिक्य से मिलते हैं कि पुरातत्वविद् भी इस तथ्य से इनकार नहीं कर सकते । ’मय’ और’ ’एज़्टेक’ तथा अटलान्टिक जैसी सभ्यताओं में इसके चिह्न तो पाए ही जाते हैं, वहीं ’मय’, ’एज़्टेक’ और ’अटलान्टिक’ तथा ’सुमेरियन’, ’असीरियन’ आदि के भी । और इन मूर्तियों, प्रतिमाओं और प्रतीकों का वर्णन विस्तार से और व्याख्या से ’इतिहास’ की शैली में पुराणों में प्राप्त होता है ।
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किन्तु प्रस्तुत 'पोस्ट' में मेरा उद्देश्य इस ओर ध्यान आकर्षित कराना है कि मूर्तियों, प्रतिमाओं, प्रतीकों और ग्रंथों में जिस प्रकार से वैदिक तथा पौराणिक अर्थात् सनातन धर्म के तत्व को प्रकट किया गया है वह भिन्न भिन्न लोगों की उस तत्व को समझने की अपनी अपनी क्षमता के अनुसार उन्हें प्राप्त होता है। इसलिए जो उन्हें संदेह की दृष्टि से देखते हैं उन्हें तो वह सब अनर्गल ही प्रतीत होगा। किन्तु जो समझना चाहते हैं वे क्रमशः ध्यान से अध्ययन करते हुए उनमें निहित आधारभूत सामञ्जस्य को जान-समझकर अपनी बुद्धि के अनुसार ग्रहण कर सकते हैं।
उपरोक्त प्रसंग में उल्लेखनीय है कि सामान्य जन का तो ध्यान ही प्रायः इस ओर नहीं जाता। जैसे उन पुलिस अधिकारी का ध्यान भेड़ की आकृति जैसी प्रतिमा की ओर गया, और उनके मन में प्रश्न उठा। शायद इसका एक कारण यह भी हो कि पुलिस-विभाग में कार्य करते करते 'सूक्ष्म निरीक्षण' करना उनकी आदत हो गया हो।
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कल एक पुलिस-अधिकारी का फोन आया । मेरे नए नए परिचित हैं और उज्जैन-दर्शन करते हुए वे मंगलनाथ जा पहुँचे । मुझे मंगलनाथ गए हुए बीस से वर्षों से भी ज्यादा समय हो चुका है । उनका एक प्रश्न था जो उन्होंने कुछ और लोगों से भी पूछा था लेकिन किसी से उन्हें सन्तोषजनक उत्तर नहीं मिल सका था । उन्का प्रश्न था :
"मंगलनाथ मन्दिर में भीतर तो शिवलिंग है, लेकिन बाहर नन्दी के स्थान पर बकरी जैसी कोई प्रतिमा है ऐसा क्यों?"
"देखिए यह प्रश्न शायद कुछ लोगों के मन में उठा होगा, वास्तव में सभी ग्रहों या देवताओं का पूजन करने के लिए उनके स्वरूप को तो शिवलिंग के रूप में ग्रहण किया जाता है, इसलिए ’मंगलेश्वर’ के रूप में मंगल ग्रह की प्रतिमा शिवलिंग के रूप में है । और जब किसी देवता की प्रतिमा मन्दिर में होती है, तो उस देवता के वाहन की प्रतिमा मन्दिर के प्रवेश-द्वार के सामने होती है । जैसे शिव-मन्दिर के सामने नन्दी, देवी मन्दिर के सामने सिंह या व्याघ्र आदि, यहाँ तक कि भगवान विष्णु के मन्दिर में गरुड़ की प्रतिमा पाई जाना स्वाभाविक है ।
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चूँकि मंगल ग्रह को मेष राशि का स्वामी कहा गया है, इसलिए मंगल का वाहन ’मेष’ अर्थात् भेड़ है । इसलिए उस मन्दिर में भीतर भगवान् मंगलनाथ विराजमान हैं और बाहर मेष / भेड़ की प्रतिमा है ।
उन्हें मेरी व्याख्या बहुत अच्छी लगी ।
इस आधार पर देखें तो सहज ही स्पष्ट हो जाता है कि पौराणिक और वैदिक देव-संस्कृति सम्पूर्ण विश्व में अत्यन्त प्राचीन काल से व्याप्त और प्रचलित भी है । भगवान् विष्णु, देवी और शिव की मूर्तियाँ, प्रतिमाएँ और प्रतीक पूरी धरती पर इतने आधिक्य से मिलते हैं कि पुरातत्वविद् भी इस तथ्य से इनकार नहीं कर सकते । ’मय’ और’ ’एज़्टेक’ तथा अटलान्टिक जैसी सभ्यताओं में इसके चिह्न तो पाए ही जाते हैं, वहीं ’मय’, ’एज़्टेक’ और ’अटलान्टिक’ तथा ’सुमेरियन’, ’असीरियन’ आदि के भी । और इन मूर्तियों, प्रतिमाओं और प्रतीकों का वर्णन विस्तार से और व्याख्या से ’इतिहास’ की शैली में पुराणों में प्राप्त होता है ।
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किन्तु प्रस्तुत 'पोस्ट' में मेरा उद्देश्य इस ओर ध्यान आकर्षित कराना है कि मूर्तियों, प्रतिमाओं, प्रतीकों और ग्रंथों में जिस प्रकार से वैदिक तथा पौराणिक अर्थात् सनातन धर्म के तत्व को प्रकट किया गया है वह भिन्न भिन्न लोगों की उस तत्व को समझने की अपनी अपनी क्षमता के अनुसार उन्हें प्राप्त होता है। इसलिए जो उन्हें संदेह की दृष्टि से देखते हैं उन्हें तो वह सब अनर्गल ही प्रतीत होगा। किन्तु जो समझना चाहते हैं वे क्रमशः ध्यान से अध्ययन करते हुए उनमें निहित आधारभूत सामञ्जस्य को जान-समझकर अपनी बुद्धि के अनुसार ग्रहण कर सकते हैं।
उपरोक्त प्रसंग में उल्लेखनीय है कि सामान्य जन का तो ध्यान ही प्रायः इस ओर नहीं जाता। जैसे उन पुलिस अधिकारी का ध्यान भेड़ की आकृति जैसी प्रतिमा की ओर गया, और उनके मन में प्रश्न उठा। शायद इसका एक कारण यह भी हो कि पुलिस-विभाग में कार्य करते करते 'सूक्ष्म निरीक्षण' करना उनकी आदत हो गया हो।
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sir men us din aap se phone per q baat kar raha tah uska ye ptyaksh pramaan .... bahut badiya
ReplyDeleteThanks for the compliments TTS, Sir!
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