ऋषि जाबालि - श्रीराम संवाद
ऋषि जाबालि से भगवान श्रीराम ने आगे कहा :
अयोध्याकण्ड, सर्ग १०९,
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त्वत्तो जनाः पूर्वतरे द्विजाश्च
शुभानि कर्माणि बहूनि चक्रुः ।
छित्त्वा सदेमं च परं च लोकं
तस्माद् द्विजाः स्वस्ति कृतं हुतं च ॥३५
धर्मे रताः सत्पुरुषैः समेता-
स्तेजस्विनो दानगुणप्रधानाः ।
अहिंसका वीतमलाश्च लोके
भवन्ति पूज्या मुनयः प्रधानाः ॥३६
इति ब्रुवन्तं वचनं सरोषं
रामं महात्मानमदीनसत्त्वम् ।
उवाच पथ्यं पुनरास्तिकं च
सत्यं वचः सानुनयं च विप्रः ॥३७
न नास्तिकानां वचनं ब्रवीम्यहं
न नास्तिकोऽहं न च नास्ति किञ्चन ।
समीक्ष्य कालं पुनरास्तिकोऽभवं
भवेय काले पुनरेव नास्तिकः ॥३८
स चापि कालोऽयमुपागतः शनै-
र्यथा मया नास्तिकवागुदीरिता ।
निवर्तनार्थं तव राम कारणात्
प्रसादनार्थं च मयैतदीरितम् ॥३९
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’आपके सिवा पहले के श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने इहलोक और परलोक की फल-कामना का परित्याग करके वेदोक्त धर्म समझकर सदा ही बहुत से शुभकर्मों का अनुष्ठान किया है । अतः जो भी ब्राह्मण हैं, वे वेदों को ही प्रमाण मानकर स्वस्ति (अहिंसा और सत्य आदि) कृत (तप दान और परोपकार आदि) तथा हुत (यज्ञ-याग आदि) कर्मों का संपादन करते हैं । ॥३५
’जो धर्म में तत्पर रहते हैं, सत्पुरुषों का साथ करते हैं, तेज से संपन्न हैं, जिनमें दानरूपी गुण की प्रधानता है, जो कभी किसी प्राणी की हिंसा नहीं करते तथा जो मलसंसर्ग से रहित हैं, ऐसे श्रेष्ठ मुनि ही संसार में पूजनीय होते हैं ।’ ॥३६
[गीता-सन्दर्भ, अध्याय १७, श्लोक २३,
ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा।।
अर्थ :
ओम् तत् सत् -- यह तीन प्रकार का ब्रह्म का निर्देश है। जिस तरीके से कोई वस्तु बतलाई जाए उस तरीके का नाम निर्देश है, अतः यह ब्रह्म का तीन प्रकार का नाम है, ऐसा वेदान्त में ब्रह्मज्ञानियों द्वारा माना गया है। पूर्वकाल में इस तीन प्रकार के नाम से ही ब्राह्मण, वेद और यज्ञ-- ये सब रचे गए हैं। यह ब्रह्म के नाम की स्तुति करने के लिए कहा जाता है। ]
महात्मा श्रीराम स्वभाव से ही दैन्यभाव से रहित थे । उन्होंने जब रोषपूर्वक पूर्वोक्त बात कही, तब ब्राह्मण जाबालि ने विनयपूर्वक यह आस्तिकतापूर्ण सत्य एवं हितकर वचन कहा --- ॥३७
’रघुनन्दन ! न तो मैं नास्तिक हूँ, और न नास्तिकों की बात ही करता हूँ ।परलोक आदि कुछ भी नहीं है, ऐसा मेरा मत नहीं है । मैं अवसर देखकर फिर आस्तिक हो गया और लौकिक व्यवहार के समय आवश्यकता होने पर पुनः नास्तिक हो सकता हूँ -- नास्तिकों की - सी बातें कर सकता हूँ । ॥३८
’इस समय ऐसा अवसर आ गया था, जिससे मैंने धीरे-धीरे नास्तिकों की - सी बातें कह डालीं । श्रीराम ! मैंने जो यह बात कही, इसमें मेरा उद्देश्य यही था कि किसी तरह आपको राजी करके अयोध्या लौटाने के लिए तैयार कर लूँ’ । ॥३९
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(महर्षि वसिष्ठ द्वारा ऋषि जाबालि की प्रशंसा की जाना और श्रीराम के रोष का निवारण -- )
क्रमशः.. ...
