Wednesday, 22 July 2015

Vedika Science -3.

Vedika Science -3.
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नारदजी कहते हैं -
अर्जुन! इन प्रश्नों का गान करते हुए मैं सारी पृथिवी पर घूमता रहा।  मुझे जो-जो ब्राह्मण मिले, उन सबने यही कहा, -'आपके इन प्रश्नों की व्याख्या बहुत कठिन है। हम तो केवल नमस्कार करते हैं।' इस प्रकार सारी पृथिवी पर घूमकर मैं लौट आया और हिमालय के शिखर पर बैठकर पुनः इस प्रकार विचार करने लगा।  'अहो! मैंने सब ब्राह्मणों को देख लिया, अब क्या करूँ ?' इसी समय मेरे मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि 'मैं अभी तक कलाप-ग्राम में तो गया ही नहीं।  वह एक उत्तम स्थान है।  जहाँ  ऐसे ब्राह्मण निवास करते हैं, जो तपस्या के मूर्तिमान स्वरूप हैं।  उनकी संख्या चौरासी हजार है।  वे सब-के-सब वेदाध्ययन से सुशोभित होते रहते हैं।  अतः उसी स्थान पर चलूँ।'
मन ही मन ऐसा निश्चय करके मैं वहाँ से चल दिया और आकाशमार्ग से वहाँ  पहुँचा  . पुण्यभूमि पर बसा हुआ वह श्रेष्ठ ग्राम सौ योजन तक फैला हुआ था।  नाना प्रकार के वृक्ष वहाँ सब ओर से छाया किए हुए थे।  अग्निहोत्र से उठा हुआ धूएँ का प्रवाह वहाँ कभी शान्त नहीं होता था।  कलापग्राम वह स्थान है, जहाँ सत्ययुग के लिए सूर्यवंश, चन्द्रवंश तथा ब्राह्मणवंश का बीज शेष और सुरक्षित है। उस स्थान पर पहुँचकर  मैंने द्विजों के आश्रमों में प्रवेश किया।  वहाँ श्रेष्ठ ब्राह्मण मधुर वाणी में अनेक प्रकार के वादों पर वार्तालाप कर रहे थे।  उस समय उस विद्वत-सभा के बीच मैंने अपनी भुजा उठाकर घोषणा की -'ब्राह्मणों ! अब आप लोग मेरे प्रश्नों का समाधान कीजिए। '
ब्राह्मण बोले - विप्रवर! आप अपना प्रश्न उपस्थित कीजिए।  यह हमारे लिए बहुत बड़ा लाभ है कि आप कोई प्रश्न पूछ रहे हैं।
वहाँ के विद्वान् ब्राह्मण 'पहले मैं उत्तर दूँगा  - पहले मैं उत्तर दूँगा' ऐसा कहकर एक-दूसरे को मना करने लगे।  तब मैंने उनके सामने अपने बारह प्रश्न उपस्थित किए।  सुनकर वे मुनीश्वर प्रश्नों को खिलवाड़ समझते हुए मुझसे कहने लगे - 'विप्रवर! आपके प्रश्न तो बालकों के से हैं। इन  छोटे-छोटे प्रश्नों से यहाँ क्या होनेवाला है?  आप हम लोगों में जिसे सबसे छोटा और ज्ञानहीन समझते हों, वही इन प्रश्नों का उत्तर दे। ' यह सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ।  मैंने अपने को कृतार्थ माना और उनमें से एक बालक को हीन समझकर कहा - यह मेरे प्रश्नों का उत्तर दे।
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नारद / nārada says :
O Arjuna!, Singing these 12 questions in this form of a song, I kept moving on the whole earth. Who-so-ever ब्राह्मण / brāhmaṇa  I could find, all admired and revered me and my song, but replied they were unable to enunciate or deduce these questions. I wandered the whole land and was sitting on the cliff of Himalaya, when this thought occurred to my mind :
"Oh! I met many ब्राह्मण / brāhmaṇa-s, but could not elicit answer to these questions. What I should do now!"
And at once I reminded myself; "I have yet to see one place, the place named 'कलाप ग्राम / kalāpa-grāma'. Its a noble place worth visiting. Where many great ascetic ब्राह्मण / brāhmaṇa-s live. They are really embodiment of austerities and penance. There are 84000 such at that place. They all great devoted scholars of veda. I shall soon go there.
Deciding this, I left for that place and through areal-route (आकाशमार्ग / ākāśamārga) arrived at the place. Habitated on the sacred land, that holy place was spread over in a diameter of 100 yojana-s. The place was well shadowed over by varied kinds of trees. The sky there was ever flooded by the sacred fumes of the ritual अग्निहोत्र धूम्र / agnihotra dhūmra that kept moving there. 'कलाप ग्राम / kalāpa-grāma' is the very place where the seeds of The सूर्यवंश, चन्द्रवंश and ब्राह्मणवंश / sūryavaṃśa, candravaṃśa and brāhmaṇavaṃśa is always preserved and kept secure for the next coming of ' सत्य-युग / satya-yuga / The era of Truth.
I entered there the hermitages of those द्विज / dvija. The noble ब्राह्मण / brāhmaṇa-s were there engaged in discussing in sweet tones, over the different kinds of thought-streams.
Raising my arm upwards, I announced there :
O  ब्राह्मण / brāhmaṇa ! Please  now deal with my questions and clear my doubts.
The  ब्राह्मण / brāhmaṇa-s said :
 "..'विप्रवर' / O vipravara! Please go ahead and present your questions."
All those learned ब्राह्मण / brāhmaṇa-s started saying 'I shall answer...' 'I shall answer'...
They stopped others to answer.
Then I presented my those 12 questions before them.
Having heard my questions they all became silent and some-one said :
"..'विप्रवर' / O vipravara! Your questions are so easy to answer even for a child among us. These petty questions have no use here. Who-so-ever in your view is the least knowing here, point out to us. He shall try to give answers to your questions.
Hearing this, I was very amazed. I felt grateful and thought one of them, a child to be the least among them, and said :
"Let him answer my questions."
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