अलोऽअन्त्यस्य
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अष्टाध्यायी १/१/५२
'अल्' प्रत्याहार समस्त व्यञ्जनों का समाहार है।
भगवान भारद्वाज ऋषि के आशीर्वाद से मुझे भारद्वाज-व्याकरण का ज्ञान आवश्यकता के अनुसार प्राप्त हो जाता है। जब नहीं मिलता, तो मैं समझता हूँ कि उसकी मुझे आवश्यकता नहीं है।
वैदिक-शास्त्रों में केवल नौ व्याकरणों का उल्लेख पाया जाता है। फिर इस दसवें 'भारद्वाज-व्याकरण' की क्या प्रामाणिकता है? इसे मिलाकर ही तो संस्कृत के दस व्याकरण हो सकते हैं?
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मुझे बचपन से उर्दू सीखने की चाह थी। उसकी प्रेरणा कहाँ से हुई?
मुझे बचपन से यह अंतर्दृष्टि प्राप्त थी कि भाषा कोई भी हो एक तो उसका लौकिक व्याकरण होता है और दूसरा अलौकिक अर्थात् वाणी से संबद्ध, वाणी का व्याकरण।
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ऋषि जाबाल के बारे में मेरी जिज्ञासा और उत्कंठा तब शांत हुई जब मैंने वाल्मीकि-रामायण में उनके बारे में पढ़ा। वहीं से मुझे ज्ञान हुआ कि ऋषि जाबालि / जाबाल वैसे तो सभी दूसरे ऋषियों की तरह त्रिकालदर्शी और त्रिकालव्यापी हैं लेकिन शारीरिक रूप से वे ही कभी कहोड (अष्टावक्र के पिता) तो कभी तथागत सिद्धार्थ (भगवान् बुद्ध) के रूप में पृथ्वी पर अवतरित हुए।
अष्टावक्र की माता सुजाता वैसी ही श्रेष्ठ सती नारी थी जो उनके अनेक जन्मों में उनकी सेवा के धर्म का निर्वाह करती रही।
सुजाता / वनदेवी / वार्क्षी के रूप में उन्होंने ही सिद्धार्थ की तपस्या के अंतिम सोपान पर उन्हें खीर अर्पित किया जिससे सिद्धार्थ गौतम बुद्ध हुए। निरंजना-तट की वह कथा भी आपको मेरे किसी पोस्ट में मिल जाएगी।
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पहले मैं सोचता था कि ऋषि जाबाल को आर्च-एंजिल Arch-Angel समझना मेरी कपोल-कल्पना हो सकता है, लेकिन जब मुण्डकोपनिषद् के प्रथम मुण्डक, प्रथम खण्ड के द्वितीय मन्त्र में इसकी पुष्टि पर ध्यान गया तो मैंने अपनी अंतःप्रेरणाओं पर शंका करना छोड़ दिया।
इस मन्त्र में पुनः ऋषि भारद्वाज का साक्ष्य मेरे लिए ऐसा प्रमाण था, जिसकी सत्यता पर अविश्वास करना मूढ़ता ही होता। भारद्वाज ऋषि से मेरे अपने संबंध का प्रमाण मुझे ऋग्वेद मण्डल २, सूक्त २४, मन्त्र ९ में मिला, जिसके बारे में पहले उल्लेख कर चुका हूँ कि किस प्रकार वह प्रमाण मुझसे जुड़ा है।
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अपने अध्ययन के दौरान कठोपनिषद् की कथा से जीसस क्राइस्ट की कहानी का गहरा साम्य देखते ही मुझे स्पष्ट हो गया, कि किस प्रकार कापालिक से क़ाबा और कठोपनिषद् से कैथोलिक 'परंपरा' का उद्भव हुआ।
