कर्म तथा धर्म का प्रश्न
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कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥
(श्रीमद्भग्वद्गीता अध्याय ४, श्लोक १७)
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अर्थ : चूँकि कर्म (की गति) गूढ है, इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह ’कर्म’ (की गति) क्या है, ’विकर्म’ (की गति) क्या है तथा ’अकर्म’ (की गति) क्या है इसे ठीक से समझ ले क्योंकि कोई भी क्षणमात्र भी स्वरूप से कर्म को त्याग नहीं सकता ।
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क्या मनुष्य कर्म करने या न करने के लिए स्वतन्त्र है?
लगता तो यही है, किन्तु थोड़ा ध्यानपूर्वक देखें तो यह दिखाई पड़ता है कि मनुष्य प्रायः कर्म के हो जाने के बाद ही समझ पाता है कि उसे उस कर्म को करने या न करने की प्रेरणा कहीं से प्राप्त हुई थी । वह ’कहीं’, - चाहे उसका संकल्प, संस्कार या आदत, परिस्थितिजन्य भय, आवेश (मोह), प्रमाद / लापरवाही, लोभ, कर्तव्य की भावना रही हो, या अनायास उससे हुआ कोई विवेकहीन अमर्यादित कृत्य हो जिसके फलस्वरूप उसे बाद में थोड़ी देर की प्रसन्नता, या पछतावा और शोक करना पड़ा हो । यद्यपि ऐसा दिखाई पड़ता है कि जिन कृत्यों / कर्मों / कामों के फल से हम सुखी होते हैं, उनके लिए कभी-कभी हमें लगातार बहुत यत्न और संघर्ष तक करना पड़ता है, और हम खुशी-खुशी या महिमामंडित त्याग कहकर उन कर्मों तथा उनके फल के भागी भी होते हैं, तो भी उस फल की भी समाप्ति हो जाती है इसलिए अन्ततः वह ’अनित्य’ ही सिद्ध होता है ।
फिर भी,
हम ’कर्म’ के यन्त्र क्यों बने रहते हैं?
इसके संभवतः दो मुख्य कारण हो सकते हैं :
पहला कारण इस बारे में हमारा यह अज्ञान कि किसी निश्चित कर्म को करने से हमें कोई तय परिणाम ही मिलेगा, जबकि वैसे भी हम जानते हैं कि कोई परिणाम बहुत से दूसरे कारणों पर भी निर्भर होता है, फिर भी फल के आकर्षण और लोभ से हम इस सामान्य विवेक को भी भूल जाते हैं, दरक़िनार कर देते हैं ।
दूसरा कारण यह कि हम (या हमारे मन) कर्म किए बिना शान्तिपूर्वक स्थिर नहीं रह सकते । यदि हमारे पास करने के लिए कोई कार्य नहीं हो तो या तो हमें नींद आने लगती है या हम (या हमारे मन) किसी ऐसे कार्य में व्यस्त होने का प्रयास करने लगते हैं जिसमें हम अधिकतम मग्न हो सकें या डूब सकें या जिससे हमें कोई ’लाभ’ प्राप्त हो । हमें लगता है कि यह ’लाभ’ किसी ’आदर्श’ की प्राप्ति के रूप में भी तो हो सकता है ! किन्तु स्पष्ट है कि किसी भावी ’लाभ’ को प्राप्त करने का विचार स्वयं ही हमारी वर्तमान स्थिति है और वह ’भावी’ केवल हमारी कल्पना में ही है । और यद्यपि यह कल्पना स्वप्न से बदलकर साकार भी हो सकती है लेकिन जब उसकी ऐसी प्राप्ति हो भी जाती है, तो भी हम (या हमारे मन) पुनः उसी बिन्दु पर लौट आते हैं जहाँ वह कर्म किए बिना शान्तिपूर्वक स्थिर नहीं रह सकते ।
