Thursday, 30 May 2019

सत्य-धर्म / सत्यधर्मा

क्या धर्म / सत्य अज्ञेय है?
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ईशावास्योपनिषद् मन्त्र 15 :
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये।।
"हे पूषन् ! सत्य का मुख स्वर्णिम आवरण में छिपा हुआ है।  उस सत्य (के वास्तविक तत्त्व और धर्म) पर पड़े हुए इस आवरण को तुम हटा दो, ताकि हमें सत्य (अर्थात् धर्म) का दर्शन हो सके।"
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संसार जो भी है, यत्किञ्चित् इन्द्रियग्राह्य / इन्द्रियगम्य है।
इन्द्रियाँ जो भी हैं,यत्किञ्चित् मनोग्राह्य / मनोगम्य हैं।
मन जो भी है, यत्किञ्चित् बुद्धिग्राह्य / बुद्धिगम्य है।
बुद्धि जो भी है, यत्किञ्चित् अनुमानग्राह्य / अनुमानगम्य है।
अनुमान जो भी है, यत्किञ्चित् वृत्तिग्राह्य / वृत्तिगम्य है।
वृत्ति जो भी है, यत्किञ्चित् बोधग्राह्य / बोधगम्य है।
बोध जो भी है, स्वयं और स्वतः स्वयं के लिए अवग्राह्य / अवगम्य है,
क्योंकि जैसे संसार को इन्द्रियों से, इन्द्रियों को मन से, मन को बुद्धि से, बुद्धि को अनुमान से, अनुमान को वृत्ति से, और वृत्ति को बोध से जाना जाता है, उस बोध को, उस प्रकार किसी और माध्यम से नहीं बल्कि अनायास और सदा ही जाना जाता है जिसमें ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञात तीनों बोधमात्र हैं।
किन्तु फिर भी इस बोध को भी धर्म से ही जाना जाता है, न कि धर्म से बोध को।
धर्म में जिनकी प्रतिष्ठा है, उनके लिए यह बोध नित्यप्राप्त है।
और इसलिए धर्म (की आँख) से ही सब कुछ उसके सत्य-स्वरूप में जैसा है, वैसा यथावत् देखा जाता है।
इसलिए सब कुछ धर्मग्राह्य / धर्मगम्य है, जबकि धर्म / सत्य को संसार, इन्द्रियों, मन, बुद्धि, अनुमान, और वृत्ति आदि से नहीं जाना जा सकता।
Q E D
(क्वात् ईरात् द्विमान् स्तरीयतम्)
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