Vedika Science -6.
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पिता बोले - ’वत्स! तू तो आज बड़ी विचित्र बात कहता है । मातृका में तूने किस ज्ञातव्य अर्थ का ज्ञान प्राप्त किया है? बता, बता । मैं तेरी बात फिर सुनना चाहता हूँ ।
पुत्र् ने कहा - ’पिताजी! आपने इकतीस हजार वर्षों तक नाना प्रकार के तर्कों का अध्ययन करते हुए भी अपने मन में केवल भ्रम का ही साधन किया है । ’यह धर्म है, यह धर्म है’ ऐसा कहकर शास्त्रों में जो धर्म बताया गया है, उसमें चित्त भ्रान्त-सा हो जाता है । आप उपदेश को केवल पढ़ते हैं । उसके वास्तविक अर्थ की जानकारी नहीं रखते । जो ब्राह्मण केवल पाठमात्र करते हैं, अर्थ नहीं समझते, वे दो पैरवाले पशु हैं । अतः मैं आपसे मोहनाशक वचन सुनाता हूँ । अकार ब्रह्मा कहे गये हैं, भगवान् विष्णु उकार बतलाये गये हैं, मकार को भगवान् महेश्वर का प्रतीक माना गया है । ये तीनों गुणमय स्वरूप बताये गये हैं, ॐकार के मस्तक पर जो अनुस्वाररूप अर्द्धमात्रा है, वह सर्वोत्कृष्ट भगवान् सदाशिव का प्रतीक है ।
(अकारः कथितो ब्रह्मा उकारो विष्णुरुच्यते । मकारश्च स्मृतो रुद्रस्त्रयश्चैते गुणाः स्मृताः ॥
अर्द्धमात्रा च या मूर्ध्नि परमः स सदाशिवः ।)
(स्कन्दपुराण, माहेश्वरखण्ड-कुमारिकाखण्ड, 3-251, 3-252)
यह है ॐकार की महिमा, जिसका वर्णन कोटि-कोटि ग्रन्थों द्वारा दस हजार वर्षों में भी नहीं किया जा सकता ।
पुनः जो मातृका का सारसर्वस्व बताया गया है, उसे सुनिए ।
अकार से लेकर औकार तक जो चौदह स्वर [अ आ इ ई उ ऊ ऋ ॠ लृ लॄ ए ऐ ओ औ] हैं,
वे चौदह मनुस्वरूप हैं । स्वायम्भुव, स्वारोचिष, औत्तम, रैवत, तामस, छठे चाक्षुष, सातवें वैवस्वत-जो इस समय वर्तमान हैं, सावर्णि, ब्रह्मसावर्णि, रुद्रसावर्णि, दक्षसावर्णि, धर्मसावर्णि, रौच्य तथा भौत्य - ये चौदह मनु हैं । श्वेत, पाण्डु, लोहित, ताम्र, पीत, कपिल, कृष्ण, श्याम, धूम्र, अधिक पिंगल, थोड़ा पिंगल, तिरंगा, बहुरंगा तथा कबरा - ये क्रमशः चौदह मनुओं के रंग हैं । पिताजी! वैवस्वत मनु ऋकारस्वरूप हैं उनका रंग काला बतलाया जाता है ।
’क’ से लेकर ’ह’ तक तैंतीस देवता हैं । ’क’ से लेकर ’ठ’ तक तो बारह आदित्य माने गये हैं ।
धाता मित्रोऽर्यमा शक्रो वरुणश्चांशुरेव च ।
भगो विवस्वान् पूषा च सविता दशमस्तथा ॥
एकादशस्तथात्वष्ठा विष्णुर्द्वादश उच्यते ।
जघन्यजः स सर्वेषामादित्यानां गुणाधिकः ॥
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’ड’ से लेकर ’ब’ तक जो अक्षर हैं वे ग्यारह रुद्र -
कपाली पिङ्गलो भीमो विरूपाक्षो विलोहितः ।
अजकः शासनः शास्ता शम्भुष्चण्डो भवस्तथा ॥
क्रमशः कपाली, पिंगल, भीम, विरूपाक्ष, विलोहित, अजक, शासन, शास्ता, शम्भु, चण्ड एवं भव हैं ।
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’भ’ से लेकर ’ष’ तक आठ वसु -
ध्रुवो घोरश्च सोमश्च आपश्चैव नलोऽनिलः ।
