रमज़ान के बहाने
तू ख़ुदा है, न तेरा प्यार फ़रिश्तों जैसा,
दोनों इंसां हैं तो क्यों इतने हिजाबों में मिले !
--
यह जो रमज़ान का महीना है, न तो चान्द्र-वर्ष से और न सौर-वर्ष से परिभाषित होता है । इसलामी परंपरा से यह नए चांद के दर्शन के बाद शुरू हुए सावान मास तथा सव्वाल मास के बीच में आता है । शायद इसीलिए यह प्रतिवर्ष भारतीय सौर-वर्ष या चान्द्र-वर्ष के, तथा अंग्रेज़ी रोमन कैलेंडर के भी अलग अलग महीनों में आता है । 'ईद' शब्द का मूल संस्कृत ईड् / ईड्यते, ईळ् / ईळ्यते में देखा जा सकता है और यह तथ्य रोचक है कि ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के पहले मन्त्र में ही ’अग्निमीडे’ / ’अग्निमीळे’ अर्थात् मैं अग्नि की पूजा / उपासना / आराधना करता हूँ; -यह शब्द विद्यमान है । संस्कृत में ’अय्’ और ’या’ दोनों धातुओं का प्रयोग ’जाने’ की क्रिया के लिए होता है । ’या - याति’ से बना है -’आ-याति,’ और इसका अर्थ है ’आना’ । संस्कृत में माहेश्वर अक्षर-समाम्नाय से बना ’अल्’ प्रत्याहार का प्रयोग ’अलोऽन्त्यस्य’ (अष्टाध्यायी १/१/५२) में है जहाँ से स्पष्ट होता है ’अल्’ प्रत्याहार अ इ उ ण् । ऋ लृ क् । ए ओ ङ् । ऐ औ च् । ह य व र ट् । ल ण् । ञ म ङ ण न म् । झ भ ञ् । घ ढ ध ष् । ज ब ग ड द श् । ख फ छ ठ थ च ट त व् । क प य् । श ष स र् । ह ल् । में विद्यमान ’अ’ से 'ह' अर्थात् ’ल्’ तक सभी वर्णों पर लागू होता है ।
जाबालि ऋषि यूँ तो भगवान् श्रीराम की सभा (दरबार) के ’सभ्य’ अर्थात् पार्षद होने से भगवान् विष्णु के भी पार्षद हैं ही क्योंकि श्रीराम श्रीविष्णु के ही अवतार हैं किंतु पार्षद शब्द ’परिषद्’ से संबंधित है और पुनः ’परि’ उपसर्ग के साथ ’सद्’ धातु (बैठने के अर्थ में - ’सीदन्ति मम गात्राणि’ -गीता) जुड़ने से ’परिषद्’ बना है ।
यही शब्द फ़ारसी में फरिश्तः और हिन्दी / उर्दू में फ़रिश्ता बन जाता है जिसका संकोच होकर ’रिश्ता’ (संबंध) शब्द बना है ।
जाबालि ऋषि ने सर्वप्रथम मोज़ेस को अपना परिचय देते हुए कहा था :
'JEHOVAH' जो :
’मैं’ - ’मैं वह हूँ ।’ ’मैं’ वह ’मैं’ हूँ । का ही हिब्रू रूपांतरण है।
संस्कृत ऋग्वेद में वर्णित 'यह्व' से इसका कितना संबंध है इस बारे में यहाँ कुछ लिखना अप्रासंगिक जान पड़ता है।
हिब्रू भाषा में इसे येहोवा 'JEHOVAH' तथा संस्कृत में "य ह वै (अहम्)" अर्थात् जो मैं हूँ, वह (परमेश्वर) भी वही है" कहा जाएगा ।
(श्री रमण महर्षि से बातचीत / Talks with Sri Ramana Maharshi No. 77, 106, 112)
