सूर्यो आत्मा जगतस्थश्च ...
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समष्टि-चिन्तन :
सूयते स सूर्यो ।
सूयते स सविता ।
सूर्यो वै सविता ।
सविता सा संज्ञा ।
संज्ञैव सविता ।
इस प्रकार सूर्य जो जगत् की आत्मा है सविता और संज्ञा है ।
सूर्य, सविता और संज्ञा पुनः समष्टि के आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक स्वरूप हैं ।
समष्टि अर्थात् सं + अश् + ति, जहाँ ’सं’ उपसर्ग, ’ति’ ’अश्’ - अश्नोति धातुपद और तिङन्त प्रत्यय है ।
व्याकरण, व्याकरण के नियमों की संहिता होता है किंतु वे नियम जिन आधारभूत सिद्धान्तों पर अस्तित्व ग्रहण करते हैं, भारद्वाज-व्याकरण उन सिद्धान्तों का संक्षेप है । कोई विद्वान् अवश्य ही उन सिद्धान्तों की रूपरेखा स्पष्ट कर सकता है, किंतु यहाँ ऐसा करना उद्देश्य नहीं है । यहाँ केवल समष्टि अर्थात् ब्रह्म की विवेचना ही एकमात्र उद्देश्य है ।
सभी व्याकरण-ग्रन्थों में परोक्ष या अपरोक्ष रीति से ’संज्ञा-प्रकरण’ तो होता ही है । शास्त्र के प्रारंभ में भी यह दृष्टिगत हो सकता है ।
इसी क्रम में कतिपय शब्दों का सामान्य अर्थ परिभाषित किया जा रहा है :
वर्गीकरण : ’वृ - वृणोति’ से व्युत्पन्न ’वर्ग’ संज्ञा का क्रियारूप है : वर्गीकरण ।
विभाजन : ’भज् -भजति / भजते’ के साथ ’ल्युट्’ प्रत्यय से व्युत्पन्न ’भाजनं’ का ’वि’ उपसर्ग सहित रूप है : विभाजन ।
इस प्रकार वर्गीकरण और विभाजन तत्वतः एक ही कार्य हैं ।
’भिद्- भिनत्ति / भिद्यते’ से व्युत्पन्न भेदं (संज्ञा) विभेदसूचक विशेषण है ।
इस प्रकार ’ब्रह्म’ अर्थात् समष्टि की विवेचना करने में उस तत्व का वर्गीकरण और विभाजन तो करना ही होगा जो सजातीय, विजातीय तथा स्वगत इन तीनों भेदों से रहित है । सजातीय, विजातीय तथा स्वगत आदि भेद भी पुनः वर्गीकरण और विभाजन की दृष्टि से व्यावहारिक और आभासी हैं ।
ऐसा ही एक वर्गीकरण और विभाजन ’इति’ तथा ’न-इति’ के रूप में भी है ।
वर्गीकरण, विभाजन और उनका परस्पर अविरोध ही ब्रह्म में इष्ट है ।
ब्रह्म-सूत्र के चार अध्याय समन्वय, अविरोध, साधना तथा फल इसी प्रकार की विवेचना है ।
माण्डूक्य-उपनिषद् में भी इसी प्रकार ब्रह्म के वर्गीकरण, विभाजन, अविरोध तथा समन्वय से ब्रह्म के समष्टि-स्वरूप की सिद्धि की गई है ।
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ऐसा ही एक वर्गीकरण या विभाजन है आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आधि-आत्मिक या आध्यात्मिक ।
ब्रह्म को और इसकी सभी अन्तर्वस्तुओं को भी इसी प्रकार उपरोक्त तीन दृष्टियों से देखा जा सकता है :
जैसे ’ध्वनि’ अर्थात् ’शब्द’ को स्वरूपतः देखें तो इसका वर्गीकरण कहा गया / उत्पन्न किया गया शब्द, और सुना गया शब्द इन दोनों प्रकारों से ग्रहण किया जा सकता है । ’वाक्’ अर्थात् वाणी कहा जानेवाला शब्द है, जबकि नाद अर्थात् शब्द के रूप में व्याप्त होनेवाला ब्रह्म, सुना जानेवाला शब्द है । कहने या सुननेवाला तत्व देवता है ’दिव्’ - दीव्यते, या ’द्युत्’ - द्योतते, जिससे ’देवता’ व्युत्पन्न होता है ।