प्रत्यूषश्च प्रभासश्च अश्टौ ते वसवः स्मृताः ॥
आठ वसु क्रमशः ध्रुव, घोर, सोम, आपा, नल, अनिल, प्रत्य़ुष, प्रभास माने गये हैं ।
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’स’ और ’ह’ - ये दोनों अश्विनीकुमार बताये गये हैं ।
इस प्रकार ये तैंतीस देवता कहे जाते हैं ।
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पिताजी! अनुस्वार, विसर्ग, जिह्वामूलीय और उपध्मानीय - ये चार अक्षर जरायुज, अण्डज, स्वेदज, और उद्भिज्ज नामक चार प्रकार के जीव बताये गए हैं ।
[औकारान्ता अकाराद्या मनवस्ते चतुर्दश ।
स्वायम्भुवश्च स्वारौच्रौत्तमो रैवतस्तथा ॥
तामसश्च षष्ठस्तथा वैवस्वतोऽधुना ।
सावर्णि ब्रह्मसावर्णि रुद्रसावर्णिरेव वा ॥
दक्षसावर्णिरेवापि धर्मसावर्णिरेव च ।
रौच्यो भौत्यस्तथैवापि मनवोऽमी चतुर्दश ॥
श्वेतः पाण्डुस्तथा रक्तस्ताम्रः पीतश्च कापिलः ।
कृष्णः श्यामस्तथा धूम्रः सुपिशङ्गः पिशङ्गकः ॥
त्रिवर्णः शवलो वर्णैः कर्बुरश्च इति क्रमात् ।
वैवस्वत ऋकारश्च तात कृष्णः प्रपठ्यते ॥
ककाराद्या हकारान्तास्त्रयंस्त्रिंशच्च देवताः ।
ककाराद्याष्ठकारान्ता आदित्या द्वादश स्मृताः ।
डकाराध्या वकारान्ता रूद्राश्चैकादशैव ते ।
भकाराद्याः षकारान्ता अष्टौ हि वसवो मताः ।
सहौ चेत्यश्विनौ ख्यातौ त्रयस्त्रिंशदिति स्मृताः ।
अनुस्वारो विसर्गश्च जिह्वामूलीय एव च ।
उपध्मानीय इत्येते जरायुजास्तथाऽण्डजाः ॥
स्वेदजाश्चोद्भिज्जाश्चापि पितर्जीवाः प्रकीर्तिताः ॥
(स्कन्द पुराण, माहेश्वर-कुमारिका खण्ड 3-254...262.)]
पिताजी! यह भावार्थ बताया गया है । अब तत्वार्थ सुनिये । जो पुरुष इन देवताओं का आश्रय लेकर कर्मानुष्ठान में तत्पर होते हैं, वे ही अर्द्धमात्रास्वरूप नित्यपद (सदाशिव) - में लीन होते हैं । चार प्रकार के जीवों में से कोई भी जब मन, वाणी और क्रिया द्वारा इन देवताओं का भजन करता है, तभी उसे मुक्ति प्राप्त होती है । जिस शास्त्र में पापी मनुष्यों के द्वारा ये देवता नहीं माने गये हैं, उस शास्त्र को यदि साक्षात् ब्रह्माजी भी कहें तो नहीं मानना चाहिए । ये सब देवता वैदिक मार्ग में प्रतिष्ठित हैं । अतः जो दुरात्मा इन देवताओं का उल्लंघन करके तप, दान अथवा जप करते हैं, वे वायुप्रधानमार्ग में जाकर सर्दी से काँपते रहते हैं । अहो! अजितेन्द्रिय मनुष्यों के मोह की महिमा तो देखो । वे पापी मातृका पढ़ते हैं परंतु इन देवताओं को नहीं मानते ।
सुतनु कहते हैं -
पुत्र की यह बात सुनकर पिता को बड़ा विस्मय हुआ । उन्होंने और भी बहुत से प्रश्न पूछे । पुत्र ने भी उनके प्रश्नों के अनुसार ठीक-ठीक उत्तर दिया । मुने! मैंने भी उसी प्रकार तुम्हारे मातृकासम्बन्धी उत्तम प्रश्न का समाधान किया है ।
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Father said-
"O my child! Today,you are speaking wonderful words!
