अथ पृथ्वी सूक्तम् स्तोत्रम्
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यस्याः पुरो देवकृताः क्षेत्रे यस्या विकुर्वते ।
प्रजापतिः पृथिवीं विश्वगर्भामाशामाशां रण्यां नः कृणोतु ।।४३।।
(जिस पृथ्वी के अनेक देवकृत सुरम्य क्षेत्रों में विभिन्न हिंसक पशु क्रीडा करते हैं और जिस पृथ्वी माता ने संपूर्ण विश्व के इन सब क्षेत्रों को अपने विस्तार में स्थान दिया है, प्रजापति उस पृथ्वी की प्रत्येक दिशा को हमारे लिए सौन्दर्य-संपन्न बनाए।)
निधिं बिभ्रती बहुधा गुहा वसु मणिं हिरण्यं पृथिवी दधातु मे। वसूनि नो वसुदा रासमाना देवी दधातु सुमनस्यमाना।।४४।।
(यह पृथिवी, जिसने अपने गर्भ में अनेक मूल्यवान, दीप्तिमान रत्नों, स्वर्ण, चाँदी, मणि और अन्य खनिज ओषधियों इत्यादि निधियों को धारण किया है, वह हमें वे निधियाँ प्रदान करे। धन-प्रदात्री, वर-प्रदात्री, दिव्य-स्वरूपा पृथिवी हम पर प्रसन्न होकर ऐश्वर्य तथा वैभव प्रदान करे।)
जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं नाना धर्माणं पृथिवी यथौकसम् ।
सहस्रं धारा द्रविणस्य मे दुहां ध्रुवेव धेनुरनपस्फुरन्ति ।।४५।।
(भिन्न भिन्न विचारों, मतों, संस्कृतियों, परंपराओं, भाषाओं का प्रयोग करने वाले अनेक मनुष्य-समुदायों को एक परिवार की तरह एक स्नेह-सूत्र में बाँधनेवाली पृथ्वी हमारे लिए बहुत दूध देनेवाली गौ की तरह नित्य हम पर समृद्धि और सुख की वर्षा करती रहे।)
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