दिनांक 19-07-2018 के बाद किसी दिन 'कुछ भी' शीर्षक से यह कविता लिखी थी।
आज जब पिछले पोस्ट 'ज्ञान का भ्रम' के सन्दर्भ में नया पोस्ट '... और ’भ्रम’ का ज्ञान' लिखा तो इस कविता पर ध्यान गया जिसके बाद यह पोस्ट लिखा गया।
ऐसा लग रहा है कि यह पोस्ट इस कविता के सन्दर्भ में भी सार्थक है।
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[कुछ भी !
डगर बहुत कठिन पनघट की,
प्यास बड़ी गहरी पर घट की,
एक घड़ा मिट्टी का बना,
मन-प्राणों का दूजा बना,
बाहर की प्यास पानी से बुझे,
भीतर की कौन बुझाए, बूझे?
रह रह उठती-बुझती प्यास,
पानी की बस वह झूठी आस,
पानी धरती पर चारों ओर,
जिसका कहीं ओर ना छोर,
भीतर शुष्क हृदय मन-गात,
मृत्यु जीवन को देती मात !]
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... और ’भ्रम’ का ज्ञान
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मनुष्य ही नहीं प्रत्येक प्राणी के पास किसी घटना की उसके दृश्य-श्रव्य रूप में, भावना या अनुभव के रूप में जानकारी होती है । चूँकि प्रत्येक छोटा-बड़ा पिंड अर्थात् जड-चेतन प्रकार की कोई भी छोटी से छोटी या बड़ी से बड़ी वस्तु भी प्राण से ओत-प्रोत होती है, भले ही ही यह प्राण अव्यक्त, अनभिव्यक्त या प्रकट रूप में हो, और प्राण स्वयं ऊर्जा की अस्थिर आकृति में होनेवाली गतिविधि है, इसलिए प्राण और अस्तित्व परस्पर एक ही अनन्य और अभिन्न तत्व है । इस प्रकार प्रत्येक प्राणी के पास ’जानकारी’ के रूप में स्थैतिक और गतिशील स्मृति होती है जो उसे निरंतर सक्रिय रखती है । मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणियों में यह अधिक स्पष्ट रूप से होता है । मनुष्य के विषय में ’भाषा’ नामक साधन उसे किसी स्मृति को शब्द-बद्ध कर वैचारिक-स्मृति में रूपान्तरित करने में सहायक होता है । इस प्रकार से ’वैचारिक-स्मृति’ का उद्भव और विकास होता है । यह ’वैचारिक-स्मृति’ ज्ञान नहीं, ज्ञान का आभास मात्र होता है क्योंकि किसी भी ’विचार’ का ’तात्पर्य’ हर मनुष्य के लिए भिन्न-भिन्न हो सकता है ।
इस प्रकार ’वैचारिक-स्मृति’ /memory in terms of thought इन्द्रियगम्य / sensory, भावगम्य / sentimental, emotional, in feeling, तथा अनुभवगम्य / experiential जानकारी को ’बुद्धिगम्य’ रूप / intellectual-form देकर ’निष्कर्ष’ / inference के संग्रह में बदल देती है ।
इस प्रकार की बौद्धिक जानकारी / intellectual information उस बोध / realization से बहुत भिन्न है जो बोध / भान / revelation की तरह इन्द्रियगम्य, भावगम्य तथा अनुभवगम्य ज्ञान से भी पूर्व, उस ज्ञान से अप्रभावित तथा अछूता होता है । यह निर्विशेष बोध / भान / non-specific revelation / realization वह स्थिर अचल पृष्ठभूमि है जो इन्द्रियगम्य, भावगम्य तथा अनुभवगम्य रूप में प्रत्यक्षतः directly अवगम्य / cognizable नहीं है । और यद्यपि इसका परोक्ष / indirect अनुमान / guess बुद्धि से अवश्य किया जा सकता है, जो अपरोक्ष अनुभूति / Immediate, Instant and Direct Realization नहीं हो सकता ।
’अनुभूति’ / experience (becoming) का अर्थ ही है ’भूति’ / being के बाद उसके अनुसार होनेवाला प्रत्यय / revelation । ’भूति’ का उद्भव / emergence और लय / dissolution होता है ।
इस प्रकार ’अनुभूति’ / experience (becoming) भी एक तात्कालिक तत्व हुआ । जानकारी-रूपी ज्ञान, -ज्ञान अर्थात् बोध / भान नहीं, ज्ञान का आभास या भ्रम है । यह भ्रम भी किसी काल में व्यक्त होकर पुनः मिट जाया करता है । ’काल’ की अवधारणा भी पुनः ऐसा ही एक भ्रम है इसलिए ’अस्तित्व’ को अनादि या अनंत कहना भी औपचारिक वक्तव्य अर्थात् ’वैचारिक सत्य’ / abstract notion भर है । ’काल’ तथा ’स्थान’ परस्पर अभिन्न हैं क्योंकि ऐसा कोई ’काल’ नहीं जहाँ ’स्थान’ न हो, और ऐसा कोई ’स्थान’ नहीं जो ’काल’ से रहित हो । इसलिए अस्तित्व में अपने होने का ’वैचारिक सत्य’ / abstract notion भी औपचारिक सत्य / formal truth है ।
और चूँकि विचार के अभाव में अपने-आपको परिभाषित तक नहीं किया जा सकता, तो ’संसार’ और जिसका ’संसार’ है, ऐसे किसी स्वतन्त्र ’मैं’ की कल्पना तक कैसे की जा सकती है?