तात्पर्य यह कि ’मैं’; - परमेश्वर का ही नाम है ।
फ़ारसी में दो शब्द हैं जो इसी तात्पर्य को ध्वनित करते हैं ’ख़ुद’ और ’ख़ुदा’ । संक्षेप में :
परमेश्वर और ख़ुद एकमेवोद्वितीयो-नास्ति, परस्पर अभिन्न हैं ।
जैसे ही 'ईश्वर' के बारे में कुछ कहा जाता है, कहनेवाला अपने-आप उसी क्षण उससे विच्छिन्न हो जाता है।
और इसीलिए जैसे ही मनुष्य ख़ुद को और उस ख़ुदावन्द्य (खुदावंद) को ’व्यक्ति-विशेष’ के रूप में ग्रहण करता है, - ’वैयक्तिक’ ईश्वर की धारणा का उद्भव होता है । जबकि ईश्वर जो ईशिता / समष्टि (all / ऑल) है उसे इस प्रकार 'अपने' से अलग वैयक्तिक स्वरूप देकर स्वयं को भी ख़ुद की तरह व्यक्ति-विशेष मान लिया जाता है ।
जाबालि ऋषि चूँकि दूसरे ऋषियों से भिन्न मनोरचना (temperament / टेम्परामेन्ट) के ऋषि हैं और भगवान् शिव के भी उतने ही बड़े भक्त हैं जितने श्रीराम के, इसलिए उन्होंने इसलाम के संस्थापक को जिस उक्ति में उपदेश दिया वह अरबी भाषा में :
"ला इलाहा इल अल्लाह" के सूत्र में था । (इसमें यदि कोई त्रुटि हुई हो, तो कृपया सुधार लें । )
चूँकि इसलाम, ईसाइयत और यहूदी मत के उद्भव से पहले के उस काल तक वाल्मीकि-रामायण में वर्णित राजा ’इल’ को ही असुर, यक्ष, राक्षस, नाग, गंधर्व, किंनर आदि सभी मनुष्यों द्वारा सम्पूर्ण पृथ्वी का एकमेव ’ईश्वर’ माना जाता था ।
उपरोक्त सूत्र का सीधा तात्पर्य होगा : ’इलः’ से अन्य और कोई परमेश्वर नहीं है ।
किन्तु इसका तात्पर्य यह तो बिलकुल नहीं था कि अन्य मूर्तियों को तोड़ दिया जाए । जो लोग किसी मूर्ति की पूजा करते हैं उनकी मान्यता और श्रद्धा / विश्वास का आदर न भी करें, तो बस उपेक्षा कर देना ही पर्याप्त है ।
अरब देशों से इतर दूसरी जगहों पर रहनेवाले मुसलमानों को शायद ही आभास होगा कि ’नमाज़’ और ’ख़ुदा’ फ़ारसी भाषा के शब्द हैं और अरबी में उनके लिए कोई दूसरे शब्द इस्तेमाल किए जाते हैं । अरबी भाषा में परमेश्वर के लिए ’अल्लाह’ शब्द प्रयुक्त होता है, ऐसा मुझे लगता है ।
नमाज़ के लिए शायद صلاة (गूगल-'अनुवाद' से) जिसका पुनः हिंदी अनुवाद है --
'प्रार्थना' - (पुनः गूगल-'अनुवाद' से) ।
जाबालि ऋषि जो इस प्रकार ’ईशदूत’ (Angel / एन्जिल / फ़रिश्ते) थे / हैं, मूलतः सनातन धर्म का ही उपदेश, पात्रता के अनुसार सभी को देते थे / हैं । सनातन धर्म का अर्थ है अविनाशी, अविकारी धर्म।
[ये पाप है क्या, ये पुण्य है क्या,
रीतों पर धर्म की, मुहरें हैं !
हर युग में बदलते धर्मों को,
कैसे आदर्श बनाओगे?]
