बुद्ध-धर्म
जाबालि (ऋषि) का बुद्धत्व
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महाभारत के युद्ध के साथ द्वापर-युग बीत गया।
कलियुग के दो हज़ार वर्ष बीत जाने पर ऋषि अष्टावक्र के पिता कहोड (ऋषि जाबालि) ने, -सिद्धार्थ नामक राजकुमार ने राजा शुद्धोदन / शुद्धोधन के पुत्र के रूप में कपिलवस्तु राज्य के शाक्य क्षत्रियवंश में जन्म लिया। इस की कथा पिछले पोस्ट्स में लिख चुका हूँ।
सिद्धार्थ (जाबालि) ने विवाह के बाद पत्नी यशोधरा और पुत्र राहुल को छोड़कर जब ज्ञान-प्राप्ति के लिए तपस्या करने का संकल्प किया,ऐसा व्रत लिया, तो अंततः सुजाता ने वनदेवी के रूप में उसे खीर देकर उस व्रत का पारायण संपन्न किया। सुजाता वही थी जो पूर्व-जन्म में अष्टावक्र की माता थी और ऋषि कहोड के प्रति अपने 'पातिव्रत-धर्म' का भली प्रकार आचरण करते हुए श्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त हो चुका था। इसीलिए उसके गर्भ से अष्टावक्र का जन्म हुआ था, जो जन्म से ही परम-ज्ञानसम्पन्न थे।
सिद्धार्थ को ज्ञान-प्राप्ति होने के बाद भगवान बुद्ध कहा गया किंतु वेद-मार्ग से उनकी भिन्न दृष्टि होने से उन्हें भगवान विष्णु का अवतार माना गया और बौद्ध-मत के अनुयायियों के लिए यह प्रश्न खड़ा हो गया कि उन्हें विष्णु का 'अवतार' स्वीकार किया जाए अथवा नहीं। यदि उन्हें भगवान विष्णु का नवाँ अवतार मान लिया जाता तो इसका तात्पर्य यह होता कि भगवान विष्णु के शेष 8 तथा आगामी 'कल्कि' को भी अवतार माना जाता ! दूसरी ओर, यदि उन्हें अवतार न माना जाता तो बौद्ध-धर्म वैदिक-धर्म से स्वतंत्र एक 'धर्म' तो माना जाता किन्तु सामाजिक-व्यवस्था के लिए वर्ण-व्यवस्था से भिन्न क्या आधार प्राप्त होता ?
भगवान बुद्ध का धर्म भिक्षु-धर्म था इसलिए भले ही किसी भी वर्ण का (पुरुष) उनके 'संघ', 'धम्म' तथा 'बुद्ध' को स्वीकार कर 'प्रव्रजित' हो सकता था किन्तु 'सामाजिक' धरातल पर उसका क्या रूप होता कहना कठिन होता। तात्पर्य यह कि यद्यपि उनका 'धर्म' समाज पर अवलम्बित था, -भिक्षा के लिए तो अवश्य ही था किन्तु 'समाज' में सभी 'भिक्षु' तो नहीं हो सकते! इसलिए बौद्ध-धर्म वैदिक से भिन्न परंपरा का भले ही हो, था तो वह समाज पर आश्रित ही।
'राज्याश्रय' प्राप्त होने से ही 'बुद्ध-धर्म' को अन्य लोगों ने अपनाया और उसका विस्तार हुआ। यही बात बहुत हद तक जैन-धर्म के संबंध में भी लागू होती है। तीर्थंकर भगवान महावीर के क्षत्रिय राजकुमार के रूप में जन्म लेने से ही उनके धर्म को भी 'राज्याश्रय' प्राप्त हुआ और सनातन (तथा वैदिक) धर्म में उनके तत्व-दर्शन को भी पूरा सम्मान दिया गया, यद्यपि उसे 'नास्तिक' भी कहा गया। आस्तिक अथवा नास्तिक होने से मनुष्य के 'वर्ण' पर तो कोई प्रभाव नहीं पड़ता किन्तु उसके 'आश्रम' के बारे में संदेह उपस्थित हो जाता है। फिर भी उसे 'तपस्वी' तो कहा ही जा सकता है। वैदिक दृष्टि से यह 'संन्यास' का ही एक रूप हुआ और वैदिक आधार पर भी ऐसे 'परिव्राजकों' को सम्माननीय स्थान दिया जाता रहा है।
