ब्लॉग में दो तीन दिन पहले एक पोस्ट लिखा था :
"The Scriptures".
उसका सन्दर्भ आदि शंकराचार्य विरचित विवेकचूडामणि के इस श्लोक में पाया जा सकता है :
अविज्ञाते परे तत्त्वे शास्त्राधीतिस्तु निष्फला।
विज्ञातेऽपि परे तत्त्वे शास्त्राधीतिस्तु निष्फला।। ५९
तात्पर्य यह है कि यदि परम तत्त्व का साक्षात्कार नहीं हुआ है, तो (उसके लिए) शास्त्रों का अध्ययन करना निरर्थक है, और यदि परम तत्त्व का साक्षात्कार हो चुका है, तो फिर उसके बाद भी शास्त्रों का अध्ययन वृथा ही है।
उपरोक्त पोस्ट में मैंने शास्त्रों के विभिन्न प्रकारों का वर्णन कुछ इस तरह से किया था :
1. Descriptive
2. Instructive
3. Narrative
4. Cryptic
5. Mystic
6. Historical
मैंने उसमें इनके अतिरिक्त दो और प्रकार
Philosophical, Literary
भी लिखे थे ।
इसे हिन्दी में क्रमशः कुछ ऐसे कहा जा सकता है :
1. वर्णनात्मक
2. शिक्षात्मक
3. विवरणात्मक
4. जटिल
5. रहस्यात्मक / गूढ
6. ऐतिहासिक
तथा दार्शनिक एवं साहित्यिक।
वर्णनात्मक और शिक्षात्मक दोनों के अन्तर्गत निगम एवं आगम आते हैं। इनमें किसी वस्तु या विषय की जानकारी दी जाती है। वह विषय कर्मकाण्ड, ज्ञानकाण्ड या मीमांसा हो सकता है। कर्मकाण्ड के अन्तर्गत योग, कर्म, भक्ति आदि या पदार्थ-शास्त्र भी हो सकता है।
ज्ञानकाण्ड के अन्तर्गत सांख्य दर्शन आता है।
विवरणात्मक के अंतर्गत षट्दर्शन और तंत्र-सिद्धान्त आदि आते हैं।
उस पोस्ट का प्रारंभ ही हमारे युग के एक सुप्रसिद्घ वक्ता के इस उद्धरण : "The Description is not the Described."
से किया था।
वास्तव में यह वचन भी श्री शङ्कराचार्य के उस श्लोक की ही प्रतिध्वनि है, जिसे अभी-अभी यहाँ उद्धृत कर चुका हूँ।
अपने उस अंग्रेजी ब्लॉग में, और इस ब्लॉग में भी काल-स्थान, गणित, विज्ञान तथा क्वान्टम सिद्धान्त आदि की मर्यादा के बारे में, लिख चुका हूँ।
इस पोस्ट से पहले जो पोस्ट "दो ध्रुव" लिखा, उसके दूसरे भाग में श्वेताश्वतरोपनिषद् के छठे अध्याय का सन्दर्भ देने से अपने आप को नहीं रोक सका।
जैसा कि इस अध्याय के प्रथम श्लोक में कहा गया है :
स्वभावमेके कवयो वदन्ति
कालं तथान्ये परिमुह्यमानाः ।
से स्पष्ट है कि जिस "काल" की माप-जोख भौतिक-विज्ञान के
शास्त्रज्ञ करते हैं, वह वही काल है जिसे गीता में :
"कालः कलयतामहम्।"
(अध्याय १०)
के माध्यम से भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है, और इसी गीताशास्त्र में भगवान् श्रीकृष्ण ने ही यह भी कहा है :
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ।।१६
(अध्याय ४)
शिवाथर्वशीर्षम् में काल का वर्णन इस रूप में किया जाता है :
"अक्षरात्संजायते कालो कालाद् व्यापकः उच्यते व्यापको हि भगवान्रुद्रो भोगायमानो...
यदा शेते रुद्रो संहरति प्रजाः।।
इस प्रकार सृष्टि और प्रलय का तात्पर्य निर्माण और विनाश नहीं, बल्कि जगत का अव्यक्त से व्यक्त रूप में प्रकट होना, और पुनः व्यक्त से अव्यक्त में विलीन होना मात्र है।
सभी दृष्टियों से काल-स्थान की स्वतंत्र सत्ता है ही नहीं, काल तो केवल कलनात्मक, अनुमानपरक है।
vinayvaidya ब्लॉग में ही Quantum शीर्षक पोस्ट में यही स्पष्ट किया है, कि विचार ही Quantum-movement है, और ऐसा क्यों है, इस विषय में आज के भौतिकीविदों के तमाम काल्पनिक संदेहों का निवारण भी कर दिया है, जहाँ आप David Bohm, Heisenberg, Schrodinger आदि का उल्लेख देख सकते हैं।
तात्पर्य यह कि आज के विज्ञान का प्रारंभ ही मूलतः गलत अवधारणाओं से हुआ है, और इसी प्रकार
Philosophy, Psychology, Medical Science, Religion, Linguistics, Philology, Literature, Art, Music आदि का भी।
इसका अर्थ यह नहीं कि वह संपूर्णतः ही गलत है, इसका अर्थ केवल इतना है कि उनके प्रारंभ में ही कोई न कोई त्रुटि है।
जहाँ तक तकनीक (तक्ष / तज्ञ) / technique का प्रश्न है, वह अवश्य ही युक्तिसंगत है।
इसके मूल में भी यही कारण है, कि अब्राहमिक रिलीजन (न कि धर्म) के तीनों मत (cults) सनातन-धर्म-विरोधी हैं। उनकी यह द्वेष-बुद्धि ही उनकी उन्नति में बाधक है, इस सच्चाई को देख न पाने से ही वे अपने ही जाल में फँस हुए हैं। सनातन-धर्म इसके विपरीत धर्म को प्राणिमात्र की शरण और स्वभाव मानते हुए किसी से भी द्वेष नहीं करता -"मा विद्विषावहै।" से ही तो उसके दर्शन का आरंभ होता है और वह इस प्रकार से सहिष्णुतापूर्वक प्रत्येक को आश्रय प्रदान करता है ।
किस भाषा से किस भाषा की उत्पत्ति हुई इस विषय में वे सतत अनुसंधान करते दिखाई देते हैं और यह स्थापित करने की चेष्टा करता हैं, कि संस्कृत एवं लैटिन दोनों भाषाओं का उद्भव किसी तीसरी प्राचीन भाषा से हुआ है। ऐसे ही एक 'भाषाविद' ने तो उस भाषा का प्रारूप भी बना डाला है, ताकि इस मत की पुष्टि हो सके।
वे देवी अथर्वशीर्ष का उल्लेख भी नहीं करना चाहते जो भाषाओं के उद्गम के बारे में कहता है!