कर्म को व्यक्त रूप में व्यक्ति और समष्टि के बीच के पारस्परिक व्यवहार की तरह समझा जा सकता है ।
इसी प्रकार धर्म को भी, व्यक्त रूप में व्यक्ति और समष्टि के बीच के पारस्परिक व्यवहार की तरह समझा जा सकता है ।
व्यक्ति और समष्टि जहाँ अस्तित्व के परस्पर सहपूरक (counter-part) हैं वहीं हर व्यक्ति अर्थात् व्यक्त इकाई जो मनुष्य या कोई जीव, जड या चेतन ’पिन्ड’, वस्तु -प्राणी, वनस्पति, जलचर, नभचर आदि भी हो सकता है, अपने से संबंधित समष्टि से जिस प्रकार का व्यवहार करता है वह उसका धर्म है । मनुष्य के अलावा शेष ’व्यक्ति’ स्वाभाविक रूप में इस धर्म का आचरण करते हैं और तथाकथित ’जड’-पिन्ड भी इतनी दृढ़ता से इसका आचरण करते हैं कि उनके धर्म को वैज्ञानिक बुद्धि की कसौटी पर अत्यंत सूक्ष्मता और सटीकता से नियमबद्ध भी किया जा सकता है और किया भी जाता है, जिसे ’द्रव्य के गुणधर्म / (Properties of Matter)’ के अन्तर्गत Physics में पढ़ा-पढ़ाया भी जाता है । इसी प्रकार खगोलीय-पिन्ड भी खगोलशास्त्र Astronomy के अन्तर्गत अध्ययन और अनुसन्धान का विषय होते हैं । ’काल’ तथा ’स्थान’ भी ऐसे ही पिन्ड हैं, जिन्हें भूल से ’जड’ मान लिया गया है क्योंकि हम केवल मनुष्य को ही ’चेतन’ मानते हैं, यद्यपि ’चेतना’ (का स्वरूप) क्या है इस बारे में अभी हम किसी स्पष्ट वैज्ञानिक, सुनिश्चित निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके हैं ।
पर अभी तो व्यक्ति के धर्म की बात ।
मनुष्य के रूप में भी शरीर-रूपी पिन्ड के धर्म के आधार पर स्त्री-धर्म और पुरुष-धर्म स्पष्टतः परस्पर अत्यन्त भिन्न-भिन्न होते हुए भी एक समग्र धर्म की दो शाखाओं की तरह हैं । अपने आपको शरीर मान लेते ही हम स्वयं को स्त्री अथवा पुरुष की तरह स्वीकार कर लेते हैं, लेकिन वह चेतना (consciousness) जिसके अन्तर्गत बुद्धि कार्य करती है अवश्य ही शरीर से संयुक्त शरीर का वह स्वामी है, जो बुद्धि के कार्य प्रारंभ करने के बाद ही ’अपना’ तादात्म्य शरीर से करती है । इस प्रकार हम एक दृष्टि से स्त्री या पुरुष, लेकिन दूसरी दृष्टि से ’मैं’-बुद्धि से भी रहित वह चेतना भी हैं, जिसमें बुद्धि कभी कार्य करती है और कभी कभी कार्य से अवकाश ग्रहण कर लेती है । यह चेतना भी पुनः जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति की अवस्थाओं से क्रमिक रूप से गुज़रती रहती है, और उन अवस्थाओं में भी बुद्धि अपने तरीके से कार्यरत रहती है । इसका प्रमाण स्मृति है जो हमारी जागृत अवस्था में भी स्वप्न तथा सुषुप्ति में हमारे अस्तित्व के अबाध, सतत अविच्छिन्न रहने को हमारे लिए प्रत्यक्ष रूप से स्पष्ट करती है ।
अब प्रश्न उठता है कि जागृत दशा में समष्टि अर्थात् हमारे संपर्क में आनेवाले ’संसार’ से हमारा व्यवहार कैसा है?
क्या इसे समझने के लिए किसी गुरु, मार्गदर्शक या किताब का आधार लेना हमारे लिए आवश्यक है?
और, क्या उस आधार से, - धर्म क्या है इसका कोई असंदिग्ध और विश्वसनीय सुनिश्चित प्रमाण पाया जा सकता है?