वाल्मीकि-रामायण में जिस 'शबरी' / शर्वरी का उल्लेख है वह जिन-धर्म की ही परंपरा से थी।
वाल्मीकि-रामायण के अयोध्याकाण्ड के सर्ग १०८ में महर्षि जाबालि भारत श्रीराम को वन जाने के लिए हतोत्साहित करते हुए कहते हैं :
अयोध्याकाण्ड, सर्ग १०८
आश्वासयन्तं भरतं जाबालिर्ब्राह्मणोत्तमः।
उवाच रामं धर्मज्ञं धर्मापेतमिदं वचः।।१
साधु राघव मा भूत् ते बुद्धिरेवं निरर्थिका।
प्राकृतस्य नरस्येव ह्यार्यबुद्धेस्तपस्विनः।।२
कः कस्य पुरुषो बन्धुः किमाप्यं कस्य केनचित्।
एको हि जायते जन्तुरेक एव विनश्यति ।।३
तस्मान्माता पिता चेति राम सज्जेत यो नरः।
उन्मत्त इव स ज्ञेयो नास्ति कश्चिद्धि कस्यचित् ।।४
यथा ग्रामान्तरं गच्छन् नरः कश्चित् बहिर्वसेत्।
उत्सृज्य च तमावासं प्रतिष्ठेतापरेऽहनि।।५
एवमेव मनुष्याणां पिता माता गृहं वसु।
आवासमात्रं काकुत्स्थ सज्जन्ते नात्र सज्जनाः।।६
पित्र्यं राज्यं समुत्सृज्य स नार्हसि नरोत्तम।
आस्थातुं कापथं दुःखं विषमं बहुकण्टकम् ।।७
समृद्धायामायोध्यायामात्मानमभिषेचय।
एकवेणीधरा हि त्वा नगरी सम्प्रतीक्षते।।८
राजभोगाननुभवन् महार्हान् पार्थिवात्मज।
विहर त्वं अयोध्यायां यथा शक्रस्त्रिविष्टपे।।९
(विहर और विहार तथा त्रिविष्टप -तिब्बत का बौद्ध-धर्म से संबंध स्पष्ट ही है। )
न ते कश्चित् दशरथस्त्वं च तस्य च कश्चन।
अन्यो राजा त्वमन्यस्तु तस्मात् कुरु यदुच्यते।।१०
बीजमात्रं पिता जन्तोः शुक्रं शोणितमेव च।
संयुक्तमृतुमन्मात्रा पुरुषस्येह जन्म तत् ।।११
गतः स नृपतिस्तत्र गन्तव्यं यत्र तेन वै।
प्रवृत्तिरेषा भूतानां त्वं तु मिथ्या विहन्यसे ।।१२
अर्थधर्मपरा ये ये तांस्ताञ्शोचामि नेतरान्।
ते हि दुःखमिह प्राप्य विनाशं प्रेत्य लेभिरे ।।१३
अष्टकापितृदेवत्यमित्ययं प्रसृतो जनः।
अन्नस्योपद्रवं पश्य मृतो हि किमशिष्यति ।।१४
यदि भुक्तमिहान्येन देहमन्यस्य गच्छति।
दद्यात् प्रवसतां श्राद्धं न तत् पथ्यशनं भवेत् ।।१५
दानसंवनना ह्येते ग्रन्था मेधाविभिः कृताः।
यजस्व देहि दीक्षस्व तपस्तप्यस्व संत्यज।।१६
स नास्ति परमित्येतत् कुरु बुद्धिं महामते।
प्रत्यक्षं यत् तदातिष्ठ परोक्षं पृष्ठतः कुरु ।।१७
सतां बुद्धिं पुरस्कृत्य सर्वलोकनिदर्शिनीम्।
राज्यं स त्वं निगृह्णीष्व भरतेन प्रसादितः ।।१८
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अयोध्याकाण्ड, सर्ग १०९,
जाबालेस्तु वचः श्रुत्वा रामः सत्यपराक्रमः।
उवाच परया सुक्त्या बुद्ध्याविप्रतिपन्नया।।१
...
