अथ पृथ्वी सूक्तम् स्तोत्रम्
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यद् वदामि मधुमत् तद् वदामि यदीक्षे तद् वनन्ति मा ।
त्विषीमानस्मि जूतिमानवान्यान् हन्मि दोधतः ।।५८।।
(जो मैं कहूँ वह ऐसा हो जो मधुर हो, जो देखूँगा वह सब शुभ और कल्याणप्रद हो, हम तेजस्वी और त्वरा से, वेग से पूर्ण हों। मैं अपने मार्ग के विघ्नों-बाधाओं का नाश कर उन पर विजय प्राप्त कर सकूँ।)
शान्ति वा सुरभिः स्योना कीलालोध्नी पयस्वती ।
भूमिरधि ब्रवीतु मे पृथिवी पयसा सह ।।५९।।
(शान्ति अर्थात् सुरभि, मनोहर शोभायुक्त गौ, कील -जौ, गेहूँ, चाँवल आदि तृणधान्य देनेवाली मधुर शीतल, पेय जल, दुग्ध इत्यादि प्रदान करने वाली यह पयस्विनी पृथ्वी माता हमारे लिए आशीषयुक्त वचन कहे।)
यामन्वैच्छद्धविषा विश्वकर्मा-
न्तरर्णवे रजसि प्रविष्टाम् ।
भुजिष्यं१ पात्रं निहितं गुहा
यदाविर्भोगे अभवन्मातृमद्भ्यः ।।६०।।
(विश्वकर्मा ने जब अन्तर्स्थित अर्णव में यज्ञ से हवन करते हुए, जिसे प्राप्त करने की इच्छा की, और अपने कार्य में संलग्न हुए, तो भोग के समस्त पदार्थों की निधि से परिपूर्ण वसुधा पृथ्वी को इस प्रकार से पाया और पृथिवी माता से उन सभी पदार्थों के भण्डार प्रकट हो गए।)
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