Friday, 24 May 2019

औचित्य / कविता

निर्वासन में 
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बहुत गर्म दिन,
कोमल तृण,
-अंकुरित होने से डरते हैं,
अंकुरित तृण,
- लू की लपटों से।
कँटीले कैक्टस, नागफनी,
डटकर करते हैं सामना।
गुलमोहर कहीं नहीं दिखाई देते,
हाँ, वहाँ होंगे वो मेरे शहर में।
तेज़ धूप में भी बिखेरते होंगे वहाँ लौ।
पर मेरा शहर ही अब कहाँ है?
सिवा मेरी यादों और सपनों के?
अभी तो वक्त बस ठहरा सा है,
चिलचिलाती धूप का पहरा सा है,
यह शहर दूर दूर तक,
फैला हुआ सहरा सा है,
और बोझिल सन्नाटा,
गहरा सा है।
खोलता हूँ पुराना संदूक,
देखता हूँ नया पंचांग,
सर्च करता हूँ weather,
-Google पर,
हाँ, अभी बहुत दिन न बदलेगा मिजाज़ !
दुबक कर बैठ जाता हूँ, पीता हूँ,
हर घंटे भर बाद घूँट-घूँट पानी,
फ्रिज़ का नहीं, घड़े का ठंडा ,
पर नहीं चलाता हूँ कूलर मैं !
बहाना राजीव दीक्षित जी का हो,
या हो बिजली की आँखमिचौली का,
या कि पानी की कमी का,
नहीं देखता, वो ई.एम. आई. के विज्ञापन,
आजकल बिजली भी मिलती है जिन पर !
भूले-भटके से फ़ोन आते हैं।
"आपको लोन चाहिए क्या?"
कोई जवाब नहीं मेरे पास !
और यूँ गुज़र रही है दोपहर,
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कल तक था चुनावों का बहाना,
उत्सुकता थी, कि कौन जीतेगा,
कौन सी सरकार आएगी अगली,
होगी वो मज़बूर या होगी मज़बूत,
आज वो नतीजे भी आ गए हैं,
हाँ राहत तो है, उम्मीदें भी हैं,
अगले मौसम में ज़रूर मैं जाऊँगा,
अपने गुलमोहर-शहर के साए में ।
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