...
निंदाम्यहं कर्म कृतं पितुस्तद्
यस्त्वामगृह्णाद् विषमस्थबुद्धिम्।
बुद्ध्यानयैवंविधया चरन्तं
सुनास्तिकं धर्मपथादपेतम्।।३३
यथा हि चोरः स तथा हि बुद्ध
स्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि।
तस्माद्धि यः शक्यतमः प्रजानां
स नास्तिके नाभिमुखो बुधः स्यात्।।३४
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अर्थ :
अयोध्याकाण्ड, सर्ग १०८,
जब धर्मज्ञ श्रीरामचन्द्रजी भरत को इस प्रकार समझा-बुझा रहे थे, उसी समय ब्राह्मणशिरोमणि जाबालि ने उनसे यह धर्मविरुद्ध वचन कहा --॥१
’रघुनन्दन! आपने ठीक कहा, परंतु आप श्रेष्ठ बुद्धिवाले और तपस्वी हैं; अतः आपको गँवार मनुष्य की तरह ऐसा निरर्थक विचार मन में नहीं लाना चाहिए । ॥२
’संसार में कौन पुरुष किसका बन्धु है, और किससे किसको क्या पाना है? जीव अकेला ही जन्म लेता और अकेला ही नष्ट हो जाता है । ॥३
’अतः श्रीराम ! जो मनुष्य माता या पिता समझकर किसी के प्रति आसक्त होता है, उसे पागल के समान समझना चाहिए; क्योंकि यहाँ कोई किसी का कुछ भी नहीं है । ॥४
’जैसे कोई मनुष्य दूसरे गाँव को जाते समय बाहर किसी धर्मशाला में एक रात के लिए ठहर जाता है और दूसरे दिन उस स्थान को छोड़कर आगे के लिए प्रस्थित हो जाता है, इसी प्रकार पिता, माता, घर और धन--ये मनुष्यों के आवासमात्र हैं । काकुत्स्थकुलभूषण ! इनमें सज्जन पुरुष आसक्त नहीं होते हैं । ॥५,६
’अतः नरश्रेष्ठ ! आपको पिता का राज्य छोड़कर इस दुःखमय, नीचे-ऊँचे तथा बहुकण्टकाकीर्ण वन के कुत्सित मार्ग पर नहीं चलना चाहिए । ॥७
’आप समृद्धिशालिनी अयोध्या में राजा के पद पर अपना अभिषेक कराइये । वह नगरी प्रोषितभर्तृका नारी की भाँति एक वेणी धारण करके आपकी प्रतीक्षा करती है । ॥८
’राजकुमार ! जैसे देवराज इन्द्र स्वर्ग में विहार करते हैं, उसी प्रकार आप बहुमूल्य राजभोगों का उपभोग करते हुए अयोध्या में विहार कीजिए । ॥९
’राजा दशरथ आपके कोई नहीं थे और आप भी उनके कोई नहीं हैं । राजा दूसरे थे और आप भी दूसरे हैं; इसलिए मैं जो कहता हूँ वही कीजिए । ॥१०
’पिता जीव के जन्म में निमित्तकारणमात्र होता है । वास्तव में ऋतुमती माता के द्वारा गर्भ में धारण किए हुए वीर्य और रज का परस्पर संयोग होने पर ही पुरुष का यहाँ जन्म होता है । ॥११
’राजा को जहाँ जाना था, वहाँ चले गए । यह प्राणियों के लिए स्वाभाविक स्थिति है । आप तो व्यर्थ ही मारे जाते (कष्ट उठाते) हैं । ॥१२
’जो-जो मनुष्य प्राप्त हुए अर्थ का परित्याग करके धर्मपरायण हुए हैं, उन्हीं-उन्हीं के लिए मैं शोक करता हूँ, दूसरों के लिए नहीं । वे इस जगत् में धर्म के नाम पर केवल दुःख भोगकर मृत्यु के पश्चात् नष्ट हो गए हैं । ॥१३
