उदारता से तुष्टिकरण तक
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भारत के अतीत और वर्तमान से संबंधित ज्ञात जानकारी के आधार पर बहुत सरलता से समझा जा सकता है कि भारत भौगोलिक संपदा और जलवायु की अनुकूलता की दृष्टि से हमेशा से अत्यंत संपन्न और समृद्ध भूमि रहा है। भारत के कण-कण और इसके हर स्थान, लोकसंस्कृति, प्रत्येक भाषा और बोलियों में, इसकी सूत्रात्मक एकता की यह विशेषता अनायास देखी जा सकती है।
इस देश भारत-भूमि की इस 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना से प्रेरित और ओत-प्रोत सभ्यता में, न सिर्फ जड -चेतन, जीव तथा जगत के प्रति ही, बल्कि सारी प्रकृति के प्रति जो गहन आत्मीयता का तत्व व्याप्त था और है, उदारता भी इसी प्रकार एक स्वाभाविक सौहार्द्र के रूप में सर्वत्र अनायास थी।
इस उदारता (जिसे विदेशी बर्बर आक्रांता हमारी मूर्खता समझने लगे) के ही कारण भारत में 'अतिथि देवो भव' की प्रवृत्ति किसी काल्पनिक आदर्श के बजाय वस्तुतः हमारे स्वभाव का हिस्सा थी।
वाल्मीकि-रामायण तथा उत्तर-रामचरित्र या रघुवंशम्, महाभारत आदि ग्रन्थ केवल पौराणिक ही नहीं बल्कि ऐतिहासिक 'सत्य' भी हैं, जिनमें उन तमाम नस्लों, मानव-जातियों (नृ-वंशों) का उल्लेख है जो भौगोलिक रूप से भिन्न भिन्न स्थानों पर अस्तित्व में आए, और केवल वाल्मीकि-रामायण तथा महाभारत के अध्ययन से ही इसका पर्याप्त और स्पष्ट प्रमाण भी मिल जाता है।
उदारता की भारतीय परंपरा का आधार कोई नैतिक या रूढ़िगत ढंग से तय किए गए बौद्धिक आदर्शवाद से प्रेरित ध्येय ही नहीं बल्कि भारत की आध्यात्मिक शक्ति भी था।
सर्वप्रथम ईरान में जरथुष्ट्र ने एक नई संकल्पना के रूप में जरद्धर्म (Zoroastrian Doctrine) की स्थापना की जो मूलतः वैदिक ज्ञान व परंपरा की ही शाखा थी और वैदिक अग्नि-पूजा का एक थोड़ा भिन्न रूप था।
यही (पारसी) सम्प्रदाय इसलाम के माननेवालों द्वारा आक्रमण किए जाने पर शरण लेने के लिए भारत आया।
बाह्लीक देश (Balkh - Afghanistan) तथा पहलवी वंश (Iran) का वर्णन वाल्मीकि रामायण में मिलता है। इसी प्रकार यवन (Jew), म्लेच्छ (Malacca -मलेशिया), काम्बोज (Cambodia), शक (Czech), हूण / (Huen-Tsang belonged to this place later on after a long time.) आदि का वर्णन भी इसी ग्रन्थ में बालकाण्ड सर्ग 49 एवं 50 में देखा जा सकता है। यहाँ तक कि 'पृथ्वी' के 'एकमेव ईश्वर' 'इल', -- जिसे मनुष्य ही नहीं असुर, यक्ष, राक्षस, दैत्य, दानव, नाग, गन्धर्व तथा किन्नर भी सम्पूर्ण लोकों का राजा (ईश्वर) स्वीकार करते थे और जिसके भय से थर - थर काँपते थे, -- 'बाह्लीकेश्वर', जो बाह्लीक देश (Balkh - Afghanistan) का राजा था, का वर्णन भी उत्तरकाण्ड, सर्ग 87 में बहुत स्पष्ट शब्दों में है। कोई आश्चर्य नहीं कि समूचे पश्चिम में 'एकेश्वरवाद' (monotheism) की अवधारणा यहीं से प्रारंभ हुई। और यह Pagan परंपरा से भिन्न की तरह मानी जाकर Pagan परंपरा / पद्धति को 'पाप' क़रार दे दिया गया। यहीं से 'बहुदेववाद' / 'Polytheism' का विरोध पश्चिम के 'एकेश्वरवादी' करने लगे। मूर्ति-पूजा भी इसीलिए निंदनीय घोषित हो गयी।
