Wednesday, 29 July 2015

Vedika Science -10.

Vedika Science -10.
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प्रश्न 6 :
किस श्रेष्ठ ब्राह्मण को आठ प्रकार के ब्राह्मणत्व का ज्ञान है?
उत्तर :
विप्रवर! अब आप ब्राह्मण के आठ भेदों का वर्णन सुनें -
मात्र, ब्राह्मण, श्रोत्रिय, अनूचान, भ्रूण, ऋषिकल्प, ऋषि, और मुनि,
ये आठ प्रकार के ब्राह्मण श्रुति में पहले बताए गए हैं ।
इनमें विद्या और सदाचार की विशेषता से पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं । जिसका जम-मात्र ब्राह्मण-कुल में हुआ है,वह जब जातिमात्र से ब्राह्मण होकर ब्राह्मणोचित उपनयन-संस्कार तथा वैदिक कर्मों से हीन रह जाता है, तब उसको ’मात्र’ ऐसा कहते हैं ।
जो एक उद्देश्य को त्यागकर-व्यक्तिगत स्वार्थ की उपेक्षा करके वैदिक आचार का पालन करता है, सरल, एकान्तप्रिय, सत्यवादी तथा दयालु है, उसे ’ब्राह्मण’ कहा गया है ।
जो वेद की किसी एक शाखा को कल्प और छः अंगोंसहित पढ़कर ब्राह्मणोचित छः कर्मों में संलग्न रहता है, वह धर्मज्ञ विप्र ’श्रोत्रिय’ कहलाता है ।
जो वेदों और वेदांगों का तत्वज्ञ, पापरहित, शुद्धचित्त, श्रेष्ठ, श्रोत्रिय विद्यार्थियों को पढ़ानेवाला और विद्वान् है, ’वह अनूचान’ माना गया है ।
जो अनूचान के समस्त गुणों से युक्त होकर केवल यज्ञ और स्वाध्याय में ही संलग्न रहता है, यज्ञशिष्ट अन्न भोजन करता है और इन्द्रियों को अपने वश में रखता है, ऐसे ब्राह्मण को ’भ्रूण’ कहते हैं ।
जो संपूर्ण वैदिक और लौकिक विषयों का ज्ञान प्राप्त करके मन और इन्द्रियों को वश में रखते हुए सदा आश्रम में निवास करता है, वह”ऋषिकल्प’ माना गया है ।
जो पहले ऊर्ध्वरेता (नैष्ठिक ब्रह्मचारी) होकर नियमित भोजन करता है, जिसको किसी भी विषय में कोई सन्देह नहीं है तथा जो शाप और अनुग्रह में समर्थ और सत्यप्रतिज्ञ है; ऐसा ब्राह्मण ’ऋषि’ माना गया है ।
जो निवृत्तिमार्ग में स्थित, संपूर्ण तत्वों का ज्ञाता, काम-क्रोध से रहित, ध्याननिष्ठ, निष्क्रिय, जितेन्द्रिय तथा मिट्टी और सुवर्ण को समान समझनेवाला है, ऐसे ब्राह्मण को ’मुनि’ कहते हैं ।
इस प्रकार वंश, विद्या और वृत्त (सदाचार) - से ऊँचे उठे हुए ब्राह्मण ’त्रिशुक्ल’ कहलाते हैं ।
वे ही यज्ञ आदि में पूजे जाते हैं ।
इस प्रकार आठ प्रकार के ब्राह्मणों का वर्णन किया गया ।*
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 *अथ ब्राह्मणभेदांस्त्वमष्टौ विप्रावधारय ॥
मात्रश्च ब्राह्मणश्चैव श्रोत्रियश्च ततः परम् ।
अनूचानस्तथा भ्रूणो ऋषिकल्प ऋषिर्मुनिः॥
इत्येतेऽष्टौ समुद्दिष्टा ब्राह्मणाः प्रथमं श्रुतौ ।
तेषां परः परः श्रेष्ठो विद्यावृत्तविशेषतः ॥
ब्राह्मणानां कुले जातो जातिमात्रो यदा भवेत् ।
अनुपेतक्रियाहीनो मात्र इत्यभिधीयते ॥
एकोद्देश्यमतिक्राम्य वेदस्याचारवानृजुः ।
स ब्राह्मण इति प्रोक्तो निभृतः सत्यवाग्घृणी ॥
एकां शाखां संकल्पां च षड्भिरङ्गैरधीत्य च ।
षट्कर्मनिरतो विप्रः श्रोत्रियो नाम धर्मवित् ॥
वेदवेदाङ्गतत्वज्ञः शुद्धात्मापापवर्जितः ।
श्रेष्ठः श्रोत्रियवान् प्राज्ञः सोऽनूचान इति स्मृतः ॥
अनूचानगुणोपेतो यज्ञस्वाध्याययन्त्रितः ।
भ्रूण इत्युच्यते शिष्टैः शेषभोजी जितेन्द्रियः ॥
वैदिकं लौकिकं चैव सर्वज्ञानमवाप्य यः ।
आश्रमस्थो वशी नित्यमृषिकल्प इति स्मृतः ॥
ऊर्ध्वरेता भवत्यग्रे नियताशी न संशयी ।
शापानुग्रहयोः शक्तः सत्यसन्धो भवेदृषिः ॥
निवृइत्तः सर्वतत्वज्ञः कामक्रोधविवर्जितः ।
ध्यानस्थो निष्क्रियो दान्तस्तुल्यमृत्काञ्चनो मुनिः ॥
एवमन्वयविद्याभ्यां वृत्तेन च समुच्छ्रिताः ।
त्रिशुक्ला नाम विप्रेन्द्राः पूज्यन्ते सवनादिषुः ॥
(स्कन्दपुराण, माहेश्वर-कुमारिकाखण्ड, 3- 287....298)
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Vedika Science -10.