इसलिए केवल अधर्म की ही पहचान की जाकर उसका त्याग करना सरल स्वाभाविक अविनाशी (imperishable, immortal) अविकारी (Changeless, Immutable, Pure, Genuine) वास्तविक धर्म या सनातन-धर्म है। शब्द का नहीं, बस उसका ही आग्रह है। नैतिकता / ethics, आस्तिकता / Faith in God / नास्तिकता / atheism, अज्ञेयता / agnosticism, विश्वास / belief, मान्यताएँ / assumptions किसी हद तक ज़रुरत हो सकती हैं लेकिन ऐसे भौतिक तथ्य नहीं जिन्हें इस प्रकार परिभाषित किया जा सके जिससे हर मनुष्य राज़ी हो सके।
मोज़ेस को जाबालि ऋषि ने जो उपदेश दिया, अक्षरशः वही उपदेश मोहम्मद को भी दिया जिसे ’आयत’ कहा जाता है ।
आर्च-एन्जिल Arch -Angel, जिसे बाइबल में ’ईश्वरीय दूत’ कहा गया है वास्तव में ’आर्ष-अङ्गिरा’ का ही सज्ञात / सज्ञाति (cognate) शब्द है, - यह प्रत्यक्ष ही है, जिसे समझने के लिए किसी अन्य व्युत्पत्ति को देखना अनावश्यक है ।
कैथोलिक Catholic सम्प्रदाय का आधार बाइबल है जिसमें कठोपनिषद् की नचिकेता की कथा को आधार बनाकर ’जीसस’ का चरित्र गढा गया है ।
’कैथोलिक’ Catholic और ’कठोपनिषद्’ का साम्य भी इसी की पुष्टि करता है ।
इसी प्रकार शिव के ’कापालिक’ स्वरूप (कपाल / मस्तक) से क़ाबा का साम्य देखना भी कठिन नहीं है ।
वास्तव में ’कापालिक’, कपाल या मस्तक के अर्थ में प्रयोग होता है और इसी से 'Cabal', ज्यू-कबाल, क़बीला आदि का उद्भव भी हुआ । अंग्रेज़ी में ’कैप’ (Cap) , ’कब’ (cub) (शिशु), cube, इसी से बने । दूसरी ओर इसे लिंग के अर्थ में ’Phallus’ कहा गया जिसका संबंध ’पीलुस्थान’ - वर्तमान फ़िलस्तीन / पैलेस्टाइन (Palestine) से है ।
मोज़ेस और उनके समुदाय को जब ईजिप्ट छोड़ना पड़ा तब लाल-सागर के किनारे और उसके बाद भी भगवान् शिव का एक ज्योतिर्लिंग रात्रि में उनके साथ सामने थोड़ी दूर पर दिखाई देता हुआ उनका मार्गदर्शन करता रहा, वहीं इन्द्र (मघवा / मघवन् / मेघवान् Metatron ) भी तपती धूप में दिन के समय में उन पर छाया करते रहे । जाबालि तो प्रत्यक्षतः उनके साथ थे ही जो वाणी से ही उन्हें अपना परिचय और प्रेरणा दे रहे थे । मोज़ेस के ’एक्सोडस’/ Exodus में यही प्रसंग स्पष्ट है ।
उपरोक्त ’अध्ययन’ मेरा निजी चिन्तन है और मेरा उद्देश्य किसी सम्प्रदाय-मत आदि की समीक्षा, आलोचना या खंडन-मंडन करना आदि कदापि नहीं है ।
मुझे यह सारी प्रेरणा कैसे मिली इसका मेरे पास कोई स्पष्ट उत्तर नहीं है, परन्तु मुझे लगता है कि मैं इसके लिए (इन्जीनियर) मॉरिस फ़्रीड्मन (Maurice Frydman) को ही इसका श्रेय दे सकता हूँ। वे एक पोलिश यहूदी थे, और आध्यात्मिक जिज्ञासा से उत्कंठित होकर भारत आए थे । श्री मॉरिस फ़्रीड्मन पहले तो तत्कालीन ’ओंढ’ नामक छोटी सी भारतीय रियासत के राजा के राज्य में नौकरी करने आए थे, और महात्मा गाँधी से प्रभावित होकर उन्होंने राजा को प्रेरित किया कि वे अपना राज्य ’लोकहित’ के लिए समर्पित करें और स्वयं को अधिक-से-अधिक राज्य का एक ’ट्रस्टी’ Trusty भर समझें । (इन्जीनियर) श्री मॉरिस फ़्रीड्मन, जो शुरू में स्वामी भारतानन्द के नाम से संन्यासी वेश में रहते थे, - ने जब देखा कि लोग उन्हें इसलिए इतना सम्मान देते हैं कि वे कषायवस्त्रधारी संन्यासी हैं, तो उन्होंने उन गेरुए वस्त्रों को भी त्याग दिया और खद्दर का कुर्ता-पाजामा पहनने लगे । बाद में वे श्री रमण महर्षि, श्री जे.