कथ्य और तथ्य
--
मनुष्य इस दृष्टि से विशेष है कि वह ’सोच-विचार’ करना जानता है । ’सोच-विचार’ करने के लिए वह उन ध्वनि-संकेतों या ध्वनियों के विशिष्ट समूह का उपयोग करता है, जिनसे वह किसी वस्तु-विशेष को इंगित करता है । यह क्रम प्रायः उसकी शैशवावस्था से, और उसके अनायास, -बिना अतिरिक्त प्रयास किए ही प्रारंभ हो जाता है । भाषा के इस प्रकार के उपयोग के बाद ही वह विभिन्न शब्दों के व्यावहारिक वस्तुवाचक तात्पर्य को ’वैचारिक-आकृति’ देता है । इस प्रकार किसी वस्तु-विशेष के लिए कोई शब्द-विशेष मान्य कर लेता है जिसे उसके परिवार और समाज में भी इसी तरह प्रयोग किया जाता है ।
यह तो हुआ भाषा और बोली के उद्भव का क्रम । किन्तु इसके अनन्तर मनुष्य में भावनाएँ और अनुभूतियाँ अर्थात् भावनात्मक अनुभवों की स्मृति भी विकसित होने लगती है, जिन्हें वह किन्हीं तय शब्दों के रूप में अपने समाज में व्यक्त करने लगता है और जिसे समाज का हर सदस्य भी धीरे-धीरे अपनाने लगता है । इस प्रकार भाववाचक-संज्ञाएँ प्रचलित होने लगती हैं । किन्तु न तो भौतिक वस्तुएँ और न भावनात्मक अनुभव वस्तुतः ऐसे ठोस तथ्य होते हैं जिनका कोई वास्तविक शाब्दिक अर्थ हो सकता हो । यह केवल उनकी मान्यता और स्वीकार्यता पर ही निर्भर होता है । इसलिए भिन्न-भिन्न स्थानों पर अलग अलग भाषाएँ और बोलियाँ अस्तित्व में आती हैं । इनके परस्पर व्यवहार से पुनः वे और अधिक समृद्ध लेकिन अधिक दुरूह तथा जटिल भी होने लगती हैं । ध्वनि-संकेतों को लिखने के इतिहास ने भी इसी प्रकार भाषाओं की लिपि के आविष्कार के बाद ही व्यवस्थित रूप ग्रहण किया । यह क्रम सुदूर अतीत में कब से शुरू हुआ होगा इसका अनुमान लगाना भी कठिन है ।
जो भी हो, लिपि के आविष्कार के बाद भाषा(एँ) और अधिक समृद्ध तथा क्लिष्ट भी होने लगी होंगी । तब हर भाषा में शब्दों और वाक्यों के प्रचलित स्वरूप को सूचीबद्ध कर कुछ व्यावहारिक नियम (rules and regulations / conventions) तय किए गए जिनसे भाषा(ओं) का व्याकरण बना । यह भी स्पष्ट है कि यह व्याकरण भी निरंतर बदलता रहा होगा । फिर किसी भी भाषा का ’मानक-स्वरूप’ / standard form निर्धारित किया गया होगा । किसी भौतिक या भावनात्मक तथ्य को कथ्य (narrative) का स्वरूप दिये जाने में इस सारे क्रम की भूमिका असंदिग्ध रही होगी ।
भावनात्मक तथ्य (fact) को कथ्य का स्वरूप दिये जाने में जैसे विरोधाभास और विसंगतियाँ पैदा हुए, भौतिक वस्तुओं को शब्द दिए जाने में वैसे और उतने अधिक विरोधाभास और विसंगतियाँ नहीं पैदा हुए । बल्कि यह कहना अधिक उपयुक्त होगा, कि भावनात्मक तथ्य और ऐसे तथ्यों की अभिव्यक्ति के लिए कोई शब्द दिए जाते ही ये तथ्य कोरे वैचारिक-तथ्य (abstract notions) बनकर रह