अथ पृथ्वी सूक्तम् स्तोत्रम्
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यास्ते प्राचीः प्रदिशो या उदीचिर्यास्ते भूमे अधराद् यश्च पश्चात् । स्योनास्ता मह्यं चरते भवन्तु मा नि पप्तं भुवने शिश्रियाणः
।।३१।।
(हे भूमे! तुम्हारी पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण आदि तथा उनके मध्य की विविध दिशाओं में, तुम्हारी मनोरम, सुन्दर भूमि पर जो लोग विचरण करते हैं, वे हमारे लिए शुभ और कल्याणप्रद हों। वे हमें श्रेयस्कर हों । हमारा अधःपतन न हो।)
मा नः पश्चान्मा पुरस्तान्नुदिष्ठा मोत्तरादधरादुत । स्वस्ति भूमे नो भव मा विदन् परिपन्थिनो वरीयो यावया वधम्।।३३।।
(न तो पीछे, न आगे, न बाद में या अभी अधोपतन हो। हमारे लिए सब कुछ, सर्वत्र शुभ हो। हमारा अहित करने के इच्छुक शत्रु कभी हमें न जान पाएँ।)
यावत् तेऽभि विपश्यामि भूमे सूर्येण मेदिना ।
तावन्मे चक्षुर्मा मेष्टोत्तरामुत्तरां समाम् ।।३४।।
(हे पृथिवि! सूर्य से भूमि तक, क्षितिज से क्षितिज तक, जहाँ तक हमारी दृष्टि जा सकती है, और जहाँ तक हम तुम्हारे विस्तार को देख सकते हैं, वहाँ तक तुम हमारे लिए कल्याणप्रद रहो, हमारी नेत्रदृष्टि स्वस्थ और तेजपूर्ण रहे।)
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