कृष्णमूर्ति तथा श्री निसर्गदत्त महाराज से मिले और उनके उपदेशों का श्रवण और तदनुसार आत्मानुसंधान किया । शायद यहूदी होने की पृष्ठभूमि के ही कारण उन्हें इन महापुरुषों की शिक्षाओं ने आकर्षित किया और उन्हें वे अनायास हृदयंगम हुई । (इन्जीनियर) श्री मॉरिस फ़्रीड्मन ने श्री निसर्गदत्त महाराज के 101 मूलतः मराठी में दिए गए प्रवचनों (’सुखसंवाद) का संग्रह अंग्रेज़ी में अनुवादित किया, जो ’I AM THAT’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ । ईश्वर की प्रेरणा और आशीर्वाद से मुझे यह सौभाग्य मिला कि मैंने इस ग्रन्थ का अनुवाद हिन्दी में करना चाहा, जो ईश्वरीय संकल्प और आज्ञा से ही ’अहं ब्रह्मास्मि’ के शीर्षक से ’चेतना.कॉम’ से वर्ष 2001 में पहली बार प्रकाशित हुआ । इसे संयोग ही कहा जा सकता है कि इस पुस्तक में छपे मेरे ’पते’ वाले स्थान उज्जैन को मैंने 5 फ़रवरी, सन् 2000 को ही हमेशा के लिए छोड़ दिया था ।
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मैं सोचता हूँ कि ’धर्म’ की कट्टर व्याख्याओं से पूरे संसार का जो घोर अहित हुआ है, उसका इलाज़ यही है कि सभी लोग मिलकर और अपने लिए ही, -अलग-अलग भी, ’धर्म’ के मूल तत्व का अन्वेषण करें, और अपने आग्रहों से बाहर निकलकर दूसरों को उपदेश देने की बजाय पहले ख़ुद (अपने-आप) को जानें-समझें । किसी 'दूसरे' के धर्म की निंदा-भर्त्सना करना, मख़ौल उड़ाना और बलपूर्वक उसे अपने मत में दीक्षित करना वास्तव में सभी के लिए और अपने-आपके लिए भी अत्यंत घातक है।
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तू ख़ुदा है, न तेरा प्यार फ़रिश्तों जैसा,
दोनों इंसां हैं तो क्यों इतने हिजाबों में मिले !
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यह जो रमज़ान का महीना है, न तो चान्द्र-वर्ष से और न सौर-वर्ष से परिभाषित होता है । इसलामी परंपरा से यह नए चांद के दर्शन के बाद शुरू हुए सावान मास तथा सव्वाल मास के बीच में आता है । शायद इसीलिए यह प्रतिवर्ष भारतीय सौर-वर्ष या चान्द्र-वर्ष के, तथा अंग्रेज़ी रोमन कैलेंडर के भी अलग अलग महीनों में आता है । 'ईद' शब्द का मूल संस्कृत ईड् / ईड्यते, ईळ् / ईळ्यते में देखा जा सकता है और यह तथ्य रोचक है कि ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के पहले मन्त्र में ही ’अग्निमीडे’ / ’अग्निमीळे’ अर्थात् मैं अग्नि की पूजा / उपासना / आराधना करता हूँ; -यह शब्द विद्यमान है । संस्कृत में ’अय्’ और ’या’ दोनों धातुओं का प्रयोग ’जाने’ की क्रिया के लिए होता है । ’या - याति’ से बना है -’आ-याति,’ और इसका अर्थ है ’आना’ । संस्कृत में माहेश्वर अक्षर-समाम्नाय से बना ’अल्’ प्रत्याहार का प्रयोग ’अलोऽन्त्यस्य’ (अष्टाध्यायी १/१/५२) में है जहाँ से स्पष्ट होता है ’अल्’ प्रत्याहार अ इ उ ण् । ऋ लृ क् । ए ओ ङ् । ऐ औ च् । ह य व र ट् । ल ण् । ञ म ङ ण न म् । झ भ ञ् । घ ढ ध ष् । ज ब ग ड द श् । ख फ छ ठ थ च ट त व् । क प य् । श ष स र् । ह ल् । में विद्यमान ’अ’ से 'ह' अर्थात् ’ल्’ तक सभी वर्णों पर लागू होता है ।