मुझे तब और अधिक आश्चर्य हुआ जब मैंने इजिप्ट, फ़लस्तीन और इसरायल के इतिहास और परस्पर संबंधों पर खोज-बीन की। मेरा ध्यान इस ओर गया कि मिस्र की गीज़ा के पिरामिडों का फ़लस्तीन के गज़ा (Gaza) से अवश्य कोई संबंध है। मुझे पता चला कि क्यों अरबी लिपि में 'प' नहीं है। इसलिए 'कापालिक' कपाल -कबाल हो जाता है। Jewish Cabal भी इसी का प्रकार है। कबीला शब्द इसी से बना है।
पैग़म्बर मोज़ेस और एंजिल (ईशदूत) गैब्रिएल (जाबाल-ऋषि) की कथा (Exodus) पढ़ते ही मुझे यकीन हो गया कि मोज़ेस को किस प्रकार इजिप्ट से निकाल दिए जाने पर पार्षद / फ़रिश्ता एंजिल (ईशदूत) गैब्रिएल (जाबाल-ऋषि) और इंद्र (Metatron) ने उनकी सहायता की। ऋषि प्रेरणा के रूप में उन्हें अदृश्य रहकर मार्ग दिखा रहे थे, इंद्र मेघ के रूप में उन पर और उनके कबीले (कापालिक) पर छाया कर रहे थे और भगवान् शिव स्वयं उनके आगे-आगे ज्योतिर्लिङ्ग के रूप में मार्ग में दूर दिखाई दे रहे थे।
जाबाल-ऋषि ही उन्हें लाल-सागर के किनारे से होते हुए वर्त्तमान फ़लस्तीन ले गए।
फ़लस्तीन / फ़िलिस्तीन में वर्त्तमान में विद्यमान स्थान 'जबालिआ' में भी इसकी पुष्टि देखि जा सकती है।
'यह्व' Jehovah के दो रूपों में पुनः उन्हें वैदिक सनातन धर्म की शिक्षा दी, जो अग्नि की साक्ष्य में दी गयी।
'यह्व' Jehovah का एक प्रत्यक्ष अर्थ है 'मैं वह (हूँ)' तो दूसरा विस्तृत अर्थ है वेदवर्णित 'यह्व' ।
लेकिन हिब्रू और यहूदी धर्म के संबंध में मेरी जानकारी की प्रामाणिकता संदिग्ध होने से मुझे हिब्रू सीखने की ज़रूरत महसूस हुई। फिर मैंने भगवान परशुराम का ध्यान किया जिन्होंने पार्श्व-देश वर्त्तमान ईरान / फ़ारस में उसी प्रकार सनातन धर्म की स्थापना और विस्तार किया जैसे जाबाल ऋषि ने इसरायल और इजिप्ट में किया था।
अरबी / उर्दू / हिब्रू सीखने के संबंध में मुझे एक दुविधा इसलिए भी थी क्योंकि वैश्विक-चेतना में ज्ञान की दो धाराएँ क्रमशः दक्षिण और वाम तंत्र के अनुसार गतिशील होती हैं। हर मनुष्य के भीतर इनमें से एक ही धारा एक समय पर कार्य कर सकती है। सरल शब्दों में :
यदि आप बाँये से दाँयें लिखते हैं, -जैसा कि हिंदी, संस्कृत, तमिल तथा अंग्रेज़ी, फ्रेंच, जर्मन आदि भाषाएँ लिखते समय किया जाता है तो आपकी चेतना एक प्रकार से कार्य करती है। यदि आप दाँयें से बाँयें लिखते हैं जैसा कि फिनीशियाई, हिब्रू, अरबी, उर्दू तथा फारसी लिखते समय किया जाता है तो आपकी चेतना एक भिन्न प्रकार से कार्य करती है। दोनों के अपने-अपने लाभ और हानियाँ भी हैं। इस बारे में यदि विस्तार से जानना चाहें, तो न्यूरोलॉजिस्ट श्री वी. एस. रामचंद्रन् (V.S.Ramachandran)के साहित्य और खोजों के बारे में पढ़ सकते हैं।
वैसे यह कुछ गूढ और जटिल विषय है इसलिए मैं यहाँ विस्तारपूर्वक नहीं लिखूँगा।
दूसरी और यह तथ्य भी विचारणीय है कि हम बाँये हाथ से लिखते हैं या दाँये हाथ से। क्योंकि हमारे मस्तिष्क के बाँयें भाग की स्नायुप्रणाली का सीधा संबंध हमारे दाँयें हाथ से तथा दाँयें भाग की स्नायुप्रणाली का सीधा संबंध हमारे बाँयेँ हाथ से होता है।