लेकिन हमारे संसार में प्रायः यही तरीका लगभग हर किसी ने अपना रखा है ।
लेकिन चूँकि किसी गुरु, मार्गदर्शक या किताब के वचनों और शिक्षाओं की अपनी-अपनी व्याख्या भी हर कोई अलग-अलग तरीके से करता है इसलिए आज के विश्व में तमाम धर्मों के बावज़ूद धर्म का संकट और अधिक बढ़ता ही जा रहा है ।
किसी ’धर्म’ की निन्दा, विरोध या झूठी-सच्ची प्रशंसा या आग्रह करना इस चुनौती का सम्यक् प्रत्युत्तर नहीं हो सकता, क्योंकि उसके परिणाम में विभिन्न धर्मों (और उनके मत-मतान्तरों) के बीच द्वेष ही बढ़ता है । वस्तुतः "मेरा धर्म क्या है?" इस प्रश्न का उत्तर, इस समस्या का समाधान, इस बारे में विवेचना अपने लिए जब तक कोई स्वयं ही नहीं करता, तब तक यह दुविधा बनी ही रहेगी । कुछ लोग किसी ’विश्वास’ को ही ’धर्म’ कहकर रुक जाते हैं जैसे महात्मा गाँधी । उनके तर्क से विरोध नहीं है, न उसे अंतिम कहा जा सकता है और चूँकि उस पर रुक जाना सामाजिक और तात्कालिक सुविधा भले ही हो, वह केवल प्रश्न / समस्या / चुनौती को विलंबित ही रखता है ।
यद्यपि कुछ लोग उससे सहमत भी हो सकते हैं, लेकिन वह भी अन्ततः वैसा ही एक सामाजिक धर्म होकर रह जाता है, जो इस बारे में हमें कोई दिशा नहीं दिखलाता कि हमारा ’धर्म’ क्या है ? जब तक मनुष्य के अपने ही भीतर ऐसी तीव्र जिज्ञासा, प्रखर उत्कंठा नहीं पैदा होती जो उसे स्वयं ही इस खोज में संलग्न कर दे कि "धर्म क्या है?" तब तक वह उस विशाल भवन के भीतर भटकता रहेगा जिसकी हर दीवार पर हूबहू दरवाजे की आकृति के अनेक ऐसे चित्र बने हैं जिनसे गुज़रने की कोशिश करते ही सिर दीवार से टकराने लगता है ।
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कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥
(श्रीमद्भग्वद्गीता अध्याय ४, श्लोक १७)
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अर्थ : चूँकि कर्म (की गति) गूढ है, इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह ’कर्म’ (की गति) क्या है, ’विकर्म’ (की गति) क्या है तथा ’अकर्म’ (की गति) क्या है इसे ठीक से समझ ले क्योंकि कोई भी क्षणमात्र भी स्वरूप से कर्म को त्याग नहीं सकता ।
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क्या मनुष्य कर्म करने या न करने के लिए स्वतन्त्र है?
लगता तो यही है, किन्तु थोड़ा ध्यानपूर्वक देखें तो यह दिखाई पड़ता है कि मनुष्य प्रायः कर्म के हो जाने के बाद ही समझ पाता है कि उसे उस कर्म को करने या न करने की प्रेरणा कहीं से प्राप्त हुई थी । वह ’कहीं’, - चाहे उसका संकल्प, संस्कार या आदत, परिस्थितिजन्य भय, आवेश (मोह), प्रमाद / लापरवाही, लोभ, कर्तव्य की भावना रही हो, या अनायास उससे हुआ कोई विवेकहीन अमर्यादित कृत्य हो जिसके फलस्वरूप उसे बाद में थोड़ी देर की प्रसन्नता, या पछतावा और शोक करना पड़ा हो । यद्यपि ऐसा दिखाई पड़ता है कि जिन कृत्यों / कर्मों / कामों के फल से हम सुखी होते हैं, उनके लिए कभी-कभी हमें लगातार बहुत यत्न और संघर्ष तक करना पड़ता है, और हम खुशी-खुशी या महिमामंडित त्याग कहकर उन कर्मों तथा उनके फल के भागी भी होते हैं, तो भी उस फल की भी समाप्ति हो जाती है इसलिए अन्ततः वह ’अनित्य’ ही सिद्ध होता है ।
फिर भी,
हम ’कर्म’ के यन्त्र क्यों बने रहते हैं?
