Thursday, 30 September 2021

स्वनिम और रूपिम

Phonetic and Figurative.

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जानेमन, जानेमन, 

जानेमन किसी का नाम नहीं, 

फिर भी, होंठों पे मेरे,

सुबह कभी, शाम कभी!

शायद इस गीत को फ़िल्म में अमोल पालेकर पर फ़िल्माया गया है। स्पष्ट है कि 'जानेमन' शब्द किसी का नाम नहीं, किसी के प्रति संबोधन के लिए प्रयोग किया जानेवाला शब्द या इस शब्द से इंगित कोई मनुष्य है।

इसी प्रकार "मैं" (I) किसी का नाम नहीं है, फिर भी हर कोई इस शब्द के प्रयोग से अपने आप (self) को इंगित करता है। व्याकरण की दृष्टि से यह शब्द इस प्रकार से स्व-वाचक अर्थात् आत्म-वाचक सर्वनाम (pronoun) है। व्याकरण में, सर्वनाम, सभी को अप्रत्यक्षतः (indirectly)  इंगित करने के लिए प्रयुक्त किया जानेवाला कोई शब्द होता है जिसे संज्ञा (noun) के स्थान पर उसके विकल्प के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। इस प्रकार तीन पुरुषों (persons : first person, second person and third person) में सर्वनाम क्रमशः "मैंं", "तुम" और "वह" के रूप में एकवचन (singular person) की तरह से प्रयुक्त होता है। 

क्या अपने आपके लिए इस प्रकार से "मैं" शब्द को प्रयोग किया जाना आवश्यक है? स्पष्ट है कि यह सभी के लिए यद्यपि स्वयं के अर्थ का द्योतक है, किन्तु क्या वास्तव में किसी का अपना कोई नाम होता है? हाँ, दूसरों के द्वारा सन्दर्भ और उपयोग की दृष्टि से हर किसी का कोई नाम अवश्य हो सकता है और उस नाम से सभी उसको पहचानने लगते हैं, और वह भी स्वयं को इस नाम से पहचानने लगता है।

किन्तु क्या ऐसा कोई विशिष्ट नाम न होने पर हम अपने आपको नहीं जानते? किन्तु यह तो प्रचलित प्रयोग के ही कारण है कि किसी व्यक्ति का उल्लेख उसके नाम के माध्यम से किया जाता है और इस प्रकार उसे "तुम'' या ''वह'' कहा जाता है। किन्तु जब कोई स्वयं का उल्लेख करता है तो वह उस नाम का प्रयोग नहीं करता जिससे दूसरे सभी उसका उल्लेख करते हैं, बल्कि अपना  उल्लेख करने के लिए वह "मैं" शब्द का प्रयोग करता है। किन्तु व्यवहार में यह मान लिया जाता है कि ऐसा उल्लेख उसके द्वारा उस व्यक्ति को इंगित करने के लिए किया जा रहा है, जिसे अन्य सभी उसके लिए प्रयुक्त करते हैं। शायद यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि यदि कोई स्वयं का उल्लेख अपने लिए प्रचलित उस नाम से करे, जिससे सब उसे इंगित करते हैं तो इससे भ्रम पैदा होगा। 

अब यदि यह देखा जाए कि जब कोई किसी को अपने आपका परिचय देता है, तो क्या ऐसा वह "मैंं" तथा उसके प्रचलित उस नाम के द्वारा ही नहीं करता जो पुनः "मैं" की तरह ही एक शब्द और एक अमूर्त धारणा (abstract notion) होता है? 

साथ ही, यह भी सत्य है कि नाम तथा "मैं" सर्वनाम, ये दोनों ही अमूर्त धारणाएँ हैं जिनका व्यावहारिक उपयोग भी है किन्तु वे उस वस्तु / व्यक्ति का अस्तित्वगत सत्य नहीं है। अस्तित्वगत सत्य तो सदैव प्रत्यक्ष ही होता है, उसे इंगित किया जाना न तो संभव है और न उसकी आवश्यकता ही है ।

अस्तित्वगत सत्य व्यक्तिपरक कैसे हो सकता है? चूँकि अस्तित्व ही व्यक्तिपरक नहीं है, इसलिए अस्तित्वगत सत्य भी व्यक्ति-परक नहीं हो सकता। अस्तित्व और अस्तित्वगत सत्य दोनों ही समष्टि सत्य हैं। 

व्यक्तिपरक सत्य स्वनिम (phonetic, verbal) और रूपिम (descriptive, figurative) होता है जबकि अस्तित्व और अस्तित्वगत सत्य समष्टि सत्य है। इसलिए व्यक्ति समष्टि का अंश और समष्टि व्यक्ति की पूर्णता (Totality) है। 

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