यह आकस्मिक संयोग नहीं है कि पश्चिम में तर्क-आधारित गणित और विज्ञान विकसित हुआ जबकि पूर्व में विवेक / चिंतन और अनुसंधान पर आधारित धर्म विकसित हुआ।
१४ माहेश्वर-सूत्र (अक्षर-समाम्नाय) वाणी के व्याकरण का आधार है।
अब यदि अरबी भाषा के शब्दों की रचना देखें तो वह संस्कृत के उणादि प्रत्ययों तथा उपसर्ग (prefix) एवं तद्धित (suffix) का ही विशेष प्रकार है। अरबी की एक विशेषता यह है कि यह तमिल की तरह फ़ॉनेटिक है अर्थात् किसी लिखे हुए वर्ण का उच्चारण क्या होगा, इसे सुनकर ही जाना जा सकता है। तमिल भाषा का एक ब्राह्मी प्रकार भी अवश्य है, जिसमें लिखे हुए वर्ण का उच्चारण सुनिश्चित होता है। इसलिए इसे पढ़कर भी इसका सही उच्चारण क्या है, इसे समझा जा सकता है।
अंततः जब हिब्रू के लिए एक अच्छा विडिओ मिला तो मेरी यह समझ दृढ हुई कि अरबी तथा हिब्रू में भी अलिफ़, बे के बाद 'पे' क्यों नहीं होता इसलिए क्यों 'पाकिस्तान' एक absurdity है। इसलिए उर्दू में बे को रूपांतरित कर 'पे' के सृष्टि की गयी।
मज़ाक छोड़ें तो भी यह सत्य है कि 'अलिफ़' जैसा कि हिब्रू में लिखा जाता है, मूलतः वाम-स्वस्तिक या ॐ का ही एक रूप है, जबकि हिब्रू के दूसरे वर्णों के लिए 'आ' की मात्रा को वर्ण के नीचे लगाया जाता है। इसी प्रकार अरबी में 'इ' का 'य' होना, 'उ' का 'व' होना संस्कृत व्याकरण के 'गुण' और 'संप्रसारण' के ही प्रकार हैं। यहाँ तक कि अलिफ़ का रूप 'अ' का विलोम है और हिब्रू में भी 'अ' के पूरे उच्चारण के लिए इसे व्यंजन के नीचे लगाया जाता है। दूसरी ओर अरबी में अलिफ़ 'आ' की मात्रा से मिलता जुलता है।
सबसे बड़ी बात यह कि 'अलिफ़' 'ब' / 'बे' का उद्भव भी 'अ' तथा 'द्वे' से हुआ है ऐसा समझना अनुचित न होगा। गुजराती में भी '२' को 'बे' कहा जाता है। इसके बाद आता है 'ते', जो त्रि का ही रूप है और फिर सीधे 'चे' आ जाता है जो चतुर्थ / चत्वार / चतुर का रूप है। इसलिए अरबी से 'पे' ग़ायब है।
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उपरोक्त पोस्ट निष्कर्ष न होकर विचार के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
संभावित त्रुटियाँ कृपया सुधार लें।
पाठक अपने विवेक के अनुसार तय करें कि यह कितना ग्राह्य / अग्राह्य है।
इसे लिखने का मूल उद्देश्य यह समझना है कि कट्टरता वास्तव में सबके और हर किसी के लिए भी कितनी हानिकारक है।
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अष्टाध्यायी १/१/५२
'अल्' प्रत्याहार समस्त व्यञ्जनों का समाहार है।
भगवान भारद्वाज ऋषि के आशीर्वाद से मुझे भारद्वाज-व्याकरण का ज्ञान आवश्यकता के अनुसार प्राप्त हो जाता है। जब नहीं मिलता, तो मैं समझता हूँ कि उसकी मुझे आवश्यकता नहीं है।
वैदिक-शास्त्रों में केवल नौ व्याकरणों का उल्लेख पाया जाता है। फिर इस दसवें 'भारद्वाज-व्याकरण' की क्या प्रामाणिकता है? इसे मिलाकर ही तो संस्कृत के दस व्याकरण हो सकते हैं?