’रूप’ अर्थात् दृश्य को स्वरूपतः देखें तो इसका वर्गीकरण दिखाई देनेवाला तत्व और देखनेवाले ’नेत्र’ नीयते नेत्रः / नेतृ, की तरह् प्राप्त होता है और ’चक्षुर्वै दृष्टिः’ के अनुसार नेत्र ही दृष्टि तथा दृष्टि (अर्थात् दृश्य भी) ही नेत्र है । इस प्रकार दृष्टि या नेत्र ही देखने / दिखलानेवाला ’देवता’ है ।
’रस’ (आपो रसो) इसी प्रकार सर्वत्र व्याप्त जल-तत्व है जो जीवन ही है क्योंकि जल के अभाव में जीवन नहीं हो सकता और जीवन नहीं तो जल के होने - न होने का प्रश्न ही कहाँ है? ’रस’ अर्थात् आप का देवता सोम है ।
’गन्ध’ पृथ्वी भूमि का गुण है और इसे नासा (नाक) से ग्रहण किया जाता है । नाक से श्वास-उच्छ्वास होता है और प्राणों के साथ वायु का ग्रहण या उत्सर्जन किया जाता है । प्रमुखतः प्राण, फिर वायु और फिर भूमि इस प्रकार तीनों देवता श्वास में संयुक्त हैं ।
’स्पर्श’ ही वायु का गुण और लक्षण भी है ।
इसी प्रकार केवल स्पर्श से ही वायुदेवता का अंश अञ्जना के गर्भ में केसरी के ओज से संयुक्त होने से अञ्जनिपुत्र का जन्म हुआ ।
इस प्रकार पञ्च तन्मात्राएँ (शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श) आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक स्वरूप से युक्त हैं ।
जीवन अर्थात् चेतना ’संज्ञा’ है जबकि सूर्य जीवन का आधार और अधिष्ठान ।
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समष्टि-चिन्तन :
सूयते स सूर्यो ।
सूयते स सविता ।
सूर्यो वै सविता ।
सविता सा संज्ञा ।
संज्ञैव सविता ।
इस प्रकार सूर्य जो जगत् की आत्मा है सविता और संज्ञा है ।
सूर्य, सविता और संज्ञा पुनः समष्टि के आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक स्वरूप हैं ।
समष्टि अर्थात् सं + अश् + ति, जहाँ ’सं’ उपसर्ग, ’ति’ ’अश्’ - अश्नोति धातुपद और तिङन्त प्रत्यय है ।
व्याकरण, व्याकरण के नियमों की संहिता होता है किंतु वे नियम जिन आधारभूत सिद्धान्तों पर अस्तित्व ग्रहण करते हैं, भारद्वाज-व्याकरण उन सिद्धान्तों का संक्षेप है । कोई विद्वान् अवश्य ही उन सिद्धान्तों की रूपरेखा स्पष्ट कर सकता है, किंतु यहाँ ऐसा करना उद्देश्य नहीं है । यहाँ केवल समष्टि अर्थात् ब्रह्म की विवेचना ही एकमात्र उद्देश्य है ।
सभी व्याकरण-ग्रन्थों में परोक्ष या अपरोक्ष रीति से ’संज्ञा-प्रकरण’ तो होता ही है । शास्त्र के प्रारंभ में भी यह दृष्टिगत हो सकता है ।
इसी क्रम में कतिपय शब्दों का सामान्य अर्थ परिभाषित किया जा रहा है :
वर्गीकरण : ’वृ - वृणोति’ से व्युत्पन्न ’वर्ग’ संज्ञा का क्रियारूप है : वर्गीकरण ।
विभाजन : ’भज् -भजति / भजते’ के साथ ’ल्युट्’ प्रत्यय से व्युत्पन्न ’भाजनं’ का ’वि’ उपसर्ग सहित रूप है : विभाजन ।
इस प्रकार वर्गीकरण और विभाजन तत्वतः एक ही कार्य हैं ।
’भिद्- भिनत्ति / भिद्यते’ से व्युत्पन्न भेदं (संज्ञा) विभेदसूचक विशेषण है ।