जाबालि ऋषि यूँ तो भगवान् श्रीराम की सभा (दरबार) के ’सभ्य’ अर्थात् पार्षद होने से भगवान् विष्णु के भी पार्षद हैं ही क्योंकि श्रीराम श्रीविष्णु के ही अवतार हैं किंतु पार्षद शब्द ’परिषद्’ से संबंधित है और पुनः ’परि’ उपसर्ग के साथ ’सद्’ धातु (बैठने के अर्थ में - ’सीदन्ति मम गात्राणि’ -गीता) जुड़ने से ’परिषद्’ बना है ।
यही शब्द फ़ारसी में फरिश्तः और हिन्दी / उर्दू में फ़रिश्ता बन जाता है जिसका संकोच होकर ’रिश्ता’ (संबंध) शब्द बना है ।
जाबालि ऋषि ने सर्वप्रथम मोज़ेस को अपना परिचय देते हुए कहा था :
'JEHOVAH' जो :
’मैं’ - ’मैं वह हूँ ।’ ’मैं’ वह ’मैं’ हूँ । का ही हिब्रू रूपांतरण है।
संस्कृत ऋग्वेद में वर्णित 'यह्व' से इसका कितना संबंध है इस बारे में यहाँ कुछ लिखना अप्रासंगिक जान पड़ता है।
हिब्रू भाषा में इसे येहोवा 'JEHOVAH' तथा संस्कृत में "य ह वै (अहम्)" अर्थात् जो मैं हूँ, वह (परमेश्वर) भी वही है" कहा जाएगा ।
(श्री रमण महर्षि से बातचीत / Talks with Sri Ramana Maharshi No. 77, 106, 112)
तात्पर्य यह कि ’मैं’; - परमेश्वर का ही नाम है ।
फ़ारसी में दो शब्द हैं जो इसी तात्पर्य को ध्वनित करते हैं ’ख़ुद’ और ’ख़ुदा’ । संक्षेप में :
परमेश्वर और ख़ुद एकमेवोद्वितीयो-नास्ति, परस्पर अभिन्न हैं ।
जैसे ही 'ईश्वर' के बारे में कुछ कहा जाता है, कहनेवाला अपने-आप उसी क्षण उससे विच्छिन्न हो जाता है।
और इसीलिए जैसे ही मनुष्य ख़ुद को और उस ख़ुदावन्द्य (खुदावंद) को ’व्यक्ति-विशेष’ के रूप में ग्रहण करता है, - ’वैयक्तिक’ ईश्वर की धारणा का उद्भव होता है । जबकि ईश्वर जो ईशिता / समष्टि (all / ऑल) है उसे इस प्रकार 'अपने' से अलग वैयक्तिक स्वरूप देकर स्वयं को भी ख़ुद की तरह व्यक्ति-विशेष मान लिया जाता है ।
जाबालि ऋषि चूँकि दूसरे ऋषियों से भिन्न मनोरचना (temperament / टेम्परामेन्ट) के ऋषि हैं और भगवान् शिव के भी उतने ही बड़े भक्त हैं जितने श्रीराम के, इसलिए उन्होंने इसलाम के संस्थापक को जिस उक्ति में उपदेश दिया वह अरबी भाषा में :
"ला इलाहा इल अल्लाह" के सूत्र में था । (इसमें यदि कोई त्रुटि हुई हो, तो कृपया सुधार लें । )
चूँकि इसलाम, ईसाइयत और यहूदी मत के उद्भव से पहले के उस काल तक वाल्मीकि-रामायण में वर्णित राजा ’इल’ को ही असुर, यक्ष, राक्षस, नाग, गंधर्व, किंनर आदि सभी मनुष्यों द्वारा सम्पूर्ण पृथ्वी का एकमेव ’ईश्वर’ माना जाता था ।
उपरोक्त सूत्र का सीधा तात्पर्य होगा : ’इलः’ से अन्य और कोई परमेश्वर नहीं है ।
किन्तु इसका तात्पर्य यह तो बिलकुल नहीं था कि अन्य मूर्तियों को तोड़ दिया जाए । जो लोग किसी मूर्ति की पूजा करते हैं उनकी मान्यता और श्रद्धा / विश्वास का आदर न भी करें, तो बस उपेक्षा कर देना ही पर्याप्त है ।
अरब देशों से इतर दूसरी जगहों पर रहनेवाले मुसलमानों को शायद ही आभास होगा कि ’नमाज़’ और ’ख़ुदा’ फ़ारसी भाषा के शब्द हैं और अरबी में उनके लिए कोई दूसरे शब्द इस्तेमाल किए जाते हैं । अरबी भाषा में परमेश्वर के लिए ’अल्लाह’ शब्द प्रयुक्त होता है, ऐसा मुझे लगता है ।
नमाज़ के लिए शायद صلاة (गूगल-'अनुवाद' से) जिसका पुनः हिंदी अनुवाद है --
'प्रार्थना' - (पुनः गूगल-'अनुवाद' से) ।
जाबालि ऋषि जो इस प्रकार ’ईशदूत’ (Angel / एन्जिल / फ़रिश्ते) थे / हैं, मूलतः सनातन धर्म का ही उपदेश, पात्रता के अनुसार सभी को देते थे / हैं । सनातन धर्म का अर्थ है अविनाशी, अविकारी धर्म।
[ये पाप है क्या, ये पुण्य है क्या,
रीतों पर धर्म की, मुहरें हैं !
