अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः
गीता अध्याय 5, श्लोक 15
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शरीर में जो स्थान और महत्व अस्थि का होता है वही स्थान जीवन में आस्था का है ।
अस्थि का लचीला होना तो ज़रूरी है लेकिन अस्थिर होना कष्ट का कारण होता है ।
इसी प्रकार आस्था का भी लचीला होना ज़रूरी होता है लेकिन अस्थिर होना कष्ट का कारण होता है ।
अस्थि हो या आस्था, एक बार गलत ढंग से स्थिर हो जाए, तो हमेशा के लिए कष्ट हो जाती है ।
अस्थि शब्द का अपभ्रंश है ’हड्डी’ जो खिसक जाए तो उसे सही ढंग से ’बिठाया जाना’ बहुत ज़रूरी होता है ।
कुछ ’पहलवान’ या ’फिज़ियोथेरेपिस्ट’ इस के लिए मददगार हो सकते हैं ।
लेकिन हड्डी के टूट जाने पर कष्ट गंभीर हो जाता है ।
जैसे दाँत, घुटने, कोहनी, कन्धे, रीढ़ और शरीर के दूसरे हिस्सों की हड्डी टूटने पर कभी-कभी हो जाता है ।
हड्डी टूटने के बाद शरीर अपने ढंग से उसे दुरुस्त करने का यत्न करता है और अस्थि-रोग विशेषज्ञ की सहायता भी किसी हद तक सहायक होती है । हड्डी का एक्स-रे या बॉडी-स्कैन के ज़रिये स्थिति का ठीक-ठीक और शायद अचूक निदान भी हो सकता है ।
कुछ ऐसा ही आस्था के बारे में भी है ।
जैसे अस्थि प्रकृति-प्रदत्त वरदान है, वैसे ही आस्था भी जीवन-प्रदत्त वरदान है ।
जैसे प्रकृति-प्रदत्त वरदान का लापरवाही से प्रयोग किसी गंभीर समस्या का कारण बन सकता है, वैसे ही जीवन-प्रदत्त वरदान का भी लापरवाही से प्रयोग किसी गंभीर समस्या का कारण बन सकता है । जीवन-प्रदत्त का तात्पर्य है पर्यावरण और वातावरण से प्राप्त विभिन्न स्थितियाँ । समाज भी उसका उतना ही एक बहुत महत्वपूर्ण घटक तो है ही ।
मनुष्य-मात्र अज्ञान में जन्म लेता है और अज्ञान में ही ध्वनियों से बने शब्दों की पुनरावृत्ति से किसी विशेष शब्द-समूह से किसी विशेष ’अर्थ’ की संगति स्थापित कर लेता है । जैसे ’मा’ से माता, ’पा’, ’बा’ या ’दा’ से पिता । जैसे जैसे उसका शब्द-ज्ञान समृद्ध होता है वह शब्दों को उनके वस्तुवाचक तथा भाववाचक अर्थ से जोड़कर इस जानकारी को एकत्र और व्यवस्थित रूप देकर मस्तिष्क में स्मृति के रूप में संग्रहित कर लेता है । यह जानकारी कार्य-कारण में संबंध स्थापित कर ’उपयोगी’ भी सिद्ध होती है । बारम्बारता के प्रभाव से मनुष्य अनेक भाषागत निश्चित सिद्धान्त और निष्कर्ष तय कर लेता है जो विविध विषयों से जुड़े और परस्पर भिन्न-भिन्न प्रकार के हो सकते हैं । इनसे खेलते हुए मनुष्य गणित, कला, साहित्य, संगीत जैसे क्षेत्रों में बहुत बड़े-बड़े आश्चर्यजनक आविष्कार भी कर लेता है । किन्तु केवल ऐसा कर लेने से वह उस बहुरूपिया स्मृतिगत ’अतीत’ या बहुरूपिया कल्पित ’भविष्य’ से मुक्त नहीं हो पाता, जिसे उसने स्वयं ही अपने प्रमाद से स्मृति को सातत्य और समय को सत्यता देकर चुना और पैदा किया होता है ।
’अतीत’ और ’भविष्य’ तथा उनसे पैदा होनेवाले भय, आशंकाएँ, कौतूहल, चिन्ताएँ, लालसाएँ और व्याकुलताएँ प्रमाद का ही परिणाम होती हैं और यह प्रमाद भी अस्तित्व के प्रसाद की तरह मनुष्य को जन्म से ही प्राप्त होता है । गीता अध्याय 7, श्लोक 27 में इसी प्रमाद / सम्मोह के बारे में कहा गया है :
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वंद्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥
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अर्थ : इच्छा और द्वेष दोनों से जो उत्पन्न होता है उस अज्ञानरूपी मोहयुक्त बुद्धि के कारण ही प्रत्येक ही प्राणी जन्म से ही अनुमान से प्राप्त भ्रमों को सत्य समझकर उनसे प्रेरित होकर भिन्न-भिन्न गतिविधियों में प्रवृत्त होता है । सरल शब्दों में; -इन्द्रिय-ज्ञान के आधार पर वह संसार की विभिन्न वस्तुओं के बारे में मिले-जुले अनुमान करता हुआ उनके यथार्थ तत्व और चरित्र को जाने बिना ही उनसे सुख पाने की इच्छा और उनसे जो दुःख प्राप्त प्राप्त होने की संभावनाएँ उसे प्रतीत होती हैं उन दुःखों से द्वेष करने लगता है ।
संसार के विषयों, वस्तुओं आदि के प्रति उसकी यह प्रवृत्ति ही वह अज्ञान / मोह है जिसे प्रमाद कहा जाता है ।
इसी प्रमाद के प्रभाव में वह उन अनेक शब्दों को सीख लेता है जो किसे इंगित करते हैं यह भी उसे नहीं पता होता । वह उन शब्दों को इसी प्रमाद में स्वीकार कर इस ओर से भी आँखें बन्द रखता है कि क्या ऐसी किसी वस्तु का अस्तित्व है भी या नहीं । जैसे स्वर्ग, नरक, पाप, पुण्य, देवता, ईश्वर, समय आदि । फिर वह ’अनुमान’ से ही उनके अस्तित्व को मान लेता है और यद्यपि वह इससे भी अनभिज्ञ होता है कि उसके अनुमान भी दूसरे तमाम लोगों के अनुमानों की ही तरह उतने ही सत्य या असत्य, भ्रम या कल्पना मात्र हो सकते हैं, फिर भी वह उन पर संदेह तक नहीं करता ।
यह हुई उसकी ’आस्था’ ।
किन्तु जीवन का लचीलापन धीरे-धीरे ऐसा संदेह उसके मन में जागाता है और उन ’आस्थाओं’ की सत्यता की परीक्षा करने का ख़याल उसके मन में पैदा हो जाता है । तब वह या तो अपने शास्त्रों, गुरुओं, मार्गदर्शकों से पूछता है जिनमें से अधिकांश प्रायः उसकी ही तरह, उतने ही योग्य होते हैं लेकिन उन्होंने इस बारे में कुछ धारणाओं को इस तरह कसकर पकड़ा होता है कि वे इस पर प्रश्न उठाया जाना तक नहीं सह सकते । वे किसी क़िताब या सम्मानित व्यक्ति का हवाला देकर इन धारणाओं की सत्यता की परीक्षा किए बिना ही इन्हें बलपूर्वक दोहरा देते हैं ।
कोई-कोई, बिरला ही कोई फिर भी स्वयं ही इन अनुमानों में से असत्य का निराकरण कर इस स्थिति तक पहुँच जाता है और समझ जाता है कि यह समस्त जानकारी कोरा बुद्धिविलास और शब्दाडम्बर है । फिर ऐसी समझ आने के बाद उसमें नित्य-अनित्य के तत्व को समझने की उत्सुकता पैदा होती है । फिर उसमें यह निष्ठा उत्पन्न होती है कि यद्यपि समस्त घटनाक्रम स्मृति और पहचान नामक एक ही वस्तु के दो पक्ष हैं और इसलिए सतत विकारशील, अनित्य हैं, इनका अधिष्ठान अचल, अटल ऐसा तत्व है जो अविनाशी और अविकारी है । यद्यपि यह समझ बुद्धि में ही होती है फिर भी स्वयं बुद्धि के भी विकारशील, अनित्य होने पर जब उसका ध्यान जाता है तो उसमें उस अचल, अटल अविकारी तत्व के प्रति बोध उत्पन्न होता है । यह बोध / निष्ठा एक अपुनरावर्तनीय (irreversible) गतिविधि होती है और यद्यपि वह इसे शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता लेकिन उसके लिए यह असंभव हो जाता है कि वह पुनः मोहबुद्धि से ग्रस्त हो सके ।
चूँकि यह निष्ठा कोई ’परिणाम’ नहीं होती बल्कि स्वाभाविक स्थिति का आविष्कार मात्र होती है यह ’अज्ञान’ तथा ’जानकारी’ कहे जानेवाले ’ज्ञा’ दोनों से विलक्षण होती है । इसके इस विलक्षण स्वरूप को दर्शाने के लिए कभी-कभी इसे ’विज्ञान’ कहा जाता है । जब तक इस ’विज्ञान’से 'अज्ञान' का निवारण नहीं हो जाता तब तक मनुष्य ऐसा जन्तु है जो जन्म लेता है और मर जाया करता है।