गए जिनसे किसी हद तक काम तो चलाया जा सकता था, लेकिन इससे भ्रम पैदा होने की संभावनाएँ और भी, उतनी ही अधिक बढ़ भी गईं । प्रत्येक मनुष्य में किसी दूसरे मनुष्य की तुलना में संवेदनशीलता और संवेदनशीलता का प्रकार (sensitivity and mental orientation भी भिन्न-भिन्न होता है । अपने समूह, परिवार, स्थान, संस्कृति आदि से जुड़ाव या अलगाव भी इसी प्रकार कम या अधिक हो सकता है । ’ईश्वर’ नामक सत्ता की कल्पना तथा उसके स्वरूप के बारे में उसकी कल्पना भी दूसरों से बहुत भिन्न हो सकती है, और प्रायः होती भी है, क्योंकि ऐसा ’ईश्वर’ और उसकी सत्ता, एक बौद्धिक विचारजनित अमूर्त कल्पना ही तो होती है, न कि कोई ठोस इन्द्रियगम्य और बुधिगम्य भौतिक तथ्य जिस पर सब आसानी से सहमत हो सकें । यदि किसी मनुष्य को ऐसे किसी ’ईश्वर’ और उसकी सत्ता का साक्षात्कार हुआ भी है, तो भी वह दूसरों को इसे वास्तविक सत्य की तरह मानने के लिए राज़ी कर ले यह भी लगभग असंभव ही है । वह यद्यपि ’अपने’ अनुभवों और अनुभवों से प्रमाणित उसके नितान्त निजि प्रमाणों को शब्दों से वाणी द्वारा और ग्रन्थ के रूप में लिखे गए शब्दों से अभिव्यक्त भी कर दे, तो भी जिन्हें उस ’ईश्वर’ और उसकी सत्ता नामक तथ्य का प्रत्यक्षतः साक्षात्कार नहीं हुआ है, वे उसकी शिक्षाओं की जो और जैसी व्याख्या करेंगे, उससे उनका भ्रम और भी कई गुना बढ़ जाएगा इसमें सन्देह नहीं, क्योंकि मनुष्य का अब तक का इतिहास इसी तथ्य की पुष्टि कर रहा है ।
इसलिए ’धर्म’ और ’पंथ’ के अनेक रूप बनते और कुछ काल तक रूढ़ि की तरह प्रचलित होकर अन्ततः इस तरह से समाप्त भी हो गए, मानों उनका उद्भव ही कभी हुआ ही नहीं था । इस सब के साथ अगर कुछ स्थिर और अमिट रहा तो वह था ’धर्म’ का विचार । यद्यपि रूढ़ियाँ और परंपराएँ बनती-मिटती रहीं, कुछ अत्यंत इने-गिने मनुष्यों में यह जिज्ञासा और उत्कंठा जागृत हुई, कि क्या अस्तित्व में सब कुछ नाशवान है, और क्या ऐसा कुछ नहीं है, जिसे नित्य और अविनाशी कहा जा सके? इस जिज्ञासा में किसी ’ईश्वर’ या उसकी सत्ता का विचार यद्यपि शामिल रहा या न भी रहा हो, इससे इस जिज्ञासा और उत्कंठा की तीव्रता कम या अधिक नहीं होती ।
इस प्रकार ’धर्म’ ने एक ’वैचारिक-सत्य’ का रूप ग्रहण किया जो सामान्य मनुष्य के लिए नितांत दुर्बोध्य और अविश्वसनीयता की हद तक आश्चर्यजनक था । किंतु इसी / इन्हीं ’वैचारिक सत्यों’ के आधार पर अनेक ’पंथ’ निर्मित हुए / किए गए, और सामान्य मनुष्य को उनमें से शायद ही किसी की ज़रूरत / उपयोग कभी रहा हो ।
इन्हीं वैचारिक सत्यों के बीच परस्पर सत्ता-संघर्ष होता रहा और आज भी सतत चल ही रहा है ।
