वेद या / और पुराण
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महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी की एक ही पुस्तक ’सत्यार्थ-प्रकाश’ मैं ने बचपन में अनेकों बार पढ़ी थी । एक कारण तो यह था कि उनकी दूसरी पुस्तकें मुझे पढ़ने को नहीं मिल पाईं , दूसरा यह भी कि मुझे वेदों और पुराणों के बारे में मेरी जानकारी कम थी (और आज भी बहुत कम है!) किन्तु पिछले चालीस वर्षों से मैं जो अध्ययन करता रहा (अभी मेरी अवस्था लगभग 60 वर्ष है), उसके आधार पर दावे से कह सकता हूँ कि हिन्दू धर्म में जिसकी भी रुचि है उसे पहले ’पुराणों’ को समझना होगा । और यह ’समझना’ बुद्धिजीवियों द्वारा किए गए अध्ययनों और उपदेशों के माध्यम से नहीं, बल्कि प्रत्यक्ष स्वयं ही करना होगा ।
न तो वेद और न पुराण किसी बहस के पक्ष में हैं । वे जिन्हें रुचि हो उनसे केवल और केवल ’श्रवण’ और ’पाठ’ करने के लिए कहते हैं । स्वाभाविक है कि ’पाठ’ वे ही करेंगे जिनकी उन पर स्वाभाविक श्रद्धा हो । वेद और पुराण तो श्रद्धा रखने का आग्रह तक नहीं करते । वे तो स्पष्ट कहते हैं कि अश्रद्धायुक्त होकर किए गए ’पठन’ / ’श्रवण’ का कोई फल प्राप्त नहीं होता ।
किन्तु जहाँ वेद ’अपात्र’ के लिए निषिद्ध कहे गए हैं, वहीं पुराण के लिए सभी पात्र हो सकते हैं हाँ चित्त में संशय भी न हो । बिना किसी जानकारी के किसी की सत्यता पर संशय करना तो पूर्वाग्रह ही होगा ।
’पुराणों’ को पढ़ने या सुनने के बाद शायद यह समझा जा सकेगा कि क्या हमें सचमुच उनकी आवश्यकता है भी या नहीं?
यदि नहीं है, तो बात यहीं समाप्त हो जाती है ।
वेद और पुराण की शैली जिस प्रकार की है, वह प्रत्येक मनुष्य के अपने मन की बनावट के अनुसार उसे प्रभावित करती है । हिन्दी या किन्हीं दूसरी भाषाओं में पुराणों का तो ’अनुवाद’ किसी सीमा तक संभव है किन्तु ’वेद’ का अनुवाद कदापि संभव नहीं है । क्योंकि वेद की भाषा स्वयं ही अपना (वेदनिहित तत्व का) वर्णन है । वेद का विषय कोई भौतिक विषय नहीं है जिसे हम मनुष्यनिर्मित किसी भाषा में अनुवादित कर सकें ।
दूसरी ओर पुराण देवता-तत्व और उसके मनुष्य और जगत् से संबंध की विस्तृत पूर्णतः ’गणितीय आधार’ पर आधारित व्याख्या है ।
वेद और पुराण तथा उनके अनुषङ्गी ग्रन्थ (गीता, रामायण, महाभारत, और योग, वेदान्त-ग्रन्थ) धर्म और अधर्म की विवेचना भर करते हैं वे धर्म और अधर्म के आचरण से प्राप्त होनेवाले परिणामों की ओर हमारा ध्यान दिलाते हैं और वस्तुतः कोई आदेश नहीं देते । वे यह हम पर ही छोड़ देते हैं कि हम क्या करें क्या न करें।
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महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी की एक ही पुस्तक ’सत्यार्थ-प्रकाश’ मैं ने बचपन में अनेकों बार पढ़ी थी । एक कारण तो यह था कि उनकी दूसरी पुस्तकें मुझे पढ़ने को नहीं मिल पाईं , दूसरा यह भी कि मुझे वेदों और पुराणों के बारे में मेरी जानकारी कम थी (और आज भी बहुत कम है!) किन्तु पिछले चालीस वर्षों से मैं जो अध्ययन करता रहा (अभी मेरी अवस्था लगभग 60 वर्ष है), उसके आधार पर दावे से कह सकता हूँ कि हिन्दू धर्म में जिसकी भी रुचि है उसे पहले ’पुराणों’ को समझना होगा । और यह ’समझना’ बुद्धिजीवियों द्वारा किए गए अध्ययनों और उपदेशों के माध्यम से नहीं, बल्कि प्रत्यक्ष स्वयं ही करना होगा ।
न तो वेद और न पुराण किसी बहस के पक्ष में हैं । वे जिन्हें रुचि हो उनसे केवल और केवल ’श्रवण’ और ’पाठ’ करने के लिए कहते हैं । स्वाभाविक है कि ’पाठ’ वे ही करेंगे जिनकी उन पर स्वाभाविक श्रद्धा हो । वेद और पुराण तो श्रद्धा रखने का आग्रह तक नहीं करते । वे तो स्पष्ट कहते हैं कि अश्रद्धायुक्त होकर किए गए ’पठन’ / ’श्रवण’ का कोई फल प्राप्त नहीं होता ।
किन्तु जहाँ वेद ’अपात्र’ के लिए निषिद्ध कहे गए हैं, वहीं पुराण के लिए सभी पात्र हो सकते हैं हाँ चित्त में संशय भी न हो । बिना किसी जानकारी के किसी की सत्यता पर संशय करना तो पूर्वाग्रह ही होगा ।
’पुराणों’ को पढ़ने या सुनने के बाद शायद यह समझा जा सकेगा कि क्या हमें सचमुच उनकी आवश्यकता है भी या नहीं?
यदि नहीं है, तो बात यहीं समाप्त हो जाती है ।
वेद और पुराण की शैली जिस प्रकार की है, वह प्रत्येक मनुष्य के अपने मन की बनावट के अनुसार उसे प्रभावित करती है । हिन्दी या किन्हीं दूसरी भाषाओं में पुराणों का तो ’अनुवाद’ किसी सीमा तक संभव है किन्तु ’वेद’ का अनुवाद कदापि संभव नहीं है । क्योंकि वेद की भाषा स्वयं ही अपना (वेदनिहित तत्व का) वर्णन है । वेद का विषय कोई भौतिक विषय नहीं है जिसे हम मनुष्यनिर्मित किसी भाषा में अनुवादित कर सकें ।
दूसरी ओर पुराण देवता-तत्व और उसके मनुष्य और जगत् से संबंध की विस्तृत पूर्णतः ’गणितीय आधार’ पर आधारित व्याख्या है ।
वेद और पुराण तथा उनके अनुषङ्गी ग्रन्थ (गीता, रामायण, महाभारत, और योग, वेदान्त-ग्रन्थ) धर्म और अधर्म की विवेचना भर करते हैं वे धर्म और अधर्म के आचरण से प्राप्त होनेवाले परिणामों की ओर हमारा ध्यान दिलाते हैं और वस्तुतः कोई आदेश नहीं देते । वे यह हम पर ही छोड़ देते हैं कि हम क्या करें क्या न करें।
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