इसके संभवतः दो मुख्य कारण हो सकते हैं :
पहला कारण इस बारे में हमारा यह अज्ञान कि किसी निश्चित कर्म को करने से हमें कोई तय परिणाम ही मिलेगा, जबकि वैसे भी हम जानते हैं कि कोई परिणाम बहुत से दूसरे कारणों पर भी निर्भर होता है, फिर भी फल के आकर्षण और लोभ से हम इस सामान्य विवेक को भी भूल जाते हैं, दरक़िनार कर देते हैं ।
दूसरा कारण यह कि हम (या हमारे मन) कर्म किए बिना शान्तिपूर्वक स्थिर नहीं रह सकते । यदि हमारे पास करने के लिए कोई कार्य नहीं हो तो या तो हमें नींद आने लगती है या हम (या हमारे मन) किसी ऐसे कार्य में व्यस्त होने का प्रयास करने लगते हैं जिसमें हम अधिकतम मग्न हो सकें या डूब सकें या जिससे हमें कोई ’लाभ’ प्राप्त हो । हमें लगता है कि यह ’लाभ’ किसी ’आदर्श’ की प्राप्ति के रूप में भी तो हो सकता है ! किन्तु स्पष्ट है कि किसी भावी ’लाभ’ को प्राप्त करने का विचार स्वयं ही हमारी वर्तमान स्थिति है और वह ’भावी’ केवल हमारी कल्पना में ही है । और यद्यपि यह कल्पना स्वप्न से बदलकर साकार भी हो सकती है लेकिन जब उसकी ऐसी प्राप्ति हो भी जाती है, तो भी हम (या हमारे मन) पुनः उसी बिन्दु पर लौट आते हैं जहाँ वह कर्म किए बिना शान्तिपूर्वक स्थिर नहीं रह सकते ।
कर्म को व्यक्त रूप में व्यक्ति और समष्टि के बीच के पारस्परिक व्यवहार की तरह समझा जा सकता है ।
इसी प्रकार धर्म को भी, व्यक्त रूप में व्यक्ति और समष्टि के बीच के पारस्परिक व्यवहार की तरह समझा जा सकता है ।
व्यक्ति और समष्टि जहाँ अस्तित्व के परस्पर सहपूरक (counter-part) हैं वहीं हर व्यक्ति अर्थात् व्यक्त इकाई जो मनुष्य या कोई जीव, जड या चेतन ’पिन्ड’, वस्तु -प्राणी, वनस्पति, जलचर, नभचर आदि भी हो सकता है, अपने से संबंधित समष्टि से जिस प्रकार का व्यवहार करता है वह उसका धर्म है । मनुष्य के अलावा शेष ’व्यक्ति’ स्वाभाविक रूप में इस धर्म का आचरण करते हैं और तथाकथित ’जड’-पिन्ड भी इतनी दृढ़ता से इसका आचरण करते हैं कि उनके धर्म को वैज्ञानिक बुद्धि की कसौटी पर अत्यंत सूक्ष्मता और सटीकता से नियमबद्ध भी किया जा सकता है और किया भी जाता है, जिसे ’द्रव्य के गुणधर्म / (Properties of Matter)’ के अन्तर्गत Physics में पढ़ा-पढ़ाया भी जाता है । इसी प्रकार खगोलीय-पिन्ड भी खगोलशास्त्र Astronomy के अन्तर्गत अध्ययन और अनुसन्धान का विषय होते हैं । ’काल’ तथा ’स्थान’ भी ऐसे ही पिन्ड हैं, जिन्हें भूल से ’जड’ मान लिया गया है क्योंकि हम केवल मनुष्य को ही ’चेतन’ मानते हैं, यद्यपि ’चेतना’ (का स्वरूप) क्या है इस बारे में अभी हम किसी स्पष्ट वैज्ञानिक, सुनिश्चित निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके हैं ।
पर अभी तो व्यक्ति के धर्म की बात ।