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मुझे बचपन से उर्दू सीखने की चाह थी। उसकी प्रेरणा कहाँ से हुई?
मुझे बचपन से यह अंतर्दृष्टि प्राप्त थी कि भाषा कोई भी हो एक तो उसका लौकिक व्याकरण होता है और दूसरा अलौकिक अर्थात् वाणी से संबद्ध, वाणी का व्याकरण।
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ऋषि जाबाल के बारे में मेरी जिज्ञासा और उत्कंठा तब शांत हुई जब मैंने वाल्मीकि-रामायण में उनके बारे में पढ़ा। वहीं से मुझे ज्ञान हुआ कि ऋषि जाबालि / जाबाल वैसे तो सभी दूसरे ऋषियों की तरह त्रिकालदर्शी और त्रिकालव्यापी हैं लेकिन शारीरिक रूप से वे ही कभी कहोड (अष्टावक्र के पिता) तो कभी तथागत सिद्धार्थ (भगवान् बुद्ध) के रूप में पृथ्वी पर अवतरित हुए।
अष्टावक्र की माता सुजाता वैसी ही श्रेष्ठ सती नारी थी जो उनके अनेक जन्मों में उनकी सेवा के धर्म का निर्वाह करती रही।
सुजाता / वनदेवी / वार्क्षी के रूप में उन्होंने ही सिद्धार्थ की तपस्या के अंतिम सोपान पर उन्हें खीर अर्पित किया जिससे सिद्धार्थ गौतम बुद्ध हुए। निरंजना-तट की वह कथा भी आपको मेरे किसी पोस्ट में मिल जाएगी।
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पहले मैं सोचता था कि ऋषि जाबाल को आर्च-एंजिल Arch-Angel समझना मेरी कपोल-कल्पना हो सकता है, लेकिन जब मुण्डकोपनिषद् के प्रथम मुण्डक, प्रथम खण्ड के द्वितीय मन्त्र में इसकी पुष्टि पर ध्यान गया तो मैंने अपनी अंतःप्रेरणाओं पर शंका करना छोड़ दिया।
इस मन्त्र में पुनः ऋषि भारद्वाज का साक्ष्य मेरे लिए ऐसा प्रमाण था, जिसकी सत्यता पर अविश्वास करना मूढ़ता ही होता। भारद्वाज ऋषि से मेरे अपने संबंध का प्रमाण मुझे ऋग्वेद मण्डल २, सूक्त २४, मन्त्र ९ में मिला, जिसके बारे में पहले उल्लेख कर चुका हूँ कि किस प्रकार वह प्रमाण मुझसे जुड़ा है।
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अपने अध्ययन के दौरान कठोपनिषद् की कथा से जीसस क्राइस्ट की कहानी का गहरा साम्य देखते ही मुझे स्पष्ट हो गया, कि किस प्रकार कापालिक से क़ाबा और कठोपनिषद् से कैथोलिक 'परंपरा' का उद्भव हुआ।
मुझे तब और अधिक आश्चर्य हुआ जब मैंने इजिप्ट, फ़लस्तीन और इसरायल के इतिहास और परस्पर संबंधों पर खोज-बीन की। मेरा ध्यान इस ओर गया कि मिस्र की गीज़ा के पिरामिडों का फ़लस्तीन के गज़ा (Gaza) से अवश्य कोई संबंध है। मुझे पता चला कि क्यों अरबी लिपि में 'प' नहीं है। इसलिए 'कापालिक' कपाल -कबाल हो जाता है। Jewish Cabal भी इसी का प्रकार है। कबीला शब्द इसी से बना है।