यहूदी धर्म का प्रारंभ किस प्रकार जाबाल-ऋषि - आर्ष-अङ्गिरा (Arch-Angel Gabriel) के द्वारा मोज़ेस को दी गयी शिक्षा से हुआ यह तथ्य यहूदी परंपरा में दृष्टव्य है।
कैथोलिक-पद्धति की संकल्पना किस प्रकार कठोपनिषद् की कथा को आधार बनाकर तथा जीसस के चरित्र में नचिकेता को उस कथा को ढालकर प्रस्तुत किया गया, यह देखना भी रोचक है। कथा से जीसस के चरित्र का इतना अधिक साम्य है कि इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि कैथोलिक प्रकल्प उसी यम-नचिकेता की कथा का रूपांतरण (Adoption) है। आज भी गुड फ्राइडे के दिन जीसस को सूली पर चढ़ाया जाता है और नचिकेता की तरह जीसस भी मृत्यु के अनन्तर तीसरे दिन ईस्टर सन्डे (Ester Sunday) के दिन सकुशल जीवित 'लौट' आते हैं।
'इल' और 'कापालिक' (Cabal) से क़बीला, इस्लाम और 'इलाही' -'दीने-इलाही' का ज़रूर कोई गहरा संबंध है, यह अनुमान दूर की कौड़ी नहीं है। Jewish Cabal भी मूलतः इससे जुड़ा है। बाइबल की कैन तथा एबल (Cain and Abel), तथा क़ुरान की क़ाबिल और हाबिल की कथा की समानता से भी यही इंगित होता है कि किस प्रकार एक ही स्रोत से यहूदी तथा इस्लामी नस्लों का आगमन हुआ। संयोगवश वाल्मीकि-रामायण (अरण्यकाण्ड, सर्ग 11) में 'इल्वल तथा वातापि' इन दोनों भाइयों की कथा का घटनाक्रम भी ऐसा ही कुछ है।
(चूँकि यहाँ प्रस्तुत विचार कोई दावा या अंतिम निष्कर्ष नहीं है इसलिए ऐसा मेरा आग्रह भी नहीं है। इस पर पुनः विचार किया जा सकता है। )
किस प्रकार कैथोलिक पद्धति (Roman Catholic) को ग्रीक-धर्म (थियो- 'Theo' - suffix) के विपरीत उसका राजनीतिक ढंग से सामना करने के उद्देश्य से खड़ा किया गया और ग्रीक-धर्म (थियो-Theo) तथा दर्शन मूलतः सनातन-धर्म से विकसित हुआ (या उसका अवशिष्ट अंश था) इस विषय में भी नए सिरे से पर्याप्त अनुसंधान किया जाना ज़रूरी है।
यहाँ 'सनातन'-धर्म ही भारतवर्ष का, भारत-भूमि का वह राष्ट्रीय चरित्र है जो भारत के सांस्कृतिक स्वरूप का आधार है।
'उदारता' या 'सार्वभौम-सौहार्द्र' इसी का प्रकट रूप है, इसलिए यह धर्म कभी वैसा 'आक्रामक' नहीं हो सकता जैसा कि अपने-आपको 'एकेश्वरवादी' (Monotheistic) कहने वाले धर्म हैं।
'हिंदुत्व' की पहचान के आधार पर 'राष्ट्र' की पहचान करनेवाले इस तथ्य की उपेक्षा कर देते हैं कि 'हिन्दू' शब्द सनातन-धर्म के (600 वर्षों से पहले तक के) किसी ग्रन्थ में नहीं पाया जाता। यहाँ तक कि जैन तथा बौद्ध मत भी अपने आपको सनातन धर्म मानते हैं।
और यद्यपि 'सनातन-धर्म' व 'हिंदुत्व' समानार्थी (synonymous) अवश्य हैं, जैसे ही 'हिंदुत्व' को 'धर्म' कहा जाता है, तीनों एकेश्वरवादी religion इसके विरुद्ध संगठित हो जाते हैं। इस प्रकार 'हिंदुत्व' को 'धर्म' कहा जाना अंततः सनातन-धर्म के लिए क्षतिप्रद ही सिद्ध होता है। सबसे महत्वपूर्ण तथ्य तो यह है कि 'सत्य' की तरह 'धर्म' भी एकमेव-अद्वितीय है। और जो 'धर्म' नहीं केवल 'Religion' है, -विचारधारा या परंपरा मात्र है राजनीति तक सीमित होता है। उसे 'धर्म' कहते ही एक अंतहीन दुष्चक्र शुरू हो जाता है। राजनीतिक विचारधाराओं की टकराहट कभी समाप्त नहीं हो सकती।