What is there such a great thing worth-knowing in the 'Matrix of letters' / मातृका / that you are speaking of? Tell me quickly! I want to hear again.
The son replied :
O Father!Though studying continuously for 31000 years, you have cultivated only confusion. When one reads again and again the words repeatedly through what has been stated in the scriptures as 'This is dharma', 'This is dharma'... the mind gets more and more confused only. You only read those instructions as if they were mere verbal expressions. You don't try to find out the real meaning of those words. The ब्राह्मण / brāhmaṇa who just recite the words but don't understand the inherent meaning are like animals with two legs. Let me enlighten you so that your delusion could be dispelled.
akāraḥ > the alphabet अ / a denotes brahmā,
ukāro > the alphabet उ / u denotes viṣṇu,
and, the alphabet :
makāra > म /ma denotes rudra.
These 3 are the guṇāḥ (attributes of
प्रकृति / prakṛti...)
respectively.
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(akāraḥ kathito brahmā ukāro viṣṇurucyate | makāraśca smṛto rudrastrayaścaite guṇāḥ smṛtāḥ ||
arddhamātrā ca yā mūrdhni paramaḥ sa sadāśivaḥ |)
(skandapurāṇa, māheśvarakhaṇḍa-kumārikākhaṇḍa, 3-251, 3-252)
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The अनुस्वार / anusvāra, in the ॐकार / om̐kāra denotes the Supreme Principle Lord sadāśiva. This is the glory and purport of ॐकार / om̐kāra.
Again, The essence of the Matrix / मातृका / mātṛkā is further elaborated as under:
The vowels
a ā i ī u ū ṛ r̥̄ lṛ lr̥̄ e ai o to au /
अ आ इ ई उ ऊ ऋ ॠ लृ लॄ ए ऐ ओ औ respectively denote 14 'Manu' the foremost ancestor of human-kind. They are known as
svāyambhuva, svārociṣa,
auttama,
raivata,
tāmasa,
the sixth - cākṣuṣa,
the seventh - vaivasvata -of the present current times.,
sāvarṇi,
brahmasāvarṇi,
rudrasāvarṇi,
dakṣasāvarṇi,
dharmasāvarṇi,
raucya and bhautya.
These are the 14 manu
Again śveta (white),
pāṇḍu (dull white),
lohita (reddish),
tāmra (coppery),
pīta (cream),
kapila (grey / brown),
kṛṣṇa (pitch-black),
śyāma (light-black),
dhūmra (smoke-black),
adhika piṃgala (dark-pink),
piṃgala (light-pink),
tiraṃgā (tri-color),
bahuraṃgā (multi-color),
and kabarā (mixed grey),
are the respective colors of those 14 manu enumerated above.
Father!
वैवस्वत / vaivasvata manu is of the kind of ऋकार ṛkārasvarūpa He is of black color.
These are the 33 'devatā’ in all.