इतिहास गवाह (गवाक्ष) है कि बहुत से सत्तालोलुप महत्त्वाकाँक्षी मनुष्यों ने अपने-अपने ’पंथ’ (sect) को विश्वविजय करने और भूमि, धन, अधिकार और साम्राज्य की अपनी तुच्छ लालसाओं को तुष्ट करने का साधन बनाया, जिससे संसार का घोर अहित ही हुआ और अन्तहीन युद्ध होते रहे । इसकी तुलना अगर भौगोलिक क्षेत्र भारत और उसमें प्रचलित ’सनातन-धर्म’ से करें, जिसे ’हिन्दू’ कहना उसे संकीर्णता की छोटी सीमा में संकुचित कर बाँध रखने जैसा ही है, तो यह समझना सरल है कि ’सनातन-धर्म’ ने कभी अपनी मर्यादा (अखंड भारत) का उल्लंघन नहीं किया और यद्यपि पश्चिम, पूर्व दोनों दिशाओं में समुद्र पार के देशों (स्थानों) तक इसका प्रसार हुआ, ’पंथ’-आधारित दूसरी राजनैतिक सत्ताओं ने न सिर्फ़ इस भारत-भूमि पर सतत आक्रमण किए, बल्कि अपनी बर्बरता के मद में भारत-भूमि को दासता की श्रँखलाओं में इस बुरी तरह जकड़ दिया कि आज हम भारत-भूमि के रहनेवालों की संस्कृति, सभ्यता और ’धर्म’ भी वास्तव में कितने श्रेष्ठ और श्रेष्ठतम रहे हैं इस तरफ हमारा ध्यान ही नहीं जाता बल्कि हम सेक्युलर (secular) नामक निषेधात्मक वक्तव्य (negative narrative) के आधार को गौरवान्वित करने में खुशी तक अनुभव करते हैं । यदि यह शब्द ऐसा निषेधात्मक वक्तव्य (negative narrative) न होता तो हमारे देश के संविधान-निर्माता शुरू में ही इसे हमारे राष्ट्र के संविधान की भूमिका (Preamble) में शामिल कर देते।
--
--
मनुष्य इस दृष्टि से विशेष है कि वह ’सोच-विचार’ करना जानता है । ’सोच-विचार’ करने के लिए वह उन ध्वनि-संकेतों या ध्वनियों के विशिष्ट समूह का उपयोग करता है, जिनसे वह किसी वस्तु-विशेष को इंगित करता है । यह क्रम प्रायः उसकी शैशवावस्था से, और उसके अनायास, -बिना अतिरिक्त प्रयास किए ही प्रारंभ हो जाता है । भाषा के इस प्रकार के उपयोग के बाद ही वह विभिन्न शब्दों के व्यावहारिक वस्तुवाचक तात्पर्य को ’वैचारिक-आकृति’ देता है । इस प्रकार किसी वस्तु-विशेष के लिए कोई शब्द-विशेष मान्य कर लेता है जिसे उसके परिवार और समाज में भी इसी तरह प्रयोग किया जाता है ।
यह तो हुआ भाषा और बोली के उद्भव का क्रम । किन्तु इसके अनन्तर मनुष्य में भावनाएँ और अनुभूतियाँ अर्थात् भावनात्मक अनुभवों की स्मृति भी विकसित होने लगती है, जिन्हें वह किन्हीं तय शब्दों के रूप में अपने समाज में व्यक्त करने लगता है और जिसे समाज का हर सदस्य भी धीरे-धीरे अपनाने लगता है । इस प्रकार भाववाचक-संज्ञाएँ प्रचलित होने लगती हैं । किन्तु न तो भौतिक वस्तुएँ और न भावनात्मक अनुभव वस्तुतः ऐसे ठोस तथ्य होते हैं जिनका कोई वास्तविक शाब्दिक अर्थ हो सकता हो । यह केवल उनकी मान्यता और स्वीकार्यता पर ही निर्भर होता है । इसलिए भिन्न-भिन्न स्थानों पर अलग अलग भाषाएँ और बोलियाँ अस्तित्व में आती हैं । इनके परस्पर व्यवहार से पुनः वे और अधिक समृद्ध लेकिन अधिक दुरूह तथा जटिल भी होने लगती हैं । ध्वनि-संकेतों को लिखने के इतिहास ने भी इसी प्रकार भाषाओं की लिपि के आविष्कार के बाद ही व्यवस्थित रूप ग्रहण किया । यह क्रम सुदूर अतीत में कब से शुरू हुआ होगा इसका अनुमान लगाना भी कठिन है ।