’अष्टका आदि जितने श्राद्ध हैं, उनके देवता पितर हैं -- श्राद्ध का दान पितरों को मिलता है । यही सोचकर लोग श्राद्ध में प्रवृत्त होते हैं; किन्तु विचार करके देखिए तो इसमें अन्न का नाश ही होता है । भला, मरा हुआ मनुष्य क्या खायेगा? ॥१४
’यदि यहाँ दूसरे का खाया हुआ अन्न दूसरे के शरीर में चला जाता हो तो परदेश में जानेवालों के लिए श्राद्ध ही कर देना चाहिए; उनको रास्ते के लिए भोजन देना उचित नहीं है । ॥१५
’देवताओं के लिए यज्ञ और पूजन करो, दान दो, यज्ञ की दीक्षा ग्रहण करो, तपस्या करो और घर-द्वार छोड़कर संन्यासी बन जाओ इत्यादि बातें बतानेवाले ग्रन्थ बुद्धिमान मनुष्यों ने दान की ओर लोगों की प्रवृत्ति कराने के लिए ही बनाए हैं । ॥१६
’अतः महामते ! आप अपने मन में यह निश्चय कीजिए कि इस लोक के सिवा कोई दूसरा लोक नहीं है (अतः वहाँ फल भोगने के लिए धर्म आदि के पालन की आवश्यकता नहीं है ) । जो प्रत्यक्ष राज्यलाभ है, उसका आश्रय लीजिए, परोक्ष (पारलौकिक लाभ) को पीछे ढकेल दीजिए । ॥१७
’सत्पुरुषों की बुद्धि, जो सब लोगों के लिए राह दिखानेवाली होने के कारण प्रमाणभूत है, आगे करके भरत के अनुरोध से आप अयोध्या का राज्य ग्रहण कीजिए । ॥१८
(१०८वाँ सर्ग पूर्ण हुआ)
अयोध्याकाण्ड, सर्ग १०९,
जाबालि का यह वचन सुनकर सत्यपराक्रमी श्रीरामचन्द्रजी ने अपनी संशयरहित बुद्धि के द्वारा श्रुतिसम्मत सदुक्ति का आश्रय लेकर कहा -- ॥१
...
...
'आपकी बुद्धि विषम-मार्ग में स्थित है -- आपने वेद-विरुद्ध मार्ग का आश्रय ले रखा है। आप घोर नास्तिक और धर्म के रास्ते से कोसों दूर हैं। ऐसी पाखण्डमयी बुद्धि के द्वारा अनुचित विचार का प्रचार करनेवाले आपको मेरे पिताजी ने जो अपना याजक बना लिया, उनके इस कार्य की मैं निंदा करता हूँ।।३३
'जैसे चोर दंडनीय होता है, उसी प्रकार (वेदविरोधी) बुद्ध (बौद्धमतावलम्बी) भी दंडनीय है। तथागत (नास्तिक-विशेष) और नास्तिक (चार्वाक) को भी यहाँ इसी कोटि में समझना चाहिए | इसलिए प्रजा पर अनुग्रह करने के लिए राजा द्वारा जिस नास्तिक को दंड दिलाया जा सके, उसे तो चोर के सामान दंड दिलाया ही जाय; परन्तु जो वश के बाहर हो, उस नास्तिक के प्रति विद्वान् ब्राह्मण कभी उन्मुख न हो -- उससे वार्तालाप तक न करे।
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(क्रमशः)
-- अगले पोस्ट में
जाबालि (ऋषि) का बुद्धत्व
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महाभारत के युद्ध के साथ द्वापर-युग बीत गया।