पैग़म्बर मोज़ेस और एंजिल (ईशदूत) गैब्रिएल (जाबाल-ऋषि) की कथा (Exodus) पढ़ते ही मुझे यकीन हो गया कि मोज़ेस को किस प्रकार इजिप्ट से निकाल दिए जाने पर पार्षद / फ़रिश्ता एंजिल (ईशदूत) गैब्रिएल (जाबाल-ऋषि) और इंद्र (Metatron) ने उनकी सहायता की। ऋषि प्रेरणा के रूप में उन्हें अदृश्य रहकर मार्ग दिखा रहे थे, इंद्र मेघ के रूप में उन पर और उनके कबीले (कापालिक) पर छाया कर रहे थे और भगवान् शिव स्वयं उनके आगे-आगे ज्योतिर्लिङ्ग के रूप में मार्ग में दूर दिखाई दे रहे थे।
जाबाल-ऋषि ही उन्हें लाल-सागर के किनारे से होते हुए वर्त्तमान फ़लस्तीन ले गए।
फ़लस्तीन / फ़िलिस्तीन में वर्त्तमान में विद्यमान स्थान 'जबालिआ' में भी इसकी पुष्टि देखि जा सकती है।
'यह्व' Jehovah के दो रूपों में पुनः उन्हें वैदिक सनातन धर्म की शिक्षा दी, जो अग्नि की साक्ष्य में दी गयी।
'यह्व' Jehovah का एक प्रत्यक्ष अर्थ है 'मैं वह (हूँ)' तो दूसरा विस्तृत अर्थ है वेदवर्णित 'यह्व' ।
लेकिन हिब्रू और यहूदी धर्म के संबंध में मेरी जानकारी की प्रामाणिकता संदिग्ध होने से मुझे हिब्रू सीखने की ज़रूरत महसूस हुई। फिर मैंने भगवान परशुराम का ध्यान किया जिन्होंने पार्श्व-देश वर्त्तमान ईरान / फ़ारस में उसी प्रकार सनातन धर्म की स्थापना और विस्तार किया जैसे जाबाल ऋषि ने इसरायल और इजिप्ट में किया था।
अरबी / उर्दू / हिब्रू सीखने के संबंध में मुझे एक दुविधा इसलिए भी थी क्योंकि वैश्विक-चेतना में ज्ञान की दो धाराएँ क्रमशः दक्षिण और वाम तंत्र के अनुसार गतिशील होती हैं। हर मनुष्य के भीतर इनमें से एक ही धारा एक समय पर कार्य कर सकती है। सरल शब्दों में :
यदि आप बाँये से दाँयें लिखते हैं, -जैसा कि हिंदी, संस्कृत, तमिल तथा अंग्रेज़ी, फ्रेंच, जर्मन आदि भाषाएँ लिखते समय किया जाता है तो आपकी चेतना एक प्रकार से कार्य करती है। यदि आप दाँयें से बाँयें लिखते हैं जैसा कि फिनीशियाई, हिब्रू, अरबी, उर्दू तथा फारसी लिखते समय किया जाता है तो आपकी चेतना एक भिन्न प्रकार से कार्य करती है। दोनों के अपने-अपने लाभ और हानियाँ भी हैं। इस बारे में यदि विस्तार से जानना चाहें, तो न्यूरोलॉजिस्ट श्री वी. एस. रामचंद्रन् (V.S.Ramachandran)के साहित्य और खोजों के बारे में पढ़ सकते हैं।
वैसे यह कुछ गूढ और जटिल विषय है इसलिए मैं यहाँ विस्तारपूर्वक नहीं लिखूँगा।
दूसरी और यह तथ्य भी विचारणीय है कि हम बाँये हाथ से लिखते हैं या दाँये हाथ से। क्योंकि हमारे मस्तिष्क के बाँयें भाग की स्नायुप्रणाली का सीधा संबंध हमारे दाँयें हाथ से तथा दाँयें भाग की स्नायुप्रणाली का सीधा संबंध हमारे बाँयेँ हाथ से होता है।