’ba’ taka jo akṣara haiṃ ve gyāraha rudra haiṃ | ’bha’ se lekara ’ṣa’ taka āṭha vasu māne gaye haiṃ |’sa’ aura ’ha’ - ye donoṃ aśvinīkumāra batāye gaye haiṃ |
isa prakāra ye taiṃtīsa devatā kahe jāte haiṃ |
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Again, of these 33,
the 12 आदित्य / āditya from the letter 'ka' toTha' are the following :
dhātā mitro:'ryamā śakro varuṇaścāṃśureva ca |
bhago vivasvān pūṣā ca savitā daśamastathā ||
ekādaśastathātvaṣṭhā viṣṇurdvādaśa ucyate |
jaghanyajaḥ sa sarveṣāmādityānāṃ guṇādhikaḥ ||
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The 11 rudra from the letter 'D' to 'ba' are :
kapālī piṅgalo bhīmo virūpākṣo vilohitaḥ |
ajakaḥ śāsanaḥ śāstā śambhuṣcaṇḍo bhavastathā ||
kapālī, piṃgala, bhīma, virūpākṣa, vilohita, ajaka, śāsana, śāstā, śambhu, caṇḍa evaṃ bhava haiṃ
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The 8 'vasu' from the letter 'bh' to ’ṣa’ are :
dhruvo ghoraśca somaśca āpaścaiva nalo:'nilaḥ |
pratyūṣaśca prabhāsaśca aśṭau te vasavaḥ smṛtāḥ ||
āṭha vasu kramaśaḥ dhruva, ghora, soma, āpā, nala, anila, pratẏuṣa, prabhāsa
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anusvāra, visarga, jihvāmūlīya aura upadhmānīya
- these four letters denote :
जरायुज / jarāyuja , > born of womb,
अण्डज / aṇḍaja, > born of egg,
स्वेदज / svedaja, > born of sweat,
and उद्भिज्ज / udbhijja > born of water respectively.
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[aukārāntā akārādyā manavaste caturdaśa |
svāyambhuvaśca svāraucrauttamo raivatastathā ||
tāmasaśca ṣaṣṭhastathā vaivasvato:'dhunā |
sāvarṇi brahmasāvarṇi rudrasāvarṇireva vā ||
dakṣasāvarṇirevāpi dharmasāvarṇireva ca |
raucyo bhautyastathaivāpi manavo:'mī caturdaśa ||
śvetaḥ pāṇḍustathā raktastāmraḥ pītaśca kāpilaḥ |
kṛṣṇaḥ śyāmastathā dhūmraḥ supiśaṅgaḥ piśaṅgakaḥ ||
trivarṇaḥ śavalo varṇaiḥ karburaśca iti kramāt |
vaivasvata ṛkāraśca tāta kṛṣṇaḥ prapaṭhyate ||
kakārādyā hakārāntāstrayaṃstriṃśacca devatāḥ |
kakārādyāṣṭhakārāntā ādityā dvādaśa smṛtāḥ |
ḍakārādhyā vakārāntā rūdrāścaikādaśaiva te |
bhakārādyāḥ ṣakārāntā aṣṭau hi vasavo matāḥ |
sahau cetyaśvinau khyātau trayastriṃśaditi smṛtāḥ |
anusvāro visargaśca jihvāmūlīya eva ca |
upadhmānīya ityete jarāyujāstathā:'ṇḍajāḥ ||
svedajāścodbhijjāścāpi pitarjīvāḥ prakīrtitāḥ ||
(skanda purāṇa, māheśvara-kumārikā khaṇḍa 3-254...262.)]
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The son said :
O Father, I thus explained the general meaning of the Matrix.
Now listen from me the essential meaning that helps one to attain the Supreme meaning of life, liberation. Only those people who take to the devotion of The Lord Supreme by accepting the grace of these 33 devatā and offering worship to them through mind, voice and action attain the Lord's Grace and Liberation. While the scriptures which deny these devatā are to be shunned even if recommended by Lord brahmā. These devatā are the only authority established and accepted in the way of Veda. Those who denounce and deny them, all their sacrifice, austerities or chanting of mantras is of no avail and they keep shivering in the cold of their airy way of action.
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Oh! Look at the pride of the deluded men! They though read the Matrix, but at the same time refuse to adore the divine authorities that govern the Matrix.
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