'उदारता' तथा / या 'सार्वभौम-सौहार्द्र' के चलते जो प्रेमपूर्वक हमारे पास आया उसका हमने अतिथि की तरह स्वागत किया चाहे वह ज़रथुष्ट्र का धर्म हो या मोज़ेस का ; -- पारसियों और यहूदियों को भारत में शरण दी गयी, जैन और बौद्ध तो वैसे भी 'अहिंसा परमो धर्मः' के आधार पर सनातन धर्म से विपरीत नहीं तो उससे भिन्न भी कदापि नहीं हैं।
यहाँ तक कि दक्षिण भारत में प्रथम मस्जिद बनाने के लिए भी भूमि दी गयी।
अंग्रेज़ों, पुर्तगालियों और फ्रैंच, डच, स्पैनिश आदि विदेशियों ने भी धीरे धीरे क्रूरता, कुटिलता और बल के द्वारा भारत में 'धर्म' के आवरण में छिपी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूर्ण करने के लिए सनातन-धर्म की निंदा, भर्त्सना, प्रखर विरोध और निर्लज्जता से उपहास करते हुए भारत के विभिन्न वर्गों में परस्पर द्वेष और वैमनस्य पैदा किया। आर्य-द्रविड़, हिन्दू-मुस्लिम, सिख, जैन, बौद्ध, तमिल-संस्कृत जैसे आभासी रूप से भिन्न प्रतीत होनेवाले किन्तु मूलतः एक ही 'सनातन-धर्म' की भिन्न-भिन्न अभिव्यक्तियों को विभाजित करने का कुचक्र रचा। इस मामले में कम्युनिस्ट भी पीछे नहीं रहे।
यह था 'उदारता' या 'सार्वभौम-सौहार्द्र' का परिणाम !
यही उदारता; भय से अथवा 'प्रगतिशील' होने के दंभ से कब 'तुष्टीकरण' और चाटुकारिता की सीमाएँ लांघ गई इस ओर से हम पिछले 600 वर्षों से भी अधिक समय से आँखें बंद किए रहे।
जब अपात्र का 'तुष्टिकरण' किया जाता है तो वह 'दुष्टिकरण' को ही दृढ बनाता है।
पयःपानं भुजङ्गानां....... !
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भारत के अतीत और वर्तमान से संबंधित ज्ञात जानकारी के आधार पर बहुत सरलता से समझा जा सकता है कि भारत भौगोलिक संपदा और जलवायु की अनुकूलता की दृष्टि से हमेशा से अत्यंत संपन्न और समृद्ध भूमि रहा है। भारत के कण-कण और इसके हर स्थान, लोकसंस्कृति, प्रत्येक भाषा और बोलियों में, इसकी सूत्रात्मक एकता की यह विशेषता अनायास देखी जा सकती है।
इस देश भारत-भूमि की इस 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना से प्रेरित और ओत-प्रोत सभ्यता में, न सिर्फ जड -चेतन, जीव तथा जगत के प्रति ही, बल्कि सारी प्रकृति के प्रति जो गहन आत्मीयता का तत्व व्याप्त था और है, उदारता भी इसी प्रकार एक स्वाभाविक सौहार्द्र के रूप में सर्वत्र अनायास थी।
इस उदारता (जिसे विदेशी बर्बर आक्रांता हमारी मूर्खता समझने लगे) के ही कारण भारत में 'अतिथि देवो भव' की प्रवृत्ति किसी काल्पनिक आदर्श के बजाय वस्तुतः हमारे स्वभाव का हिस्सा थी।
वाल्मीकि-रामायण तथा उत्तर-रामचरित्र या रघुवंशम्, महाभारत आदि ग्रन्थ केवल पौराणिक ही नहीं बल्कि ऐतिहासिक 'सत्य' भी हैं, जिनमें उन तमाम नस्लों, मानव-जातियों (नृ-वंशों) का उल्लेख है जो भौगोलिक रूप से भिन्न भिन्न स्थानों पर अस्तित्व में आए, और केवल वाल्मीकि-रामायण तथा महाभारत के अध्ययन से ही इसका पर्याप्त और स्पष्ट प्रमाण भी मिल जाता है।
उदारता की भारतीय परंपरा का आधार कोई नैतिक या रूढ़िगत ढंग से तय किए गए बौद्धिक आदर्शवाद से प्रेरित ध्येय ही नहीं बल्कि भारत की आध्यात्मिक शक्ति भी था।