हर युग में बदलते धर्मों को,
कैसे आदर्श बनाओगे?]
इसलिए केवल अधर्म की ही पहचान की जाकर उसका त्याग करना सरल स्वाभाविक अविनाशी (imperishable, immortal) अविकारी (Changeless, Immutable, Pure, Genuine) वास्तविक धर्म या सनातन-धर्म है। शब्द का नहीं, बस उसका ही आग्रह है। नैतिकता / ethics, आस्तिकता / Faith in God / नास्तिकता / atheism, अज्ञेयता / agnosticism, विश्वास / belief, मान्यताएँ / assumptions किसी हद तक ज़रुरत हो सकती हैं लेकिन ऐसे भौतिक तथ्य नहीं जिन्हें इस प्रकार परिभाषित किया जा सके जिससे हर मनुष्य राज़ी हो सके।
मोज़ेस को जाबालि ऋषि ने जो उपदेश दिया, अक्षरशः वही उपदेश मोहम्मद को भी दिया जिसे ’आयत’ कहा जाता है ।
आर्च-एन्जिल Arch -Angel, जिसे बाइबल में ’ईश्वरीय दूत’ कहा गया है वास्तव में ’आर्ष-अङ्गिरा’ का ही सज्ञात / सज्ञाति (cognate) शब्द है, - यह प्रत्यक्ष ही है, जिसे समझने के लिए किसी अन्य व्युत्पत्ति को देखना अनावश्यक है ।
कैथोलिक Catholic सम्प्रदाय का आधार बाइबल है जिसमें कठोपनिषद् की नचिकेता की कथा को आधार बनाकर ’जीसस’ का चरित्र गढा गया है ।
’कैथोलिक’ Catholic और ’कठोपनिषद्’ का साम्य भी इसी की पुष्टि करता है ।
इसी प्रकार शिव के ’कापालिक’ स्वरूप (कपाल / मस्तक) से क़ाबा का साम्य देखना भी कठिन नहीं है ।
वास्तव में ’कापालिक’, कपाल या मस्तक के अर्थ में प्रयोग होता है और इसी से 'Cabal', ज्यू-कबाल, क़बीला आदि का उद्भव भी हुआ । अंग्रेज़ी में ’कैप’ (Cap) , ’कब’ (cub) (शिशु), cube, इसी से बने । दूसरी ओर इसे लिंग के अर्थ में ’Phallus’ कहा गया जिसका संबंध ’पीलुस्थान’ - वर्तमान फ़िलस्तीन / पैलेस्टाइन (Palestine) से है ।
मोज़ेस और उनके समुदाय को जब ईजिप्ट छोड़ना पड़ा तब लाल-सागर के किनारे और उसके बाद भी भगवान् शिव का एक ज्योतिर्लिंग रात्रि में उनके साथ सामने थोड़ी दूर पर दिखाई देता हुआ उनका मार्गदर्शन करता रहा, वहीं इन्द्र (मघवा / मघवन् / मेघवान् Metatron ) भी तपती धूप में दिन के समय में उन पर छाया करते रहे । जाबालि तो प्रत्यक्षतः उनके साथ थे ही जो वाणी से ही उन्हें अपना परिचय और प्रेरणा दे रहे थे । मोज़ेस के ’एक्सोडस’/ Exodus में यही प्रसंग स्पष्ट है ।
उपरोक्त ’अध्ययन’ मेरा निजी चिन्तन है और मेरा उद्देश्य किसी सम्प्रदाय-मत आदि की समीक्षा, आलोचना या खंडन-मंडन करना आदि कदापि नहीं है ।