यह आकस्मिक संयोग नहीं है कि पश्चिम में तर्क-आधारित गणित और विज्ञान विकसित हुआ जबकि पूर्व में विवेक / चिंतन और अनुसंधान पर आधारित धर्म विकसित हुआ।
१४ माहेश्वर-सूत्र (अक्षर-समाम्नाय) वाणी के व्याकरण का आधार है।
अब यदि अरबी भाषा के शब्दों की रचना देखें तो वह संस्कृत के उणादि प्रत्ययों तथा उपसर्ग (prefix) एवं तद्धित (suffix) का ही विशेष प्रकार है। अरबी की एक विशेषता यह है कि यह तमिल की तरह फ़ॉनेटिक है अर्थात् किसी लिखे हुए वर्ण का उच्चारण क्या होगा, इसे सुनकर ही जाना जा सकता है। तमिल भाषा का एक ब्राह्मी प्रकार भी अवश्य है, जिसमें लिखे हुए वर्ण का उच्चारण सुनिश्चित होता है। इसलिए इसे पढ़कर भी इसका सही उच्चारण क्या है, इसे समझा जा सकता है।
अंततः जब हिब्रू के लिए एक अच्छा विडिओ मिला तो मेरी यह समझ दृढ हुई कि अरबी तथा हिब्रू में भी अलिफ़, बे के बाद 'पे' क्यों नहीं होता इसलिए क्यों 'पाकिस्तान' एक absurdity है। इसलिए उर्दू में बे को रूपांतरित कर 'पे' के सृष्टि की गयी।
मज़ाक छोड़ें तो भी यह सत्य है कि 'अलिफ़' जैसा कि हिब्रू में लिखा जाता है, मूलतः वाम-स्वस्तिक या ॐ का ही एक रूप है, जबकि हिब्रू के दूसरे वर्णों के लिए 'आ' की मात्रा को वर्ण के नीचे लगाया जाता है। इसी प्रकार अरबी में 'इ' का 'य' होना, 'उ' का 'व' होना संस्कृत व्याकरण के 'गुण' और 'संप्रसारण' के ही प्रकार हैं। यहाँ तक कि अलिफ़ का रूप 'अ' का विलोम है और हिब्रू में भी 'अ' के पूरे उच्चारण के लिए इसे व्यंजन के नीचे लगाया जाता है। दूसरी ओर अरबी में अलिफ़ 'आ' की मात्रा से मिलता जुलता है।
सबसे बड़ी बात यह कि 'अलिफ़' 'ब' / 'बे' का उद्भव भी 'अ' तथा 'द्वे' से हुआ है ऐसा समझना अनुचित न होगा। गुजराती में भी '२' को 'बे' कहा जाता है। इसके बाद आता है 'ते', जो त्रि का ही रूप है और फिर सीधे 'चे' आ जाता है जो चतुर्थ / चत्वार / चतुर का रूप है। इसलिए अरबी से 'पे' ग़ायब है।
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उपरोक्त पोस्ट निष्कर्ष न होकर विचार के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
संभावित त्रुटियाँ कृपया सुधार लें।
पाठक अपने विवेक के अनुसार तय करें कि यह कितना ग्राह्य / अग्राह्य है।
इसे लिखने का मूल उद्देश्य यह समझना है कि कट्टरता वास्तव में सबके और हर किसी के लिए भी कितनी हानिकारक है।
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