सर्वप्रथम ईरान में जरथुष्ट्र ने एक नई संकल्पना के रूप में जरद्धर्म (Zoroastrian Doctrine) की स्थापना की जो मूलतः वैदिक ज्ञान व परंपरा की ही शाखा थी और वैदिक अग्नि-पूजा का एक थोड़ा भिन्न रूप था।
यही (पारसी) सम्प्रदाय इसलाम के माननेवालों द्वारा आक्रमण किए जाने पर शरण लेने के लिए भारत आया।
बाह्लीक देश (Balkh - Afghanistan) तथा पहलवी वंश (Iran) का वर्णन वाल्मीकि रामायण में मिलता है। इसी प्रकार यवन (Jew), म्लेच्छ (Malacca -मलेशिया), काम्बोज (Cambodia), शक (Czech), हूण / (Huen-Tsang belonged to this place later on after a long time.) आदि का वर्णन भी इसी ग्रन्थ में बालकाण्ड सर्ग 49 एवं 50 में देखा जा सकता है। यहाँ तक कि 'पृथ्वी' के 'एकमेव ईश्वर' 'इल', -- जिसे मनुष्य ही नहीं असुर, यक्ष, राक्षस, दैत्य, दानव, नाग, गन्धर्व तथा किन्नर भी सम्पूर्ण लोकों का राजा (ईश्वर) स्वीकार करते थे और जिसके भय से थर - थर काँपते थे, -- 'बाह्लीकेश्वर', जो बाह्लीक देश (Balkh - Afghanistan) का राजा था, का वर्णन भी उत्तरकाण्ड, सर्ग 87 में बहुत स्पष्ट शब्दों में है। कोई आश्चर्य नहीं कि समूचे पश्चिम में 'एकेश्वरवाद' (monotheism) की अवधारणा यहीं से प्रारंभ हुई। और यह Pagan परंपरा से भिन्न की तरह मानी जाकर Pagan परंपरा / पद्धति को 'पाप' क़रार दे दिया गया। यहीं से 'बहुदेववाद' / 'Polytheism' का विरोध पश्चिम के 'एकेश्वरवादी' करने लगे। मूर्ति-पूजा भी इसीलिए निंदनीय घोषित हो गयी।
यहूदी धर्म का प्रारंभ किस प्रकार जाबाल-ऋषि - आर्ष-अङ्गिरा (Arch-Angel Gabriel) के द्वारा मोज़ेस को दी गयी शिक्षा से हुआ यह तथ्य यहूदी परंपरा में दृष्टव्य है।
कैथोलिक-पद्धति की संकल्पना किस प्रकार कठोपनिषद् की कथा को आधार बनाकर तथा जीसस के चरित्र में नचिकेता को उस कथा को ढालकर प्रस्तुत किया गया, यह देखना भी रोचक है। कथा से जीसस के चरित्र का इतना अधिक साम्य है कि इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि कैथोलिक प्रकल्प उसी यम-नचिकेता की कथा का रूपांतरण (Adoption) है। आज भी गुड फ्राइडे के दिन जीसस को सूली पर चढ़ाया जाता है और नचिकेता की तरह जीसस भी मृत्यु के अनन्तर तीसरे दिन ईस्टर सन्डे (Ester Sunday) के दिन सकुशल जीवित 'लौट' आते हैं।
'इल' और 'कापालिक' (Cabal) से क़बीला, इस्लाम और 'इलाही' -'दीने-इलाही' का ज़रूर कोई गहरा संबंध है, यह अनुमान दूर की कौड़ी नहीं है। Jewish Cabal भी मूलतः इससे जुड़ा है। बाइबल की कैन तथा एबल (Cain and Abel), तथा क़ुरान की क़ाबिल और हाबिल की कथा की समानता से भी यही इंगित होता है कि किस प्रकार एक ही स्रोत से यहूदी तथा इस्लामी नस्लों का आगमन हुआ। संयोगवश वाल्मीकि-रामायण (अरण्यकाण्ड, सर्ग 11) में 'इल्वल तथा वातापि' इन दोनों भाइयों की कथा का घटनाक्रम भी ऐसा ही कुछ है।
(चूँकि यहाँ प्रस्तुत विचार कोई दावा या अंतिम निष्कर्ष नहीं है इसलिए ऐसा मेरा आग्रह भी नहीं है। इस पर पुनः विचार किया जा सकता है। )
