लापतागंज / अज्ञेयवाद और वैचारिक सत्य
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... इस प्रकार यह स्पष्ट है कि किसी विषय की वैचारिक स्मृति उसका 'भाषागत निरूपण' है और यह स्मृति अर्थात् भाषागत 'जानकारी' कितनी भी व्याकरणसम्मत भी क्यों न हो, केवल एक मानसिक शब्द-प्रतिमा है जिसका जो भी तात्पर्य ग्रहण किया जाता हो, भाषा के अंतर्गत पुनः केवल सुगठित या अपेक्षाकृत कम सुगठित शाब्दिक संरचना भर होता है। जैसे कोई गणितीय विवेचना या कंप्यूटर पर प्रयोग किए जानेवाला लिखित 'प्रोग्राम' होता है । उस लिखित 'कोड' को पढ़कर कोई जानकार 'डिकोड' कर सकता है और 'प्रोग्राम' / 'ऐप' का उपयोगकर्ता अपना कोई प्रयोजन तो सिद्ध कर सकता है किन्तु 'कोडिंग'-'डिकोडिंग' से उसका कोई लेना-देना नहीं होता। इस प्रकार 'जानकारी-युक्त' ज्ञान भी पुनः सार्थक या सप्रयोजन हो सकता है। जब यह केवल सप्रयोजन होता है; - जैसे कि 'ऐप' या प्रोग्राम के सन्दर्भ में, तो उसके विस्तृत 'अर्थ' का कोई विशेष मतलब नहीं होता, और जब विस्तृत बारीकी से इसकी रचना महत्वपूर्ण होती है; - जैसे कि 'प्रोग्रामर' के लिए होती है तब 'प्रयोजन' बिलकुल भिन्न होता है।
इसलिए ऐसा ज्ञान मूलतः और अंततः परिणाम की दृष्टि से भी ज्ञान का भ्रम होता है, लेकिन व्यवहार में उसे ज्ञान ही कहा जाता है। दूसरी ओर, ऐसे तथाकथित 'ज्ञान' या 'अज्ञान' (नामक इसके अभाव) का भान / बोध यद्यपि निःशब्द होता है जहाँ वस्तुतः 'कुछ भी' नहीं जाना जाता, लेकिन कोई 'जाननेवाला' वहाँ अकाट्य रूप से मौजूद है जिसे 'वैचारिक सत्य' की तरह न तो व्यक्त किया जा सकता है और न वह वैसा कोई 'वैचारिक सत्य' है, जिसका उपयोग साहित्य, कला, गणित, दर्शन-शास्त्र, विज्ञान या तकनीक (technology) आदि में होता है। और वह न तो भावना का, बुद्धि का, अनुभव का या स्मृति का विषय हो सकता है। लेकिन यह कहना भी त्रुटिपूर्ण है कि उसे 'जाना 'नहीं जा सकता। जिस बोध / भान (awareness) में उसे जाना जाता है वह बोध / भान (awareness) ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय के विभाजन से रहित होने से वास्तव में उसे अपने से भिन्न किसी दूसरी वस्तु की तरह वैसे नहीं जाना जा सकता जैसे किसी प्रकार के लौकिक ज्ञान को जाना जाता है, जहाँ ऐसा विभाजन अवश्य होता है। इसलिए निष्कर्ष के रूप में 'अज्ञेयवाद' भी वैसा ही भ्रम है जैसा कि आस्तिकता या नास्तिकता की मान्यता / विश्वास / सिद्धांत।
अस्तित्व, जीवन या वज़ूद कभी ज्ञान / अज्ञान का विषय नहीं होता। इसलिए 'अज्ञेयवाद' अपने-आप में एक अर्थहीन शब्द है।
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... इस प्रकार यह स्पष्ट है कि किसी विषय की वैचारिक स्मृति उसका 'भाषागत निरूपण' है और यह स्मृति अर्थात् भाषागत 'जानकारी' कितनी भी व्याकरणसम्मत भी क्यों न हो, केवल एक मानसिक शब्द-प्रतिमा है जिसका जो भी तात्पर्य ग्रहण किया जाता हो, भाषा के अंतर्गत पुनः केवल सुगठित या अपेक्षाकृत कम सुगठित शाब्दिक संरचना भर होता है। जैसे कोई गणितीय विवेचना या कंप्यूटर पर प्रयोग किए जानेवाला लिखित 'प्रोग्राम' होता है । उस लिखित 'कोड' को पढ़कर कोई जानकार 'डिकोड' कर सकता है और 'प्रोग्राम' / 'ऐप' का उपयोगकर्ता अपना कोई प्रयोजन तो सिद्ध कर सकता है किन्तु 'कोडिंग'-'डिकोडिंग' से उसका कोई लेना-देना नहीं होता। इस प्रकार 'जानकारी-युक्त' ज्ञान भी पुनः सार्थक या सप्रयोजन हो सकता है। जब यह केवल सप्रयोजन होता है; - जैसे कि 'ऐप' या प्रोग्राम के सन्दर्भ में, तो उसके विस्तृत 'अर्थ' का कोई विशेष मतलब नहीं होता, और जब विस्तृत बारीकी से इसकी रचना महत्वपूर्ण होती है; - जैसे कि 'प्रोग्रामर' के लिए होती है तब 'प्रयोजन' बिलकुल भिन्न होता है।
इसलिए ऐसा ज्ञान मूलतः और अंततः परिणाम की दृष्टि से भी ज्ञान का भ्रम होता है, लेकिन व्यवहार में उसे ज्ञान ही कहा जाता है। दूसरी ओर, ऐसे तथाकथित 'ज्ञान' या 'अज्ञान' (नामक इसके अभाव) का भान / बोध यद्यपि निःशब्द होता है जहाँ वस्तुतः 'कुछ भी' नहीं जाना जाता, लेकिन कोई 'जाननेवाला' वहाँ अकाट्य रूप से मौजूद है जिसे 'वैचारिक सत्य' की तरह न तो व्यक्त किया जा सकता है और न वह वैसा कोई 'वैचारिक सत्य' है, जिसका उपयोग साहित्य, कला, गणित, दर्शन-शास्त्र, विज्ञान या तकनीक (technology) आदि में होता है। और वह न तो भावना का, बुद्धि का, अनुभव का या स्मृति का विषय हो सकता है। लेकिन यह कहना भी त्रुटिपूर्ण है कि उसे 'जाना 'नहीं जा सकता। जिस बोध / भान (awareness) में उसे जाना जाता है वह बोध / भान (awareness) ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय के विभाजन से रहित होने से वास्तव में उसे अपने से भिन्न किसी दूसरी वस्तु की तरह वैसे नहीं जाना जा सकता जैसे किसी प्रकार के लौकिक ज्ञान को जाना जाता है, जहाँ ऐसा विभाजन अवश्य होता है। इसलिए निष्कर्ष के रूप में 'अज्ञेयवाद' भी वैसा ही भ्रम है जैसा कि आस्तिकता या नास्तिकता की मान्यता / विश्वास / सिद्धांत।
अस्तित्व, जीवन या वज़ूद कभी ज्ञान / अज्ञान का विषय नहीं होता। इसलिए 'अज्ञेयवाद' अपने-आप में एक अर्थहीन शब्द है।
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