कलियुग के दो हज़ार वर्ष बीत जाने पर ऋषि अष्टावक्र के पिता कहोड (ऋषि जाबालि) ने, -सिद्धार्थ नामक राजकुमार ने राजा शुद्धोदन / शुद्धोधन के पुत्र के रूप में कपिलवस्तु राज्य के शाक्य क्षत्रियवंश में जन्म लिया। इस की कथा पिछले पोस्ट्स में लिख चुका हूँ।
सिद्धार्थ (जाबालि) ने विवाह के बाद पत्नी यशोधरा और पुत्र राहुल को छोड़कर जब ज्ञान-प्राप्ति के लिए तपस्या करने का संकल्प किया,ऐसा व्रत लिया, तो अंततः सुजाता ने वनदेवी के रूप में उसे खीर देकर उस व्रत का पारायण संपन्न किया। सुजाता वही थी जो पूर्व-जन्म में अष्टावक्र की माता थी और ऋषि कहोड के प्रति अपने 'पातिव्रत-धर्म' का भली प्रकार आचरण करते हुए श्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त हो चुका था। इसीलिए उसके गर्भ से अष्टावक्र का जन्म हुआ था, जो जन्म से ही परम-ज्ञानसम्पन्न थे।
सिद्धार्थ को ज्ञान-प्राप्ति होने के बाद भगवान बुद्ध कहा गया किंतु वेद-मार्ग से उनकी भिन्न दृष्टि होने से उन्हें भगवान विष्णु का अवतार माना गया और बौद्ध-मत के अनुयायियों के लिए यह प्रश्न खड़ा हो गया कि उन्हें विष्णु का 'अवतार' स्वीकार किया जाए अथवा नहीं। यदि उन्हें भगवान विष्णु का नवाँ अवतार मान लिया जाता तो इसका तात्पर्य यह होता कि भगवान विष्णु के शेष 8 तथा आगामी 'कल्कि' को भी अवतार माना जाता ! दूसरी ओर, यदि उन्हें अवतार न माना जाता तो बौद्ध-धर्म वैदिक-धर्म से स्वतंत्र एक 'धर्म' तो माना जाता किन्तु सामाजिक-व्यवस्था के लिए वर्ण-व्यवस्था से भिन्न क्या आधार प्राप्त होता ?
भगवान बुद्ध का धर्म भिक्षु-धर्म था इसलिए भले ही किसी भी वर्ण का (पुरुष) उनके 'संघ', 'धम्म' तथा 'बुद्ध' को स्वीकार कर 'प्रव्रजित' हो सकता था किन्तु 'सामाजिक' धरातल पर उसका क्या रूप होता कहना कठिन होता। तात्पर्य यह कि यद्यपि उनका 'धर्म' समाज पर अवलम्बित था, -भिक्षा के लिए तो अवश्य ही था किन्तु 'समाज' में सभी 'भिक्षु' तो नहीं हो सकते! इसलिए बौद्ध-धर्म वैदिक से भिन्न परंपरा का भले ही हो, था तो वह समाज पर आश्रित ही।
'राज्याश्रय' प्राप्त होने से ही 'बुद्ध-धर्म' को अन्य लोगों ने अपनाया और उसका विस्तार हुआ। यही बात बहुत हद तक जैन-धर्म के संबंध में भी लागू होती है। तीर्थंकर भगवान महावीर के क्षत्रिय राजकुमार के रूप में जन्म लेने से ही उनके धर्म को भी 'राज्याश्रय' प्राप्त हुआ और सनातन (तथा वैदिक) धर्म में उनके तत्व-दर्शन को भी पूरा सम्मान दिया गया, यद्यपि उसे 'नास्तिक' भी कहा गया। आस्तिक अथवा नास्तिक होने से मनुष्य के 'वर्ण' पर तो कोई प्रभाव नहीं पड़ता किन्तु उसके 'आश्रम' के बारे में संदेह उपस्थित हो जाता है। फिर भी उसे 'तपस्वी' तो कहा ही जा सकता है। वैदिक दृष्टि से यह 'संन्यास' का ही एक रूप हुआ और वैदिक आधार पर भी ऐसे 'परिव्राजकों' को सम्माननीय स्थान दिया जाता रहा है।