जो भी हो, लिपि के आविष्कार के बाद भाषा(एँ) और अधिक समृद्ध तथा क्लिष्ट भी होने लगी होंगी । तब हर भाषा में शब्दों और वाक्यों के प्रचलित स्वरूप को सूचीबद्ध कर कुछ व्यावहारिक नियम (rules and regulations / conventions) तय किए गए जिनसे भाषा(ओं) का व्याकरण बना । यह भी स्पष्ट है कि यह व्याकरण भी निरंतर बदलता रहा होगा । फिर किसी भी भाषा का ’मानक-स्वरूप’ / standard form निर्धारित किया गया होगा । किसी भौतिक या भावनात्मक तथ्य को कथ्य (narrative) का स्वरूप दिये जाने में इस सारे क्रम की भूमिका असंदिग्ध रही होगी ।
भावनात्मक तथ्य (fact) को कथ्य का स्वरूप दिये जाने में जैसे विरोधाभास और विसंगतियाँ पैदा हुए, भौतिक वस्तुओं को शब्द दिए जाने में वैसे और उतने अधिक विरोधाभास और विसंगतियाँ नहीं पैदा हुए । बल्कि यह कहना अधिक उपयुक्त होगा, कि भावनात्मक तथ्य और ऐसे तथ्यों की अभिव्यक्ति के लिए कोई शब्द दिए जाते ही ये तथ्य कोरे वैचारिक-तथ्य (abstract notions) बनकर रह गए जिनसे किसी हद तक काम तो चलाया जा सकता था, लेकिन इससे भ्रम पैदा होने की संभावनाएँ और भी, उतनी ही अधिक बढ़ भी गईं । प्रत्येक मनुष्य में किसी दूसरे मनुष्य की तुलना में संवेदनशीलता और संवेदनशीलता का प्रकार (sensitivity and mental orientation भी भिन्न-भिन्न होता है । अपने समूह, परिवार, स्थान, संस्कृति आदि से जुड़ाव या अलगाव भी इसी प्रकार कम या अधिक हो सकता है । ’ईश्वर’ नामक सत्ता की कल्पना तथा उसके स्वरूप के बारे में उसकी कल्पना भी दूसरों से बहुत भिन्न हो सकती है, और प्रायः होती भी है, क्योंकि ऐसा ’ईश्वर’ और उसकी सत्ता, एक बौद्धिक विचारजनित अमूर्त कल्पना ही तो होती है, न कि कोई ठोस इन्द्रियगम्य और बुधिगम्य भौतिक तथ्य जिस पर सब आसानी से सहमत हो सकें । यदि किसी मनुष्य को ऐसे किसी ’ईश्वर’ और उसकी सत्ता का साक्षात्कार हुआ भी है, तो भी वह दूसरों को इसे वास्तविक सत्य की तरह मानने के लिए राज़ी कर ले यह भी लगभग असंभव ही है । वह यद्यपि ’अपने’ अनुभवों और अनुभवों से प्रमाणित उसके नितान्त निजि प्रमाणों को शब्दों से वाणी द्वारा और ग्रन्थ के रूप में लिखे गए शब्दों से अभिव्यक्त भी कर दे, तो भी जिन्हें उस ’ईश्वर’ और उसकी सत्ता नामक तथ्य का प्रत्यक्षतः साक्षात्कार नहीं हुआ है, वे उसकी शिक्षाओं की जो और जैसी व्याख्या करेंगे, उससे उनका भ्रम और भी कई गुना बढ़ जाएगा इसमें सन्देह नहीं, क्योंकि मनुष्य का अब तक का इतिहास इसी तथ्य की पुष्टि कर रहा है ।