इस प्रकार ’ब्रह्म’ अर्थात् समष्टि की विवेचना करने में उस तत्व का वर्गीकरण और विभाजन तो करना ही होगा जो सजातीय, विजातीय तथा स्वगत इन तीनों भेदों से रहित है । सजातीय, विजातीय तथा स्वगत आदि भेद भी पुनः वर्गीकरण और विभाजन की दृष्टि से व्यावहारिक और आभासी हैं ।
ऐसा ही एक वर्गीकरण और विभाजन ’इति’ तथा ’न-इति’ के रूप में भी है ।
वर्गीकरण, विभाजन और उनका परस्पर अविरोध ही ब्रह्म में इष्ट है ।
ब्रह्म-सूत्र के चार अध्याय समन्वय, अविरोध, साधना तथा फल इसी प्रकार की विवेचना है ।
माण्डूक्य-उपनिषद् में भी इसी प्रकार ब्रह्म के वर्गीकरण, विभाजन, अविरोध तथा समन्वय से ब्रह्म के समष्टि-स्वरूप की सिद्धि की गई है ।
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ऐसा ही एक वर्गीकरण या विभाजन है आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आधि-आत्मिक या आध्यात्मिक ।
ब्रह्म को और इसकी सभी अन्तर्वस्तुओं को भी इसी प्रकार उपरोक्त तीन दृष्टियों से देखा जा सकता है :
जैसे ’ध्वनि’ अर्थात् ’शब्द’ को स्वरूपतः देखें तो इसका वर्गीकरण कहा गया / उत्पन्न किया गया शब्द, और सुना गया शब्द इन दोनों प्रकारों से ग्रहण किया जा सकता है । ’वाक्’ अर्थात् वाणी कहा जानेवाला शब्द है, जबकि नाद अर्थात् शब्द के रूप में व्याप्त होनेवाला ब्रह्म, सुना जानेवाला शब्द है । कहने या सुननेवाला तत्व देवता है ’दिव्’ - दीव्यते, या ’द्युत्’ - द्योतते, जिससे ’देवता’ व्युत्पन्न होता है ।
’रूप’ अर्थात् दृश्य को स्वरूपतः देखें तो इसका वर्गीकरण दिखाई देनेवाला तत्व और देखनेवाले ’नेत्र’ नीयते नेत्रः / नेतृ, की तरह् प्राप्त होता है और ’चक्षुर्वै दृष्टिः’ के अनुसार नेत्र ही दृष्टि तथा दृष्टि (अर्थात् दृश्य भी) ही नेत्र है । इस प्रकार दृष्टि या नेत्र ही देखने / दिखलानेवाला ’देवता’ है ।
’रस’ (आपो रसो) इसी प्रकार सर्वत्र व्याप्त जल-तत्व है जो जीवन ही है क्योंकि जल के अभाव में जीवन नहीं हो सकता और जीवन नहीं तो जल के होने - न होने का प्रश्न ही कहाँ है? ’रस’ अर्थात् आप का देवता सोम है ।
’गन्ध’ पृथ्वी भूमि का गुण है और इसे नासा (नाक) से ग्रहण किया जाता है । नाक से श्वास-उच्छ्वास होता है और प्राणों के साथ वायु का ग्रहण या उत्सर्जन किया जाता है । प्रमुखतः प्राण, फिर वायु और फिर भूमि इस प्रकार तीनों देवता श्वास में संयुक्त हैं ।
’स्पर्श’ ही वायु का गुण और लक्षण भी है ।
इसी प्रकार केवल स्पर्श से ही वायुदेवता का अंश अञ्जना के गर्भ में केसरी के ओज से संयुक्त होने से अञ्जनिपुत्र का जन्म हुआ ।
इस प्रकार पञ्च तन्मात्राएँ (शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श) आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक स्वरूप से युक्त हैं ।
जीवन अर्थात् चेतना ’संज्ञा’ है जबकि सूर्य जीवन का आधार और अधिष्ठान ।
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