अथ पृथ्वी सूक्तम् स्तोत्रम्
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यस्ते गन्धः पुरुषेषु स्त्रीषु पुंसुं भगो रुचिः।
यो अश्वेषु वीरेषु यो मृगेषूत हस्तिषु।
कन्यायां वर्चो यद् भूमे तेनास्माँ अपि संसृज मा नो द्विक्षत कश्चन।।२५।।
(पुरुषों और स्त्रियों में जो तुम्हारी पुण्यशील, पावन गन्ध है। जो अश्वों, वीर पुरुषों और इसी प्रकार मृगों एवं गज आदि में है। और, तुम्हारी जो यह पुण्यगन्ध कुमारियों में भी है, हे भूमे! उससे तुम हमें भी सुरभित करो। हम एक दूसरे से द्वेष न करें।)
शिला भूमिरश्मा पांसुः सा भूमिः संधृता धृता।
तस्यै हिरण्यवक्षसे पृथिव्या अकरं नमः।।२६।।
(यह भूमि माता, जिसके स्वर्णिम वक्षस्थल पर शाखाएँ, पत्थर, मोती, कंकड़ रेत-कण आदि हैं, किन्तु जिसके गर्भ में रत्न और बहुमूल्य स्वर्ण, रजत और अन्य धातुएँ, रत्न इत्यादि हैं, उसकी वंदना मैं शीश झुककर करता हूँ।)
यस्या वृक्षा वानस्पत्या ध्रुवास्तिष्ठन्ति विश्वहा।
पृथिवीं विश्वधायसं धृतामच्छावदामसि।।२७।।
(वह मंगलकारी पृथिवी अपने वृक्षों, वनस्पतियों और औषधियों को सर्वदा समृद्ध कर, उनसे संसार का कल्याण करती है, और जो पृथिवी, जगत् का माता की तरह, जो संसार का धाय की तरह पालन-पोषण करती है, उसकी हम नतशीश होकर स्तुति करते हैं।)
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