किस प्रकार कैथोलिक पद्धति (Roman Catholic) को ग्रीक-धर्म (थियो- 'Theo' - suffix) के विपरीत उसका राजनीतिक ढंग से सामना करने के उद्देश्य से खड़ा किया गया और ग्रीक-धर्म (थियो-Theo) तथा दर्शन मूलतः सनातन-धर्म से विकसित हुआ (या उसका अवशिष्ट अंश था) इस विषय में भी नए सिरे से पर्याप्त अनुसंधान किया जाना ज़रूरी है।
यहाँ 'सनातन'-धर्म ही भारतवर्ष का, भारत-भूमि का वह राष्ट्रीय चरित्र है जो भारत के सांस्कृतिक स्वरूप का आधार है।
'उदारता' या 'सार्वभौम-सौहार्द्र' इसी का प्रकट रूप है, इसलिए यह धर्म कभी वैसा 'आक्रामक' नहीं हो सकता जैसा कि अपने-आपको 'एकेश्वरवादी' (Monotheistic) कहने वाले धर्म हैं।
'हिंदुत्व' की पहचान के आधार पर 'राष्ट्र' की पहचान करनेवाले इस तथ्य की उपेक्षा कर देते हैं कि 'हिन्दू' शब्द सनातन-धर्म के (600 वर्षों से पहले तक के) किसी ग्रन्थ में नहीं पाया जाता। यहाँ तक कि जैन तथा बौद्ध मत भी अपने आपको सनातन धर्म मानते हैं।
और यद्यपि 'सनातन-धर्म' व 'हिंदुत्व' समानार्थी (synonymous) अवश्य हैं, जैसे ही 'हिंदुत्व' को 'धर्म' कहा जाता है, तीनों एकेश्वरवादी religion इसके विरुद्ध संगठित हो जाते हैं। इस प्रकार 'हिंदुत्व' को 'धर्म' कहा जाना अंततः सनातन-धर्म के लिए क्षतिप्रद ही सिद्ध होता है। सबसे महत्वपूर्ण तथ्य तो यह है कि 'सत्य' की तरह 'धर्म' भी एकमेव-अद्वितीय है। और जो 'धर्म' नहीं केवल 'Religion' है, -विचारधारा या परंपरा मात्र है राजनीति तक सीमित होता है। उसे 'धर्म' कहते ही एक अंतहीन दुष्चक्र शुरू हो जाता है। राजनीतिक विचारधाराओं की टकराहट कभी समाप्त नहीं हो सकती।
'उदारता' तथा / या 'सार्वभौम-सौहार्द्र' के चलते जो प्रेमपूर्वक हमारे पास आया उसका हमने अतिथि की तरह स्वागत किया चाहे वह ज़रथुष्ट्र का धर्म हो या मोज़ेस का ; -- पारसियों और यहूदियों को भारत में शरण दी गयी, जैन और बौद्ध तो वैसे भी 'अहिंसा परमो धर्मः' के आधार पर सनातन धर्म से विपरीत नहीं तो उससे भिन्न भी कदापि नहीं हैं।
यहाँ तक कि दक्षिण भारत में प्रथम मस्जिद बनाने के लिए भी भूमि दी गयी।
अंग्रेज़ों, पुर्तगालियों और फ्रैंच, डच, स्पैनिश आदि विदेशियों ने भी धीरे धीरे क्रूरता, कुटिलता और बल के द्वारा भारत में 'धर्म' के आवरण में छिपी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूर्ण करने के लिए सनातन-धर्म की निंदा, भर्त्सना, प्रखर विरोध और निर्लज्जता से उपहास करते हुए भारत के विभिन्न वर्गों में परस्पर द्वेष और वैमनस्य पैदा किया। आर्य-द्रविड़, हिन्दू-मुस्लिम, सिख, जैन, बौद्ध, तमिल-संस्कृत जैसे आभासी रूप से भिन्न प्रतीत होनेवाले किन्तु मूलतः एक ही 'सनातन-धर्म' की भिन्न-भिन्न अभिव्यक्तियों को विभाजित करने का कुचक्र रचा। इस मामले में कम्युनिस्ट भी पीछे नहीं रहे।
यह था 'उदारता' या 'सार्वभौम-सौहार्द्र' का परिणाम !
यही उदारता; भय से अथवा 'प्रगतिशील' होने के दंभ से कब 'तुष्टीकरण' और चाटुकारिता की सीमाएँ लांघ गई इस ओर से हम पिछले 600 वर्षों से भी अधिक समय से आँखें बंद किए रहे।
जब अपात्र का 'तुष्टिकरण' किया जाता है तो वह 'दुष्टिकरण' को ही दृढ बनाता है।
पयःपानं भुजङ्गानां....... !
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