मुझे यह सारी प्रेरणा कैसे मिली इसका मेरे पास कोई स्पष्ट उत्तर नहीं है, परन्तु मुझे लगता है कि मैं इसके लिए (इन्जीनियर) मॉरिस फ़्रीड्मन (Maurice Frydman) को ही इसका श्रेय दे सकता हूँ। वे एक पोलिश यहूदी थे, और आध्यात्मिक जिज्ञासा से उत्कंठित होकर भारत आए थे । श्री मॉरिस फ़्रीड्मन पहले तो तत्कालीन ’ओंढ’ नामक छोटी सी भारतीय रियासत के राजा के राज्य में नौकरी करने आए थे, और महात्मा गाँधी से प्रभावित होकर उन्होंने राजा को प्रेरित किया कि वे अपना राज्य ’लोकहित’ के लिए समर्पित करें और स्वयं को अधिक-से-अधिक राज्य का एक ’ट्रस्टी’ Trusty भर समझें । (इन्जीनियर) श्री मॉरिस फ़्रीड्मन, जो शुरू में स्वामी भारतानन्द के नाम से संन्यासी वेश में रहते थे, - ने जब देखा कि लोग उन्हें इसलिए इतना सम्मान देते हैं कि वे कषायवस्त्रधारी संन्यासी हैं, तो उन्होंने उन गेरुए वस्त्रों को भी त्याग दिया और खद्दर का कुर्ता-पाजामा पहनने लगे । बाद में वे श्री रमण महर्षि, श्री जे.कृष्णमूर्ति तथा श्री निसर्गदत्त महाराज से मिले और उनके उपदेशों का श्रवण और तदनुसार आत्मानुसंधान किया । शायद यहूदी होने की पृष्ठभूमि के ही कारण उन्हें इन महापुरुषों की शिक्षाओं ने आकर्षित किया और उन्हें वे अनायास हृदयंगम हुई । (इन्जीनियर) श्री मॉरिस फ़्रीड्मन ने श्री निसर्गदत्त महाराज के 101 मूलतः मराठी में दिए गए प्रवचनों (’सुखसंवाद) का संग्रह अंग्रेज़ी में अनुवादित किया, जो ’I AM THAT’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ । ईश्वर की प्रेरणा और आशीर्वाद से मुझे यह सौभाग्य मिला कि मैंने इस ग्रन्थ का अनुवाद हिन्दी में करना चाहा, जो ईश्वरीय संकल्प और आज्ञा से ही ’अहं ब्रह्मास्मि’ के शीर्षक से ’चेतना.कॉम’ से वर्ष 2001 में पहली बार प्रकाशित हुआ । इसे संयोग ही कहा जा सकता है कि इस पुस्तक में छपे मेरे ’पते’ वाले स्थान उज्जैन को मैंने 5 फ़रवरी, सन् 2000 को ही हमेशा के लिए छोड़ दिया था ।
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मैं सोचता हूँ कि ’धर्म’ की कट्टर व्याख्याओं से पूरे संसार का जो घोर अहित हुआ है, उसका इलाज़ यही है कि सभी लोग मिलकर और अपने लिए ही, -अलग-अलग भी, ’धर्म’ के मूल तत्व का अन्वेषण करें, और अपने आग्रहों से बाहर निकलकर दूसरों को उपदेश देने की बजाय पहले ख़ुद (अपने-आप) को जानें-समझें । किसी 'दूसरे' के धर्म की निंदा-भर्त्सना करना, मख़ौल उड़ाना और बलपूर्वक उसे अपने मत में दीक्षित करना वास्तव में सभी के लिए और अपने-आपके लिए भी अत्यंत घातक है।
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