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Q.6:Who could be said to be such a great brāhmaṇa, that knows the 8 kinds of brāhmaṇa-hood, in superior order respectively from the lowest to the highest?
Answer : O Great brāhmaṇa! Now listen the 8 distinctions between the brāhmaṇa-s according to which they are said less or more qualified and superior.
According to Veda, these are respectively as follows:
1.mātra, 2.brāhmaṇa, 3.śrotriya, 4. anūcāna, 5.bhrūṇa, 6.ṛṣikalpa  7.ṛṣi and muni.
1.A mātra is one who is though born in a brāhmaṇa family, but has not been initiated in the process of  becoming a brāhmaṇa by performing the necessary rituals.
2. A brāhmaṇa is one, who without fixing a goal, just selflessly follows the way of vedika discipline. Such a one is of simple mind, loves to live alone, truth-speaking, and kind-heart.
3.One who alongwith 'kalpa' and the six components their-of, learns one branch of veda, is called śrotriya.
4.anūcāna is one, who has a deep knowledge of veda and secondary texts of veda, who is sinless, of pure mind, who teaches śrotriya-pupils.
5. One who has all the qualities of  anūcāna, but is enhgaged in study alone, feeds on the food left-over of sacrifices, and keeps the senses in control is known as 'bhrūṇa' (the literal meaning of this word is embryo).
6.One who has full control over his mind and senses and keeping the attention focused on the 'brahman / ब्रह्म'  follows the discipline of 'ब्रह्मचर्य' with determination. Lives in hermitage, Such a one is called ṛṣikalpa.
7. One who is moderate in food, and has no more doubts regarding the nature of Self / 'brahman', who is capable of granting boons and condemnations and sways away not from truth. Such a brāhmaṇa is termed ṛṣi
8. And lastly, One who has discarded the world, who knows all, free from desire and anger, abiding in meditation, indulging not in action, having control over the senses, and treats the dust and gold alike, such a noble brāhmaṇa is called 'muni'.
All such in fact who have in fact liberated, are called 'triśukla'.
They alone deserve to be offered worship in vedika sacrifices.
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*atha brāhmaṇabhedāṃstvamaṣṭau viprāvadhāraya ||
mātraśca brāhmaṇaścaiva śrotriyaśca tataḥ param |
anūcānastathā bhrūṇo ṛṣikalpa ṛṣirmuniḥ||
ityete:'ṣṭau samuddiṣṭā brāhmaṇāḥ prathamaṃ śrutau |
teṣāṃ paraḥ paraḥ śreṣṭho vidyāvṛttaviśeṣataḥ ||
brāhmaṇānāṃ kule jāto jātimātro yadā bhavet |
anupetakriyāhīno mātra ityabhidhīyate ||
ekoddeśyamatikrāmya vedasyācāravānṛjuḥ |
sa brāhmaṇa iti prokto nibhṛtaḥ satyavāgghṛṇī ||
ekāṃ śākhāṃ saṃkalpāṃ ca ṣaḍbhiraṅgairadhītya ca |
ṣaṭkarmanirato vipraḥ śrotriyo nāma dharmavit ||
vedavedāṅgatatvajñaḥ śuddhātmāpāpavarjitaḥ |
śreṣṭhaḥ śrotriyavān prājñaḥ so:'nūcāna iti smṛtaḥ ||
anūcānaguṇopeto yajñasvādhyāyayantritaḥ |
bhrūṇa ityucyate śiṣṭaiḥ śeṣabhojī jitendriyaḥ ||
vaidikaṃ laukikaṃ caiva sarvajñānamavāpya yaḥ |
āśramastho vaśī nityamṛṣikalpa iti smṛtaḥ ||
ūrdhvaretā bhavatyagre niyatāśī na saṃśayī |
śāpānugrahayoḥ śaktaḥ satyasandho bhavedṛṣiḥ ||
nivṛittaḥ sarvatatvajñaḥ kāmakrodhavivarjitaḥ |
dhyānastho niṣkriyo dāntastulyamṛtkāñcano muniḥ ||
evamanvayavidyābhyāṃ vṛttena ca samucchritāḥ |
triśuklā nāma viprendrāḥ pūjyante savanādiṣuḥ ||
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(skandapurāṇa, māheśvara-kumārikākhaṇḍa, 3- 287....298)
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