सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।
(गीता अध्याय 18 श्लोक 48)
--
श्री प्रतापचन्द्र सारंगी को देश के नए मंत्रिमंडल में मंत्री पद की शपथ लेते देखना सुखद आश्चर्य है।
ज़ी-चैनल से बातचीत करते हुए उन्होंने उपरोक्त श्लोक का उल्लेख किया।
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गीता के तीन अन्य श्लोक इस सन्दर्भ में विचारणीय हैं। एक का उल्लेख कल ही किया था जो इस प्रकार है :
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।
(गीता अध्याय 4, श्लोक 17)
अनपेक्षः शुचिर्दक्षः उदासीनो गतव्यथः।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः।।
(गीता अध्याय 12, श्लोक 16)
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते।।
(गीता अध्याय 14, श्लोक 25)
किंतु दो दूसरे श्लोक जो यहाँ उल्लेख्य हैं इस प्रकार हैं :
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।।
(गीता अध्याय 4, श्लोक 19)
और,
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।
(गीता अध्याय 3, श्लोक 5)
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इस प्रकार ज्ञानी न तो कर्म से भागता है, न कर्म करने का आग्रह ही उसमें होता है। वह सहज प्राप्त हुए कर्म को अनासक्त भाव से होने देता है और 'मैं कर्ता हूँ' इस भावना से भी रहित होता है। उसकी दृष्टि में सभी कर्म, गुणों के गुणों का व्यवहार (बर्ताव) होता है। दूसरी दृष्टि से वह सभी कर्मों को ईश्वरार्पित कर देता है। और यद्यपि दूसरों को उसके द्वारा जो कर्म होते दिखाई भी देते हैं, उनके फल / परिणाम से वह न तो दुःखी और न ही सुखी होता है।
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सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।
(गीता अध्याय 18 श्लोक 48)
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श्री प्रतापचन्द्र सारंगी को देश के नए मंत्रिमंडल में मंत्री पद की शपथ लेते देखना सुखद आश्चर्य है।
ज़ी-चैनल से बातचीत करते हुए उन्होंने उपरोक्त श्लोक का उल्लेख किया।
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गीता के तीन अन्य श्लोक इस सन्दर्भ में विचारणीय हैं। एक का उल्लेख कल ही किया था जो इस प्रकार है :
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।
(गीता अध्याय 4, श्लोक 17)
अनपेक्षः शुचिर्दक्षः उदासीनो गतव्यथः।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः।।
(गीता अध्याय 12, श्लोक 16)
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते।।
(गीता अध्याय 14, श्लोक 25)
किंतु दो दूसरे श्लोक जो यहाँ उल्लेख्य हैं इस प्रकार हैं :
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।।
(गीता अध्याय 4, श्लोक 19)
और,
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।
(गीता अध्याय 3, श्लोक 5)
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इस प्रकार ज्ञानी न तो कर्म से भागता है, न कर्म करने का आग्रह ही उसमें होता है। वह सहज प्राप्त हुए कर्म को अनासक्त भाव से होने देता है और 'मैं कर्ता हूँ' इस भावना से भी रहित होता है। उसकी दृष्टि में सभी कर्म, गुणों के गुणों का व्यवहार (बर्ताव) होता है। दूसरी दृष्टि से वह सभी कर्मों को ईश्वरार्पित कर देता है। और यद्यपि दूसरों को उसके द्वारा जो कर्म होते दिखाई भी देते हैं, उनके फल / परिणाम से वह न तो दुःखी और न ही सुखी होता है।
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