Saturday, 18 May 2019

मृद्भान्ड और मृद्-शकटिकम्

कविता / 19-05-2019 
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(मृद्भान्ड और मृच्छकटिकम्)
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धर्म अविकारी तृणवत्,
सनातन और सतत,
नित्य और शाश्वत्,
तृण सा विलुप्त हो जाता है,
ग्रीष्म में,
तृण सा पुनः उग आता है,
पावस के आते ही,
चरते हैं चौपाए-मृग,
जिनके विस्फारित-दृग,
और वे पंछी पतंगे भी,
पलते हैं व्योम-खग,
रोकती है घास जल को,
रोकती है मृदा को भी,
मृद्भाण्ड में जल-बीज,
सृष्टि-बीज जीवन का !
देह धरती की मिट्टी,
मिट्टी का ही मृद्भान्ड भी,
देह मनुज की मिट्टी,
गंध लिए मिट्टी की,
गंध मिट्टी का गुण,
जगाता है स्पर्श को,
स्पर्श वायु का गुण,
जगाता है अग्नि को,
अग्नि आकाश का गुण,
शब्द सा व्यापक हर ओर,
और गूँज-अनुगूँज,
जीवन की, सृष्टि की ।
जीवन चलता चरैवेति,
मिट्टी की गाड़ी,
-मृच्छकटिकम्,
चलती है गाड़ी जीवन की !
अंग-अंग मिट्टी का,
अंग-राग भी मिट्टी,
राग-रंग मिट्टी का,
कण-कण में व्याप्त मिट्टी ।
फिर क्यों मिट्टी से शर्म,
फिर क्यों मिट्टी का मर्म,
समझता नहीं मनुज-धर्म,
एक दिन सो जाना है,
ओढ़कर चादर मिट्टी ।
'धूल भरे अति सोहित स्यामजू',
गाता है रसखान,
'किलकि किलकि उठत धाय,
गिरत भूमि लटपटाय,
ठुमकि चलत रामचंद्र ...'
देखते हैं तुलसीदास, -अपलक,   
शूद्र कः?, -शूद्रकः !
मिट्टी से जुड़ा,
लिखता है चरित्र मिट्टी का,
माहात्म्य यूँ मिट्टी का !
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(कल्पिता)

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