धर्म के लिए उसका अंग्रेजी अनुवाद 'रिलीजन' शब्द से करते हुए इस तथ्य को कूड़े में डाल दिया गया, कि धर्म संप्रदाय या मत नहीं उससे भिन्न कोई आत्यंतिक तत्व है।
इस प्रकार हिन्दू, मुस्लिम, सिख, जैन, बौद्ध, ईसाई, कैथोलिक, पारसी, यहूदी, आदि cults / sects को धर्म कहकर केवल भ्रान्ति ही फैलाई जा रही है।
यह क्रम अभी भी निरंतर चल रहा है।
धर्म या सनातन-धर्म में अपने स्वाभाविक धर्म का अनुष्ठान करने को ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना गया है, इसके लिए आवश्यक है कि हर मनुष्य 'अपना धर्म क्या है?' इसकी खोज खुद ही करे, -न कि परंपरा से प्राप्त संप्रदाय-मत (cult / sect / religion) को धर्म कह कर एक दूसरे को भय या प्रलोभन के माध्यम से प्रभावित करते हुए अपने संप्रदाय में मतान्तरित करे।
गीता में यही कहा गया है :
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।। ३५
(अध्याय ३)
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।। ४७
(अध्याय १८)
पुनः गीता में ही वर्णाश्रम धर्म को ही धर्म कहा है, जिसका सृजन स्वयं परमेश्वर ने ही किया है :
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धि विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ।। १३
(अध्याय ४)
इस दृष्टि से भी यही प्रमाणित होता है, कि सनातन-धर्म भी एकेश्वरवादी है। नास्तिकों और अब्राहमिक मत को माननेवालों ने एकेश्वरवाद के लिए mono-theism शब्द चुना और इस तथ्य को हमारी दृष्टि से ओझल कर दिया कि सनातन-धर्म के वेद एवं अन्य ग्रन्थ बहुदेववाद (polytheism) के ही सन्दर्भ में उनके और जगत के एक ही स्वामी ईश्वर को एकमेव परम सत्ता मानते हैं ।
इसी एकमेव परम सत्ता 'ईश्वर' के उपाधि के अनुसार देवता रूपी असंख्य भेद हैं ।
वही ईश्वर कर्ता की तरह, प्रकृति के गुण-कर्मों के आधार पर सभी का के जीवन का विधाता है। गुण-कर्मों के ही कारण हर मनुष्य की प्रकृति और इसलिए उसका वर्ण भी दूसरे मनुष्यों से भिन्न होता है।
इस प्रकार सभी मनुष्य मूलतः इन्हीं चार वर्णों में उत्पन्न होते हैं।
और मनुष्य जाने-अनजाने भी अपनी इसी प्रकृति से प्रेरित हो कर कर्म करता है। किन्तु इसे ही वह सचेत होकर सतर्कता से करे तो यह उसका स्वधर्म हो जाता है। इसे जानने के लिए मनुष्य में जिज्ञासा होना चाहिए। शास्त्र तो जिज्ञासुओं के लिए ही उपयोगी होते हैं। जिज्ञासु नित्य-अनित्य के चिंतन से विवेक प्राप्त करते हैं और विवेक से ही वैराग्यवान तथा मुमुक्षु।
यही आध्यात्मिक उत्थान का क्रम है। इस क्रम को न जानने पर शास्त्र निरर्थक हैं, और इस क्रम के पूर्ण हो जाने पर, परमात्मा की प्राप्ति हो जाने पर भी शास्त्र व्यर्थ ही होते हैं।
इसलिए तत्व को जानने पर भी शास्त्र का और कोई उपयोग नहीं होता तथा तत्व को न जानने पर भी।
इसलिए पहले तो यह जानना बहुत आवश्यक है कि धर्म, अर्थात् मेरा धर्म क्या है! और तब मेरा आभासी धर्म तथा वास्तविक धर्म क्या है, इसे भी जानना उससे भी अधिक आवश्यक है।
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