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गीता अध्याय 5, श्लोक 15
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शरीर में जो स्थान और महत्व अस्थि का होता है वही स्थान जीवन में आस्था का है ।
अस्थि का लचीला होना तो ज़रूरी है लेकिन अस्थिर होना कष्ट का कारण होता है ।
इसी प्रकार आस्था का भी लचीला होना ज़रूरी होता है लेकिन अस्थिर होना कष्ट का कारण होता है ।
अस्थि हो या आस्था, एक बार गलत ढंग से स्थिर हो जाए, तो हमेशा के लिए कष्ट हो जाती है ।
अस्थि शब्द का अपभ्रंश है ’हड्डी’ जो खिसक जाए तो उसे सही ढंग से ’बिठाया जाना’ बहुत ज़रूरी होता है ।
कुछ ’पहलवान’ या ’फिज़ियोथेरेपिस्ट’ इस के लिए मददगार हो सकते हैं ।
लेकिन हड्डी के टूट जाने पर कष्ट गंभीर हो जाता है ।
जैसे दाँत, घुटने, कोहनी, कन्धे, रीढ़ और शरीर के दूसरे हिस्सों की हड्डी टूटने पर कभी-कभी हो जाता है ।
हड्डी टूटने के बाद शरीर अपने ढंग से उसे दुरुस्त करने का यत्न करता है और अस्थि-रोग विशेषज्ञ की सहायता भी किसी हद तक सहायक होती है । हड्डी का एक्स-रे या बॉडी-स्कैन के ज़रिये स्थिति का ठीक-ठीक और शायद अचूक निदान भी हो सकता है ।
कुछ ऐसा ही आस्था के बारे में भी है ।
जैसे अस्थि प्रकृति-प्रदत्त वरदान है, वैसे ही आस्था भी जीवन-प्रदत्त वरदान है ।
जैसे प्रकृति-प्रदत्त वरदान का लापरवाही से प्रयोग किसी गंभीर समस्या का कारण बन सकता है, वैसे ही जीवन-प्रदत्त वरदान का भी लापरवाही से प्रयोग किसी गंभीर समस्या का कारण बन सकता है । जीवन-प्रदत्त का तात्पर्य है पर्यावरण और वातावरण से प्राप्त विभिन्न स्थितियाँ । समाज भी उसका उतना ही एक बहुत महत्वपूर्ण घटक तो है ही ।
मनुष्य-मात्र अज्ञान में जन्म लेता है और अज्ञान में ही ध्वनियों से बने शब्दों की पुनरावृत्ति से किसी विशेष शब्द-समूह से किसी विशेष ’अर्थ’ की संगति स्थापित कर लेता है । जैसे ’मा’ से माता, ’पा’, ’बा’ या ’दा’ से पिता । जैसे जैसे उसका शब्द-ज्ञान समृद्ध होता है वह शब्दों को उनके वस्तुवाचक तथा भाववाचक अर्थ से जोड़कर इस जानकारी को एकत्र और व्यवस्थित रूप देकर मस्तिष्क में स्मृति के रूप में संग्रहित कर लेता है । यह जानकारी कार्य-कारण में संबंध स्थापित कर ’उपयोगी’ भी सिद्ध होती है । बारम्बारता के प्रभाव से मनुष्य अनेक भाषागत निश्चित सिद्धान्त और निष्कर्ष तय कर लेता है जो विविध विषयों से जुड़े और परस्पर भिन्न-भिन्न प्रकार के हो सकते हैं । इनसे खेलते हुए मनुष्य गणित, कला, साहित्य, संगीत जैसे क्षेत्रों में बहुत बड़े-बड़े आश्चर्यजनक आविष्कार भी कर लेता है । किन्तु केवल ऐसा कर लेने से वह उस बहुरूपिया स्मृतिगत ’अतीत’ या बहुरूपिया कल्पित ’भविष्य’ से मुक्त नहीं हो पाता, जिसे उसने स्वयं ही अपने प्रमाद से स्मृति को सातत्य और समय को सत्यता देकर चुना और पैदा किया होता है ।
’अतीत’ और ’भविष्य’ तथा उनसे पैदा होनेवाले भय, आशंकाएँ, कौतूहल, चिन्ताएँ, लालसाएँ और व्याकुलताएँ प्रमाद का ही परिणाम होती हैं और यह प्रमाद भी अस्तित्व के प्रसाद की तरह मनुष्य को जन्म से ही प्राप्त होता है । गीता अध्याय 7, श्लोक 27 में इसी प्रमाद / सम्मोह के बारे में कहा गया है :
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वंद्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥
--