वाल्मीकि-रामायण में जिस 'शबरी' / शर्वरी का उल्लेख है वह जिन-धर्म की ही परंपरा से थी।
वाल्मीकि-रामायण के अयोध्याकाण्ड के सर्ग १०८ में महर्षि जाबालि भारत श्रीराम को वन जाने के लिए हतोत्साहित करते हुए कहते हैं :
अयोध्याकाण्ड, सर्ग १०८
आश्वासयन्तं भरतं जाबालिर्ब्राह्मणोत्तमः।
उवाच रामं धर्मज्ञं धर्मापेतमिदं वचः।।१
साधु राघव मा भूत् ते बुद्धिरेवं निरर्थिका।
प्राकृतस्य नरस्येव ह्यार्यबुद्धेस्तपस्विनः।।२
कः कस्य पुरुषो बन्धुः किमाप्यं कस्य केनचित्।
एको हि जायते जन्तुरेक एव विनश्यति ।।३
तस्मान्माता पिता चेति राम सज्जेत यो नरः।
उन्मत्त इव स ज्ञेयो नास्ति कश्चिद्धि कस्यचित् ।।४
यथा ग्रामान्तरं गच्छन् नरः कश्चित् बहिर्वसेत्।
उत्सृज्य च तमावासं प्रतिष्ठेतापरेऽहनि।।५
एवमेव मनुष्याणां पिता माता गृहं वसु।
आवासमात्रं काकुत्स्थ सज्जन्ते नात्र सज्जनाः।।६
पित्र्यं राज्यं समुत्सृज्य स नार्हसि नरोत्तम।
आस्थातुं कापथं दुःखं विषमं बहुकण्टकम् ।।७
समृद्धायामायोध्यायामात्मानमभिषेचय।
एकवेणीधरा हि त्वा नगरी सम्प्रतीक्षते।।८
राजभोगाननुभवन् महार्हान् पार्थिवात्मज।
विहर त्वं अयोध्यायां यथा शक्रस्त्रिविष्टपे।।९
(विहर और विहार तथा त्रिविष्टप -तिब्बत का बौद्ध-धर्म से संबंध स्पष्ट ही है। )
न ते कश्चित् दशरथस्त्वं च तस्य च कश्चन।
अन्यो राजा त्वमन्यस्तु तस्मात् कुरु यदुच्यते।।१०
बीजमात्रं पिता जन्तोः शुक्रं शोणितमेव च।
संयुक्तमृतुमन्मात्रा पुरुषस्येह जन्म तत् ।।११
गतः स नृपतिस्तत्र गन्तव्यं यत्र तेन वै।
प्रवृत्तिरेषा भूतानां त्वं तु मिथ्या विहन्यसे ।।१२
अर्थधर्मपरा ये ये तांस्ताञ्शोचामि नेतरान्।
ते हि दुःखमिह प्राप्य विनाशं प्रेत्य लेभिरे ।।१३
अष्टकापितृदेवत्यमित्ययं प्रसृतो जनः।
अन्नस्योपद्रवं पश्य मृतो हि किमशिष्यति ।।१४
यदि भुक्तमिहान्येन देहमन्यस्य गच्छति।
दद्यात् प्रवसतां श्राद्धं न तत् पथ्यशनं भवेत् ।।१५
दानसंवनना ह्येते ग्रन्था मेधाविभिः कृताः।
यजस्व देहि दीक्षस्व तपस्तप्यस्व संत्यज।।१६
स नास्ति परमित्येतत् कुरु बुद्धिं महामते।
प्रत्यक्षं यत् तदातिष्ठ परोक्षं पृष्ठतः कुरु ।।१७
सतां बुद्धिं पुरस्कृत्य सर्वलोकनिदर्शिनीम्।
राज्यं स त्वं निगृह्णीष्व भरतेन प्रसादितः ।।१८
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अयोध्याकाण्ड, सर्ग १०९,
जाबालेस्तु वचः श्रुत्वा रामः सत्यपराक्रमः।