मनुष्य के रूप में भी शरीर-रूपी पिन्ड के धर्म के आधार पर स्त्री-धर्म और पुरुष-धर्म स्पष्टतः परस्पर अत्यन्त भिन्न-भिन्न होते हुए भी एक समग्र धर्म की दो शाखाओं की तरह हैं । अपने आपको शरीर मान लेते ही हम स्वयं को स्त्री अथवा पुरुष की तरह स्वीकार कर लेते हैं, लेकिन वह चेतना (consciousness) जिसके अन्तर्गत बुद्धि कार्य करती है अवश्य ही शरीर से संयुक्त शरीर का वह स्वामी है, जो बुद्धि के कार्य प्रारंभ करने के बाद ही ’अपना’ तादात्म्य शरीर से करती है । इस प्रकार हम एक दृष्टि से स्त्री या पुरुष, लेकिन दूसरी दृष्टि से ’मैं’-बुद्धि से भी रहित वह चेतना भी हैं, जिसमें बुद्धि कभी कार्य करती है और कभी कभी कार्य से अवकाश ग्रहण कर लेती है । यह चेतना भी पुनः जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति की अवस्थाओं से क्रमिक रूप से गुज़रती रहती है, और उन अवस्थाओं में भी बुद्धि अपने तरीके से कार्यरत रहती है । इसका प्रमाण स्मृति है जो हमारी जागृत अवस्था में भी स्वप्न तथा सुषुप्ति में हमारे अस्तित्व के अबाध, सतत अविच्छिन्न रहने को हमारे लिए प्रत्यक्ष रूप से स्पष्ट करती है ।
अब प्रश्न उठता है कि जागृत दशा में समष्टि अर्थात् हमारे संपर्क में आनेवाले ’संसार’ से हमारा व्यवहार कैसा है?
क्या इसे समझने के लिए किसी गुरु, मार्गदर्शक या किताब का आधार लेना हमारे लिए आवश्यक है?
और, क्या उस आधार से, - धर्म क्या है इसका कोई असंदिग्ध और विश्वसनीय सुनिश्चित प्रमाण पाया जा सकता है?
लेकिन हमारे संसार में प्रायः यही तरीका लगभग हर किसी ने अपना रखा है ।
लेकिन चूँकि किसी गुरु, मार्गदर्शक या किताब के वचनों और शिक्षाओं की अपनी-अपनी व्याख्या भी हर कोई अलग-अलग तरीके से करता है इसलिए आज के विश्व में तमाम धर्मों के बावज़ूद धर्म का संकट और अधिक बढ़ता ही जा रहा है ।
किसी ’धर्म’ की निन्दा, विरोध या झूठी-सच्ची प्रशंसा या आग्रह करना इस चुनौती का सम्यक् प्रत्युत्तर नहीं हो सकता, क्योंकि उसके परिणाम में विभिन्न धर्मों (और उनके मत-मतान्तरों) के बीच द्वेष ही बढ़ता है । वस्तुतः "मेरा धर्म क्या है?" इस प्रश्न का उत्तर, इस समस्या का समाधान, इस बारे में विवेचना अपने लिए जब तक कोई स्वयं ही नहीं करता, तब तक यह दुविधा बनी ही रहेगी । कुछ लोग किसी ’विश्वास’ को ही ’धर्म’ कहकर रुक जाते हैं जैसे महात्मा गाँधी । उनके तर्क से विरोध नहीं है, न उसे अंतिम कहा जा सकता है और चूँकि उस पर रुक जाना सामाजिक और तात्कालिक सुविधा भले ही हो, वह केवल प्रश्न / समस्या / चुनौती को विलंबित ही रखता है ।
यद्यपि कुछ लोग उससे सहमत भी हो सकते हैं, लेकिन वह भी अन्ततः वैसा ही एक सामाजिक धर्म होकर रह जाता है, जो इस बारे में हमें कोई दिशा नहीं दिखलाता कि हमारा ’धर्म’ क्या है ? जब तक मनुष्य के अपने ही भीतर ऐसी तीव्र जिज्ञासा, प्रखर उत्कंठा नहीं पैदा होती जो उसे स्वयं ही इस खोज में संलग्न कर दे कि "धर्म क्या है?" तब तक वह उस विशाल भवन के भीतर भटकता रहेगा जिसकी हर दीवार पर हूबहू दरवाजे की आकृति के अनेक ऐसे चित्र बने हैं जिनसे गुज़रने की कोशिश करते ही सिर दीवार से टकराने लगता है ।
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