इसलिए ’धर्म’ और ’पंथ’ के अनेक रूप बनते और कुछ काल तक रूढ़ि की तरह प्रचलित होकर अन्ततः इस तरह से समाप्त भी हो गए, मानों उनका उद्भव ही कभी हुआ ही नहीं था । इस सब के साथ अगर कुछ स्थिर और अमिट रहा तो वह था ’धर्म’ का विचार । यद्यपि रूढ़ियाँ और परंपराएँ बनती-मिटती रहीं, कुछ अत्यंत इने-गिने मनुष्यों में यह जिज्ञासा और उत्कंठा जागृत हुई, कि क्या अस्तित्व में सब कुछ नाशवान है, और क्या ऐसा कुछ नहीं है, जिसे नित्य और अविनाशी कहा जा सके? इस जिज्ञासा में किसी ’ईश्वर’ या उसकी सत्ता का विचार यद्यपि शामिल रहा या न भी रहा हो, इससे इस जिज्ञासा और उत्कंठा की तीव्रता कम या अधिक नहीं होती ।
इस प्रकार ’धर्म’ ने एक ’वैचारिक-सत्य’ का रूप ग्रहण किया जो सामान्य मनुष्य के लिए नितांत दुर्बोध्य और अविश्वसनीयता की हद तक आश्चर्यजनक था । किंतु इसी / इन्हीं ’वैचारिक सत्यों’ के आधार पर अनेक ’पंथ’ निर्मित हुए / किए गए, और सामान्य मनुष्य को उनमें से शायद ही किसी की ज़रूरत / उपयोग कभी रहा हो ।
इन्हीं वैचारिक सत्यों के बीच परस्पर सत्ता-संघर्ष होता रहा और आज भी सतत चल ही रहा है ।
इतिहास गवाह (गवाक्ष) है कि बहुत से सत्तालोलुप महत्त्वाकाँक्षी मनुष्यों ने अपने-अपने ’पंथ’ (sect) को विश्वविजय करने और भूमि, धन, अधिकार और साम्राज्य की अपनी तुच्छ लालसाओं को तुष्ट करने का साधन बनाया, जिससे संसार का घोर अहित ही हुआ और अन्तहीन युद्ध होते रहे । इसकी तुलना अगर भौगोलिक क्षेत्र भारत और उसमें प्रचलित ’सनातन-धर्म’ से करें, जिसे ’हिन्दू’ कहना उसे संकीर्णता की छोटी सीमा में संकुचित कर बाँध रखने जैसा ही है, तो यह समझना सरल है कि ’सनातन-धर्म’ ने कभी अपनी मर्यादा (अखंड भारत) का उल्लंघन नहीं किया और यद्यपि पश्चिम, पूर्व दोनों दिशाओं में समुद्र पार के देशों (स्थानों) तक इसका प्रसार हुआ, ’पंथ’-आधारित दूसरी राजनैतिक सत्ताओं ने न सिर्फ़ इस भारत-भूमि पर सतत आक्रमण किए, बल्कि अपनी बर्बरता के मद में भारत-भूमि को दासता की श्रँखलाओं में इस बुरी तरह जकड़ दिया कि आज हम भारत-भूमि के रहनेवालों की संस्कृति, सभ्यता और ’धर्म’ भी वास्तव में कितने श्रेष्ठ और श्रेष्ठतम रहे हैं इस तरफ हमारा ध्यान ही नहीं जाता बल्कि हम सेक्युलर (secular) नामक निषेधात्मक वक्तव्य (negative narrative) के आधार को गौरवान्वित करने में खुशी तक अनुभव करते हैं । यदि यह शब्द ऐसा निषेधात्मक वक्तव्य (negative narrative) न होता तो हमारे देश के संविधान-निर्माता शुरू में ही इसे हमारे राष्ट्र के संविधान की भूमिका (Preamble) में शामिल कर देते।
--
No comments:
Post a Comment