राष्ट्रनिष्ठा और देशभक्ति
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मेरा सबसे अधिक देखा गया पोस्ट इस ब्लॉग में नहीं है, यद्यपि यह ब्लॉग अवश्य ही मेरे सभी ब्लॉग्स में सबसे ज़्यादा पढ़ा जाता है। सोचा क्यों न मेरे उस पोस्ट को यहाँ प्रस्तुत करूँ, जिसे अब तक 3344 से अधिक बार देखा गया है। यह सच है कि जब 'राजस्थान-पत्रिका' का हिंदी अखबार 'पत्रिका' प्रारम्भ हुआ था, तो उस पर प्रदर्शित उसके इस 'नीति-वाक्य' / logo से ही मुझे यह कविता लिखने की प्रेरणा मिली थी।
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यह भी सच है कि इससे बहुत पहले वर्ष 1991 में सर्वप्रथम मैंने इससे मिलती जुलती सूक्ति :
वयं राष्ट्रे जागृयाम् पुरोहिताः (यजुर्वेद ९/२३)
को उज्जैन के दशहरा-मैदान स्थित गर्ल्स' डिग्री कॉलेज के गेट पर देखा था।
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फिर मैंने इस पर गौर किया कि वैदिक-दर्शन के अनुसार 'राष्ट्र' और 'राष्ट्रवाद' क्या है और क्या यह किसी संकीर्णता या कट्टरता का पर्याय हो सकता है? यह भौगोलिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक या साम्प्रदायिक सीमाओं से परे 'वसुधैव कुटुंबकम्' के अंतर्गत सभी और प्रत्येक की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता (उच्छृंखलता नहीं) और मर्यादा का हनन न करते हुए ही राष्ट्र की अस्मिता के सम्मान की रक्षा का पर्याय है।
वैचारिक अपरिपक्वता और कट्टरता से प्रभावित कोई व्यक्ति किन्हीं आग्रहों (या दुराग्रहों) के चलते 'हिंसा' को राजनीतिक हथियार बनाते हुए भी अपने-आपको 'देशभक्त' कह सकता है और 'हिंसा' के उसके तरीके का न्यायोचित 'कर्तव्य' होने का दावा भी कर सकता है, और ऐसे किसी व्यक्ति की 'देशभक्ति' पर प्रश्न भी उठाया जाना चाहिए, किन्तु उसे आतंकवादी कह देना कहाँ तक और कितना उचित है? उसकी राष्ट्रनिष्ठा कितनी सत्य है यह तो उसे ही पता होगा किन्तु उसका ध्यान इस ओर आकर्षित किया जाना ज़रूरी है कि हिंसक राजनीतिक तरीकों से किसी उद्देश्य की प्राप्ति अंततः एक मरीचिका ही सिद्ध होती है।
दूसरी ओर कुछ ऐसे भ्रमित या स्वार्थी राजनीतिवादी भी हैं, जिनकी निष्ठा न तो राष्ट्र और न राष्ट्रवाद में होती है और जो मूलतः अवसरवादी भर होते हैं। इसके विस्तार में जाना अनावश्यक है। ऐसे लोगों के कुछ उदाहरण राजनीति में अक्सर दिखाई देते हैं।
इसलिए भी राष्ट्र को उन पुरोहितों की हमेशा ही अत्यंत आवश्यकता है, जो राष्ट्र के जनमानस को सतत जागृत रखें, जागृत करते रहें। 'इलेक्ट्रॉनिक मीडिया' को भी चाहिए कि वह भी ऐसा पुरोहित हो।
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मेरा सबसे अधिक देखा गया पोस्ट इस ब्लॉग में नहीं है, यद्यपि यह ब्लॉग अवश्य ही मेरे सभी ब्लॉग्स में सबसे ज़्यादा पढ़ा जाता है। सोचा क्यों न मेरे उस पोस्ट को यहाँ प्रस्तुत करूँ, जिसे अब तक 3344 से अधिक बार देखा गया है। यह सच है कि जब 'राजस्थान-पत्रिका' का हिंदी अखबार 'पत्रिका' प्रारम्भ हुआ था, तो उस पर प्रदर्शित उसके इस 'नीति-वाक्य' / logo से ही मुझे यह कविता लिखने की प्रेरणा मिली थी।
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यह भी सच है कि इससे बहुत पहले वर्ष 1991 में सर्वप्रथम मैंने इससे मिलती जुलती सूक्ति :
वयं राष्ट्रे जागृयाम् पुरोहिताः (यजुर्वेद ९/२३)
को उज्जैन के दशहरा-मैदान स्थित गर्ल्स' डिग्री कॉलेज के गेट पर देखा था।
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फिर मैंने इस पर गौर किया कि वैदिक-दर्शन के अनुसार 'राष्ट्र' और 'राष्ट्रवाद' क्या है और क्या यह किसी संकीर्णता या कट्टरता का पर्याय हो सकता है? यह भौगोलिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक या साम्प्रदायिक सीमाओं से परे 'वसुधैव कुटुंबकम्' के अंतर्गत सभी और प्रत्येक की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता (उच्छृंखलता नहीं) और मर्यादा का हनन न करते हुए ही राष्ट्र की अस्मिता के सम्मान की रक्षा का पर्याय है।
वैचारिक अपरिपक्वता और कट्टरता से प्रभावित कोई व्यक्ति किन्हीं आग्रहों (या दुराग्रहों) के चलते 'हिंसा' को राजनीतिक हथियार बनाते हुए भी अपने-आपको 'देशभक्त' कह सकता है और 'हिंसा' के उसके तरीके का न्यायोचित 'कर्तव्य' होने का दावा भी कर सकता है, और ऐसे किसी व्यक्ति की 'देशभक्ति' पर प्रश्न भी उठाया जाना चाहिए, किन्तु उसे आतंकवादी कह देना कहाँ तक और कितना उचित है? उसकी राष्ट्रनिष्ठा कितनी सत्य है यह तो उसे ही पता होगा किन्तु उसका ध्यान इस ओर आकर्षित किया जाना ज़रूरी है कि हिंसक राजनीतिक तरीकों से किसी उद्देश्य की प्राप्ति अंततः एक मरीचिका ही सिद्ध होती है।
दूसरी ओर कुछ ऐसे भ्रमित या स्वार्थी राजनीतिवादी भी हैं, जिनकी निष्ठा न तो राष्ट्र और न राष्ट्रवाद में होती है और जो मूलतः अवसरवादी भर होते हैं। इसके विस्तार में जाना अनावश्यक है। ऐसे लोगों के कुछ उदाहरण राजनीति में अक्सर दिखाई देते हैं।
इसलिए भी राष्ट्र को उन पुरोहितों की हमेशा ही अत्यंत आवश्यकता है, जो राष्ट्र के जनमानस को सतत जागृत रखें, जागृत करते रहें। 'इलेक्ट्रॉनिक मीडिया' को भी चाहिए कि वह भी ऐसा पुरोहित हो।
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