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आज जब पिछले पोस्ट 'ज्ञान का भ्रम' के सन्दर्भ में नया पोस्ट '... और ’भ्रम’ का ज्ञान' लिखा तो इस कविता पर ध्यान गया जिसके बाद यह पोस्ट लिखा गया।
ऐसा लग रहा है कि यह पोस्ट इस कविता के सन्दर्भ में भी सार्थक है।
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[कुछ भी !
डगर बहुत कठिन पनघट की,
प्यास बड़ी गहरी पर घट की,
एक घड़ा मिट्टी का बना,
मन-प्राणों का दूजा बना,
बाहर की प्यास पानी से बुझे,
भीतर की कौन बुझाए, बूझे?
रह रह उठती-बुझती प्यास,
पानी की बस वह झूठी आस,
पानी धरती पर चारों ओर,
जिसका कहीं ओर ना छोर,
भीतर शुष्क हृदय मन-गात,
मृत्यु जीवन को देती मात !]
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... और ’भ्रम’ का ज्ञान
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मनुष्य ही नहीं प्रत्येक प्राणी के पास किसी घटना की उसके दृश्य-श्रव्य रूप में, भावना या अनुभव के रूप में जानकारी होती है । चूँकि प्रत्येक छोटा-बड़ा पिंड अर्थात् जड-चेतन प्रकार की कोई भी छोटी से छोटी या बड़ी से बड़ी वस्तु भी प्राण से ओत-प्रोत होती है, भले ही ही यह प्राण अव्यक्त, अनभिव्यक्त या प्रकट रूप में हो, और प्राण स्वयं ऊर्जा की अस्थिर आकृति में होनेवाली गतिविधि है, इसलिए प्राण और अस्तित्व परस्पर एक ही अनन्य और अभिन्न तत्व है । इस प्रकार प्रत्येक प्राणी के पास ’जानकारी’ के रूप में स्थैतिक और गतिशील स्मृति होती है जो उसे निरंतर सक्रिय रखती है । मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणियों में यह अधिक स्पष्ट रूप से होता है । मनुष्य के विषय में ’भाषा’ नामक साधन उसे किसी स्मृति को शब्द-बद्ध कर वैचारिक-स्मृति में रूपान्तरित करने में सहायक होता है । इस प्रकार से ’वैचारिक-स्मृति’ का उद्भव और विकास होता है । यह ’वैचारिक-स्मृति’ ज्ञान नहीं, ज्ञान का आभास मात्र होता है क्योंकि किसी भी ’विचार’ का ’तात्पर्य’ हर मनुष्य के लिए भिन्न-भिन्न हो सकता है ।
इस प्रकार ’वैचारिक-स्मृति’ /memory in terms of thought इन्द्रियगम्य / sensory, भावगम्य / sentimental, emotional, in feeling, तथा अनुभवगम्य / experiential जानकारी को ’बुद्धिगम्य’ रूप / intellectual-form देकर ’निष्कर्ष’ / inference के संग्रह में बदल देती है ।
इस प्रकार की बौद्धिक जानकारी / intellectual information उस बोध / realization से बहुत भिन्न है जो बोध / भान / revelation की तरह इन्द्रियगम्य, भावगम्य तथा अनुभवगम्य ज्ञान से भी पूर्व, उस ज्ञान से अप्रभावित तथा अछूता होता है । यह निर्विशेष बोध / भान / non-specific revelation / realization वह स्थिर अचल पृष्ठभूमि है जो इन्द्रियगम्य, भावगम्य तथा अनुभवगम्य रूप में प्रत्यक्षतः directly अवगम्य / cognizable नहीं है । और यद्यपि इसका परोक्ष / indirect अनुमान / guess बुद्धि से अवश्य किया जा सकता है, जो अपरोक्ष अनुभूति / Immediate, Instant and Direct Realization नहीं हो सकता ।
’अनुभूति’ / experience (becoming) का अर्थ ही है ’भूति’ / being के बाद उसके अनुसार होनेवाला प्रत्यय / revelation । ’भूति’ का उद्भव / emergence और लय / dissolution होता है ।
इस प्रकार ’अनुभूति’ / experience (becoming) भी एक तात्कालिक तत्व हुआ । जानकारी-रूपी ज्ञान, -ज्ञान अर्थात् बोध / भान नहीं, ज्ञान का आभास या भ्रम है । यह भ्रम भी किसी काल में व्यक्त होकर पुनः मिट जाया करता है । ’काल’ की अवधारणा भी पुनः ऐसा ही एक भ्रम है इसलिए ’अस्तित्व’ को अनादि या अनंत कहना भी औपचारिक वक्तव्य अर्थात् ’वैचारिक सत्य’ / abstract notion भर है । ’काल’ तथा ’स्थान’ परस्पर अभिन्न हैं क्योंकि ऐसा कोई ’काल’ नहीं जहाँ ’स्थान’ न हो, और ऐसा कोई ’स्थान’ नहीं जो ’काल’ से रहित हो । इसलिए अस्तित्व में अपने होने का ’वैचारिक सत्य’ / abstract notion भी औपचारिक सत्य / formal truth है ।
और चूँकि विचार के अभाव में अपने-आपको परिभाषित तक नहीं किया जा सकता, तो ’संसार’ और जिसका ’संसार’ है, ऐसे किसी स्वतन्त्र ’मैं’ की कल्पना तक कैसे की जा सकती है?
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