Monday, 13 May 2019

ज्ञान का भ्रम

युद्ध क्यों समाप्त नहीं होते ? 
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11 मई 2019 को अपने hindi-ka-blog में एक पोस्ट लिखा था, जिसमें से कुछ अंश यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ:
"... किसी व्यक्ति / वस्तु के 'नाम' से हम उस व्यक्ति / वस्तु के बारे में (व्यावहारिक रूप से काफी हद तक) सुनिश्चित रूप से यह जान जाते हैं कि उसका स्वरूप, रंग-रूप, प्रकृति, 'पहचान' आदि (क्या) है, क्या उस व्यक्ति / वस्तु को 'दिए गए' ईश्वर, अल्लाह, God या ख़ुदा, भगवान, जैसे किसी 'नाम' से उस सत्ता, व्यक्ति / वस्तु के स्वरूप, रंग-रूप, प्रकृति, 'पहचान' आदि के बारे में हमें ऐसा कोई ठोस, सुनिश्चित, (और भौतिक) प्रमाण / निष्कर्ष प्राप्त होता है, जिस पर सब परस्पर सहमत हो सकें? "
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" ... किसी 'सत्य' (या असत्य) को यद्यपि 'विचार' में ढाला जा सकता है, किन्तु (ऐसा) वैचारिक सत्य / असत्य व्यवहार के स्तर पर हमेशा अपूर्ण, आधा-अधूरा ही होता है क्योंकि इसकी व्याख्या (और मतलब) हर कोई अपने तरीके से तय करता है; - और तब उसे भ्रम हो जाता है, - या वह विश्वास कर बैठता है, कि (दूसरे भी) सभी उस (विचार या शब्द-समूह) का वही तात्पर्य ग्रहण करते हैं  जैसा कि वह सोचता है।"
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" ... क्या  'धर्म', 'सत्य', 'आत्मा', 'परमात्मा', 'हिन्दू' 'जाति', 'मुसलमान', 'यहूदी', 'ईसाई', 'भारतीय, 'रूसी', 'सभ्यता' 'संस्कृति', 'समाज', 'मन', ..... 'चीनी',  'कांग्रेसी', 'कम्युनिस्ट', 'नास्तिक' (atheist), 'आस्तिक' (theist), 'अज्ञेयवादी' (agnostic), 'संदेहवादी' (skeptic) आदि भी क्या ऐसे ही 'वैचारिक सत्य' / abstract notions नहीं हैं, जिनकी हर कोई अपने ढंग से व्याख्या तो कर सकता है, लेकिन जिनका कोई ठोस (भौतिक, इन्द्रियग्राह्य और बुद्धिग्राह्य)  सुनिश्चित स्वरूप, रंग-रूप, प्रकृति, 'पहचान' आदि क्या है, इस बारे में न तो कोई ठीक-ठीक जानता है और न इसे समझा ही सकता है ?"
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किन्तु ऐसे ही अनेक 'वैचारिक सत्य' / abstract notions फिर भी मनुष्य को अनेक कल्पित समुदायों / वर्गों में बाँटकर विभाजित और विखंडित कर देते हैं, और हर मनुष्य अलग-अलग समय में ऐसे परस्पर विसंगत अलग अलग समुदाय से जुड़े होने का, उसके प्रति 'समर्पित' होने का दावा और आग्रह भी करता है।
उदाहरण के लिए मैं 'कम्युनिस्ट' हो सकता हूँ, साथ-ही साथ कट्टर हिन्दू या मुसलमान या बौद्ध या ईसाई भी हो सकता हूँ। 'हिन्दू' होते हुए भी मैं 'मूर्तिपूजक' या 'मूर्तिपूजा का विरोधी' हो सकता हूँ।  मैं स्त्री-स्वतंत्रता का समर्थक या विरोधी हो सकता हूँ और पुनः स्त्री-स्वतंत्रता की मेरी अपनी व्याख्या और तात्पर्य है, जो औरों से बहुत अलग है। 'धर्म' या 'धर्म-निरपेक्षता' की मेरी अपनी व्याख्या और तात्पर्य है जो औरों से बहुत अलग है।
क्या ऐसे संसार में रहते हुए हम कभी परस्पर सौहार्द्र और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की भावना के साथ सरलता से एक साथ रहने की कल्पना कर सकते हैं ?
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