अथ पृथ्वी सूक्तम् स्तोत्रम्
--
याप सर्पं विजमाना विमृग्वरी यस्यामासन्नग्नयो ये अप्स्व१न्तः परा दस्यून् ददती देवपीयूनिन्द्रं वृणाना पृथिवी न वृत्रम्। शक्राय दध्रे वृषभाय वृष्णे ।।३७।।
(जो सतत गतिशील है, वह हिलती हुई पृथ्वी जिसके भीतर जल है और उस जल के भीतर अग्नियाँ हैं, वृत्रासुर जैसे दस्युओं के पराभव (हार) के लिए जो पृथ्वी इन्द्र का वरण करती है, देवराज इन्द्र (शक्र) जैसे शक्तिशाली, वीर्यवान और सामर्थ्ययुक्त पुरुष के लिए ही जो उपयुक्त स्त्री है।)
यस्यां सदोहर्विधाने यूपो यस्यां निमीयते। ब्रह्माणो यस्यामर्चन्त्यृग्भिः साम्ना यजुर्विदः । युज्यन्ते यस्यामृत्विजः सोममिन्द्राय पातवे।।३८।।
(जिस पृथ्वी पर यज्ञों के अनुष्ठान हेतु विधानपूर्वक यूपस्तम्भों को स्थापित किया जाता है, जहाँ ब्रह्मकर्म करनेवाले पुरोहित ऋग्वेद की ऋचाओं से और यजुर्वेदज्ञ साम-गान के माध्यम से अर्चना किया करते हैं। जिस पृथ्वी पर इस प्रकार से पुरोहितों द्वारा ऋत्विजों के लिए इन्द्र आदि के लिए सोमपान, आवाहन तथा संपर्क किया जाता है।)
यस्यां पूर्वे भूतकृत ऋषयो गा उदानृचुः। सप्तसत्त्रेण वेधसो यज्ञेन तपसा सह।।३९।।
(पूर्वकाल में जिस पृथ्वी पर ऋषियों ने जगत के कल्याण हेतु सप्त सत्र वाले ब्रह्म-यज्ञों का अनुष्ठान किया, तपःपूत पवित्र वाणी से मंत्रोच्चार करते हुए अनेक ब्रह्मयज्ञों का अनुष्ठान किया, -हम उस माता पृथ्वी को प्रणाम करते हैं।)
***
No comments:
Post a Comment