Sunday, 26 May 2019

श्रेयो हि ज्ञानं अभ्यासात्

गीता, उपनिषद् और पञ्चदशी 
--
श्रेयो हि ज्ञानं अभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।।
(गीता 12/12)
सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रुणु मे भरतर्षभ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति।।
(गीता 18/36)
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्।।
(गीता 18/37)
विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्।।
(गीता 18/38)
यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्।।
(गीता 18/39)
--
जैसा कि सुना और पढ़ा भी है, मनुष्य एक सामाजिक प्राणी अर्थात् समूह में रहनेवाला जीव है। मछलियाँ, मृग, पक्षी, भेड़-बकरियाँ, कुत्ते, भेड़िए, वानर आदि भी ऐसे ही हैं।
लेकिन समूह में रहने से ही मनुष्य के मन में भाषा नामक वह यंत्र पैदा और विकसित हो जाता है, जो दूसरे जीवों में शायद इतना या इस प्रकार से विकसित नहीं हो पाता। क्योंकि मनुष्य भाषा का प्रयोग करते हुए 'समय' नामक कल्पना को अतिरंजना की सीमा तक ले जाकर 'अतीत' और 'भविष्य' नामक कालखण्डों को व्यावहारिक धरातल पर उस प्रकार काम में लाने की कोशिश करता है जैसा कि वह अन्य भौतिक वस्तुओं के संबंध में करता है। और इस प्रकार से काल की अतीत, वर्तमान तथा भविष्य की स्थिति का पूर्वानुमान कर उन्हें एक ठोस तथ्य मान बैठता है।  मनुष्य  उसके 'अतीत' या 'वर्तमान' में तो फेरबदल कर ही नहीं सकता, 'अपने' भविष्य में भी ऐसा कर पाना उसके लिए नामुमकिन है क्योंकि 'भविष्य' के असंख्य चित्रों में से कुछ ही उसकी कल्पना में हो सकते हैं और चूँकि शुद्धतः भौतिक अर्थों में 'समय' का जैसा प्रयोग वह करता है, उसके अतिरिक्त किसी भी अन्य प्रकार के 'समय' से वह नितांत अनभिज्ञ होता है, इसलिए भी यह संभव नहीं है। इसकी तुलना में शेयर-मार्केट या एग्जिट-पोल की सही सही भविष्यवाणी करना शायद उसके लिए अधिक आसान हो सकता है।
काल और भविष्य के इस अनुमान के आधार पर वह प्रयोग अर्थात् आचरण के किसी प्रकार का अभ्यास करता है जो केवल कौतूहलवश या जिज्ञासा या बाध्यतावश भी हो सकता है।
प्रयोग से उसे वस्तुओं और प्रकृति आदि की जानकारी प्राप्त होती है जिसे वह और अनुसंधान के द्वारा अत्यंत सटीक और सम्प्रेषणगम्य रीति (भाषा) से दूसरों को प्रदान भी कर सकता है। इस प्रकार वह अपने उन भोगों और अनुभवों को भी बहुत समृद्ध और विकसित कर सकता है जिन्हें विवेक के अभाव में वह 'सुख' समझता है।  चूँकि ऐसे समस्त 'सुख' परस्पर विसंगत और अस्थायी भी होते हैं इसलिए वस्तुतः वे सुख प्रतीत होते हुए भी सुख के सात्विक, राजसिक और तामसिक प्रकार मात्र होते हैं।
इस प्रकार ज्ञान के दो प्रकार हुए :
एक - जानकारी के रूप में वैचारिक;
दूसरा - 'विवेक' के रूप में सैद्धान्तिक।
इसी दूसरे ज्ञान का उल्लेख गीता के उपरोक्त श्लोक (12/12) में किया गया है, जिसमे कहा गया है कि ऐसा ज्ञान अर्थात् विवेक अभ्यास से श्रेष्ठ होता है। क्योंकि बिना इस विवेक के ही मनुष्य गलत अभ्यास के फलस्वरूप आदतों का शिकार (addict) हो जाता है जिन्हें दूर कर पाना बहुत मुश्किल हो जाता है। किन्तु 'विवेक' तो एक अमूर्त तत्व है, निराकार, अदृश्यप्राय।  उसका बुद्धिगत जानकारी-रूपी ज्ञान की तरह आदान-प्रदान नहीं हो सकता। इसलिए बुद्धिगत संकेत के रूप में 'नित्य'- 'अनित्य' के अभ्यास का सुझाव दिया जाता है क्योंकि ऐसा अभ्यास बुद्धिगत जानकारी-रूपी ज्ञान की तरह एक-दूसरे को दिया जा सकता है। यह अभ्यास ही 'ध्यान' है जिसे बार बार किए जाने पर अंततः यह स्पष्ट हो जाता है कि चेतना ही, जो चित्त का स्रोत और आधार है नित्य सत् तत्व है और जो कुछ भी विषय की तरह इस चेतना में ग्रहण किया जाता है वह अनित्य और इसलिए असत् भी  है। किन्तु इस क्रम से भी पूर्व एक व्यावहारिक उपाय यह भी है कि समस्त कर्मफल (की इच्छा) को ही त्याग दिया जाए।  और यह तभी संभव है जब इच्छा की निरर्थकता और इच्छा ही बंधन है इसे विवेकपूर्वक समझ लिया जाए।  इस त्याग का परिणाम है मन की स्थायी शान्ति जो आत्मज्ञान और ईश्वर-साक्षात्कार का ही दूसरा नाम है।
भोगों में दिखाई पड़नेवाला वह सुख भी तीन प्रकार का हो सकता है, जिसका उल्लेख अध्याय 18 अगले श्लोकों 37, 38 तथा 39 में किया गया है।
संक्षेप में :
जो प्रारम्भ में विष जैसा कटु या कठोर जान पड़ता है किन्तु परिणाम में अमृत सिद्ध होता है, -जैसे कोई औषधि होती है, इस प्रकार से प्राप्त होनेवाले सुख को सात्विक सुख कहा जाता है।
इन्द्रियों का विषयों से संग होने पर जो अमृत जैसा मधुर प्रतीत होता है, लेकिन परिणाम में विनाशकारी सिद्ध होता है वह सुख राजस सुख कहा जाता है।
और निद्रा, आलस्य तथा प्रमाद से उत्पन्न (प्रतीत) होनेवाला जो सुख प्रारम्भ में, और उसके भोग के समय भी मन को मोहित किए रहता है उस सुख को तामसिक सुख कहा जाता है।
प्रमाद का अर्थ है : विवेक का अभाव - उन्माद, मद, नशा या विस्मरण।
--
अध्याय 18 श्लोक 36 में भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं :
अब तुम मुझसे उन सुखों के तीन प्रकार सुनो, जिनमें मनुष्य अभ्यासवश रमने लगता है और अपने अज्ञानरूपी विद्यमान सतत दुःख को कुछ समय के लिए भूल जाता है और उन्हें सुख समझता है।
--
तैत्तिरीय उपनिषद् में प्रथम शीक्षा-वल्ली के बाद, द्वितीय 'ब्रह्मानंद'- वल्ली में इसी सुख के बारे में कहा गया है।
--
पञ्चदशी ग्रन्थ में अध्याय 11 से अध्याय 15 तक इसी सुख / आनन्द  का 'ब्रह्मानन्द' के अंतर्गत 'योगानन्द', 'आत्मानन्द', 'अद्वैतानन्द', 'विद्यानन्द और 'विषयानन्द' प्रकरणों  में ५ प्रकार से वर्गीकरण प्राप्त होता है। -----     

                         
              

     
          

No comments:

Post a Comment