अर्थ : इच्छा और द्वेष दोनों से जो उत्पन्न होता है उस अज्ञानरूपी मोहयुक्त बुद्धि के कारण ही प्रत्येक ही प्राणी जन्म से ही अनुमान से प्राप्त भ्रमों को सत्य समझकर उनसे प्रेरित होकर भिन्न-भिन्न गतिविधियों में प्रवृत्त होता है । सरल शब्दों में; -इन्द्रिय-ज्ञान के आधार पर वह संसार की विभिन्न वस्तुओं के बारे में मिले-जुले अनुमान करता हुआ उनके यथार्थ तत्व और चरित्र को जाने बिना ही उनसे सुख पाने की इच्छा और उनसे जो दुःख प्राप्त प्राप्त होने की संभावनाएँ उसे प्रतीत होती हैं उन दुःखों से द्वेष करने लगता है ।
संसार के विषयों, वस्तुओं आदि के प्रति उसकी यह प्रवृत्ति ही वह अज्ञान / मोह है जिसे प्रमाद कहा जाता है ।
इसी प्रमाद के प्रभाव में वह उन अनेक शब्दों को सीख लेता है जो किसे इंगित करते हैं यह भी उसे नहीं पता होता । वह उन शब्दों को इसी प्रमाद में स्वीकार कर इस ओर से भी आँखें बन्द रखता है कि क्या ऐसी किसी वस्तु का अस्तित्व है भी या नहीं । जैसे स्वर्ग, नरक, पाप, पुण्य, देवता, ईश्वर, समय आदि । फिर वह ’अनुमान’ से ही उनके अस्तित्व को मान लेता है और यद्यपि वह इससे भी अनभिज्ञ होता है कि उसके अनुमान भी दूसरे तमाम लोगों के अनुमानों की ही तरह उतने ही सत्य या असत्य, भ्रम या कल्पना मात्र हो सकते हैं, फिर भी वह उन पर संदेह तक नहीं करता ।
यह हुई उसकी ’आस्था’ ।
किन्तु जीवन का लचीलापन धीरे-धीरे ऐसा संदेह उसके मन में जागाता है और उन ’आस्थाओं’ की सत्यता की परीक्षा करने का ख़याल उसके मन में पैदा हो जाता है । तब वह या तो अपने शास्त्रों, गुरुओं, मार्गदर्शकों से पूछता है जिनमें से अधिकांश प्रायः उसकी ही तरह, उतने ही योग्य होते हैं लेकिन उन्होंने इस बारे में कुछ धारणाओं को इस तरह कसकर पकड़ा होता है कि वे इस पर प्रश्न उठाया जाना तक नहीं सह सकते । वे किसी क़िताब या सम्मानित व्यक्ति का हवाला देकर इन धारणाओं की सत्यता की परीक्षा किए बिना ही इन्हें बलपूर्वक दोहरा देते हैं ।
कोई-कोई, बिरला ही कोई फिर भी स्वयं ही इन अनुमानों में से असत्य का निराकरण कर इस स्थिति तक पहुँच जाता है और समझ जाता है कि यह समस्त जानकारी कोरा बुद्धिविलास और शब्दाडम्बर है । फिर ऐसी समझ आने के बाद उसमें नित्य-अनित्य के तत्व को समझने की उत्सुकता पैदा होती है । फिर उसमें यह निष्ठा उत्पन्न होती है कि यद्यपि समस्त घटनाक्रम स्मृति और पहचान नामक एक ही वस्तु के दो पक्ष हैं और इसलिए सतत विकारशील, अनित्य हैं, इनका अधिष्ठान अचल, अटल ऐसा तत्व है जो अविनाशी और अविकारी है । यद्यपि यह समझ बुद्धि में ही होती है फिर भी स्वयं बुद्धि के भी विकारशील, अनित्य होने पर जब उसका ध्यान जाता है तो उसमें उस अचल, अटल अविकारी तत्व के प्रति बोध उत्पन्न होता है । यह बोध / निष्ठा एक अपुनरावर्तनीय (irreversible) गतिविधि होती है और यद्यपि वह इसे शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता लेकिन उसके लिए यह असंभव हो जाता है कि वह पुनः मोहबुद्धि से ग्रस्त हो सके ।
चूँकि यह निष्ठा कोई ’परिणाम’ नहीं होती बल्कि स्वाभाविक स्थिति का आविष्कार मात्र होती है यह ’अज्ञान’ तथा ’जानकारी’ कहे जानेवाले ’ज्ञा’ दोनों से विलक्षण होती है । इसके इस विलक्षण स्वरूप को दर्शाने के लिए कभी-कभी इसे ’विज्ञान’ कहा जाता है । जब तक इस ’विज्ञान’से 'अज्ञान' का निवारण नहीं हो जाता तब तक मनुष्य ऐसा जन्तु है जो जन्म लेता है और मर जाया करता है।
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