उवाच परया सुक्त्या बुद्ध्याविप्रतिपन्नया।।१
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निंदाम्यहं कर्म कृतं पितुस्तद्
यस्त्वामगृह्णाद् विषमस्थबुद्धिम्।
बुद्ध्यानयैवंविधया चरन्तं
सुनास्तिकं धर्मपथादपेतम्।।३३
यथा हि चोरः स तथा हि बुद्ध
स्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि।
तस्माद्धि यः शक्यतमः प्रजानां
स नास्तिके नाभिमुखो बुधः स्यात्।।३४
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अर्थ :
अयोध्याकाण्ड, सर्ग १०८,
जब धर्मज्ञ श्रीरामचन्द्रजी भरत को इस प्रकार समझा-बुझा रहे थे, उसी समय ब्राह्मणशिरोमणि जाबालि ने उनसे यह धर्मविरुद्ध वचन कहा --॥१
’रघुनन्दन! आपने ठीक कहा, परंतु आप श्रेष्ठ बुद्धिवाले और तपस्वी हैं; अतः आपको गँवार मनुष्य की तरह ऐसा निरर्थक विचार मन में नहीं लाना चाहिए । ॥२
’संसार में कौन पुरुष किसका बन्धु है, और किससे किसको क्या पाना है? जीव अकेला ही जन्म लेता और अकेला ही नष्ट हो जाता है । ॥३
’अतः श्रीराम ! जो मनुष्य माता या पिता समझकर किसी के प्रति आसक्त होता है, उसे पागल के समान समझना चाहिए; क्योंकि यहाँ कोई किसी का कुछ भी नहीं है । ॥४
’जैसे कोई मनुष्य दूसरे गाँव को जाते समय बाहर किसी धर्मशाला में एक रात के लिए ठहर जाता है और दूसरे दिन उस स्थान को छोड़कर आगे के लिए प्रस्थित हो जाता है, इसी प्रकार पिता, माता, घर और धन--ये मनुष्यों के आवासमात्र हैं । काकुत्स्थकुलभूषण ! इनमें सज्जन पुरुष आसक्त नहीं होते हैं । ॥५,६
’अतः नरश्रेष्ठ ! आपको पिता का राज्य छोड़कर इस दुःखमय, नीचे-ऊँचे तथा बहुकण्टकाकीर्ण वन के कुत्सित मार्ग पर नहीं चलना चाहिए । ॥७
’आप समृद्धिशालिनी अयोध्या में राजा के पद पर अपना अभिषेक कराइये । वह नगरी प्रोषितभर्तृका नारी की भाँति एक वेणी धारण करके आपकी प्रतीक्षा करती है । ॥८
’राजकुमार ! जैसे देवराज इन्द्र स्वर्ग में विहार करते हैं, उसी प्रकार आप बहुमूल्य राजभोगों का उपभोग करते हुए अयोध्या में विहार कीजिए । ॥९
’राजा दशरथ आपके कोई नहीं थे और आप भी उनके कोई नहीं हैं । राजा दूसरे थे और आप भी दूसरे हैं; इसलिए मैं जो कहता हूँ वही कीजिए । ॥१०
’पिता जीव के जन्म में निमित्तकारणमात्र होता है । वास्तव में ऋतुमती माता के द्वारा गर्भ में धारण किए हुए वीर्य और रज का परस्पर संयोग होने पर ही पुरुष का यहाँ जन्म होता है । ॥११
’राजा को जहाँ जाना था, वहाँ चले गए । यह प्राणियों के लिए स्वाभाविक स्थिति है । आप तो व्यर्थ ही मारे जाते (कष्ट उठाते) हैं । ॥१२