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ऋषि जाबालि से भगवान श्रीराम ने आगे कहा :
अयोध्याकण्ड, सर्ग १०९,
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त्वत्तो जनाः पूर्वतरे द्विजाश्च
शुभानि कर्माणि बहूनि चक्रुः ।
छित्त्वा सदेमं च परं च लोकं
तस्माद् द्विजाः स्वस्ति कृतं हुतं च ॥३५
धर्मे रताः सत्पुरुषैः समेता-
स्तेजस्विनो दानगुणप्रधानाः ।
अहिंसका वीतमलाश्च लोके
भवन्ति पूज्या मुनयः प्रधानाः ॥३६
इति ब्रुवन्तं वचनं सरोषं
रामं महात्मानमदीनसत्त्वम् ।
उवाच पथ्यं पुनरास्तिकं च
सत्यं वचः सानुनयं च विप्रः ॥३७
न नास्तिकानां वचनं ब्रवीम्यहं
न नास्तिकोऽहं न च नास्ति किञ्चन ।
समीक्ष्य कालं पुनरास्तिकोऽभवं
भवेय काले पुनरेव नास्तिकः ॥३८
स चापि कालोऽयमुपागतः शनै-
र्यथा मया नास्तिकवागुदीरिता ।
निवर्तनार्थं तव राम कारणात्
प्रसादनार्थं च मयैतदीरितम् ॥३९
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’आपके सिवा पहले के श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने इहलोक और परलोक की फल-कामना का परित्याग करके वेदोक्त धर्म समझकर सदा ही बहुत से शुभकर्मों का अनुष्ठान किया है । अतः जो भी ब्राह्मण हैं, वे वेदों को ही प्रमाण मानकर स्वस्ति (अहिंसा और सत्य आदि) कृत (तप दान और परोपकार आदि) तथा हुत (यज्ञ-याग आदि) कर्मों का संपादन करते हैं । ॥३५
’जो धर्म में तत्पर रहते हैं, सत्पुरुषों का साथ करते हैं, तेज से संपन्न हैं, जिनमें दानरूपी गुण की प्रधानता है, जो कभी किसी प्राणी की हिंसा नहीं करते तथा जो मलसंसर्ग से रहित हैं, ऐसे श्रेष्ठ मुनि ही संसार में पूजनीय होते हैं ।’ ॥३६
[गीता-सन्दर्भ, अध्याय १७, श्लोक २३,
ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा।।
अर्थ :
ओम् तत् सत् -- यह तीन प्रकार का ब्रह्म का निर्देश है। जिस तरीके से कोई वस्तु बतलाई जाए उस तरीके का नाम निर्देश है, अतः यह ब्रह्म का तीन प्रकार का नाम है, ऐसा वेदान्त में ब्रह्मज्ञानियों द्वारा माना गया है। पूर्वकाल में इस तीन प्रकार के नाम से ही ब्राह्मण, वेद और यज्ञ-- ये सब रचे गए हैं। यह ब्रह्म के नाम की स्तुति करने के लिए कहा जाता है। ]
महात्मा श्रीराम स्वभाव से ही दैन्यभाव से रहित थे । उन्होंने जब रोषपूर्वक पूर्वोक्त बात कही, तब ब्राह्मण जाबालि ने विनयपूर्वक यह आस्तिकतापूर्ण सत्य एवं हितकर वचन कहा --- ॥३७
’रघुनन्दन ! न तो मैं नास्तिक हूँ, और न नास्तिकों की बात ही करता हूँ ।परलोक आदि कुछ भी नहीं है, ऐसा मेरा मत नहीं है । मैं अवसर देखकर फिर आस्तिक हो गया और लौकिक व्यवहार के समय आवश्यकता होने पर पुनः नास्तिक हो सकता हूँ -- नास्तिकों की - सी बातें कर सकता हूँ । ॥३८
’इस समय ऐसा अवसर आ गया था, जिससे मैंने धीरे-धीरे नास्तिकों की - सी बातें कह डालीं । श्रीराम ! मैंने जो यह बात कही, इसमें मेरा उद्देश्य यही था कि किसी तरह आपको राजी करके अयोध्या लौटाने के लिए तैयार कर लूँ’ । ॥३९
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(महर्षि वसिष्ठ द्वारा ऋषि जाबालि की प्रशंसा की जाना और श्रीराम के रोष का निवारण -- )
क्रमशः.. ...
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