’जो-जो मनुष्य प्राप्त हुए अर्थ का परित्याग करके धर्मपरायण हुए हैं, उन्हीं-उन्हीं के लिए मैं शोक करता हूँ, दूसरों के लिए नहीं । वे इस जगत् में धर्म के नाम पर केवल दुःख भोगकर मृत्यु के पश्चात् नष्ट हो गए हैं । ॥१३
’अष्टका आदि जितने श्राद्ध हैं, उनके देवता पितर हैं -- श्राद्ध का दान पितरों को मिलता है । यही सोचकर लोग श्राद्ध में प्रवृत्त होते हैं; किन्तु विचार करके देखिए तो इसमें अन्न का नाश ही होता है । भला, मरा हुआ मनुष्य क्या खायेगा? ॥१४
’यदि यहाँ दूसरे का खाया हुआ अन्न दूसरे के शरीर में चला जाता हो तो परदेश में जानेवालों के लिए श्राद्ध ही कर देना चाहिए; उनको रास्ते के लिए भोजन देना उचित नहीं है । ॥१५
’देवताओं के लिए यज्ञ और पूजन करो, दान दो, यज्ञ की दीक्षा ग्रहण करो, तपस्या करो और घर-द्वार छोड़कर संन्यासी बन जाओ इत्यादि बातें बतानेवाले ग्रन्थ बुद्धिमान मनुष्यों ने दान की ओर लोगों की प्रवृत्ति कराने के लिए ही बनाए हैं । ॥१६
’अतः महामते ! आप अपने मन में यह निश्चय कीजिए कि इस लोक के सिवा कोई दूसरा लोक नहीं है (अतः वहाँ फल भोगने के लिए धर्म आदि के पालन की आवश्यकता नहीं है ) । जो प्रत्यक्ष राज्यलाभ है, उसका आश्रय लीजिए, परोक्ष (पारलौकिक लाभ) को पीछे ढकेल दीजिए । ॥१७
’सत्पुरुषों की बुद्धि, जो सब लोगों के लिए राह दिखानेवाली होने के कारण प्रमाणभूत है, आगे करके भरत के अनुरोध से आप अयोध्या का राज्य ग्रहण कीजिए । ॥१८
(१०८वाँ सर्ग पूर्ण हुआ)
अयोध्याकाण्ड, सर्ग १०९,
जाबालि का यह वचन सुनकर सत्यपराक्रमी श्रीरामचन्द्रजी ने अपनी संशयरहित बुद्धि के द्वारा श्रुतिसम्मत सदुक्ति का आश्रय लेकर कहा -- ॥१
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'आपकी बुद्धि विषम-मार्ग में स्थित है -- आपने वेद-विरुद्ध मार्ग का आश्रय ले रखा है। आप घोर नास्तिक और धर्म के रास्ते से कोसों दूर हैं। ऐसी पाखण्डमयी बुद्धि के द्वारा अनुचित विचार का प्रचार करनेवाले आपको मेरे पिताजी ने जो अपना याजक बना लिया, उनके इस कार्य की मैं निंदा करता हूँ।।३३
'जैसे चोर दंडनीय होता है, उसी प्रकार (वेदविरोधी) बुद्ध (बौद्धमतावलम्बी) भी दंडनीय है। तथागत (नास्तिक-विशेष) और नास्तिक (चार्वाक) को भी यहाँ इसी कोटि में समझना चाहिए | इसलिए प्रजा पर अनुग्रह करने के लिए राजा द्वारा जिस नास्तिक को दंड दिलाया जा सके, उसे तो चोर के सामान दंड दिलाया ही जाय; परन्तु जो वश के बाहर हो, उस नास्तिक के प्रति विद्वान् ब्राह्मण कभी उन्मुख न हो -- उससे वार्तालाप तक न करे।
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(क्रमशः)
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