Friday, 10 September 2021

ये त आरण्याः

अथ पृथ्वी सूक्तम् स्तोत्रम् 

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ये त आरण्याः पशवो मृगा वने हिताः 

सिंहा व्याघ्रा पुरुषादश्चरन्ति ।

उलं वृकं पृथिवि दुच्छुनामित ऋक्षीकां

रक्षो अप बाधयास्मत् ।।४९।।

(घोर अरण्यों जंगलों में रहनेवाले मृग, सिंह, व्याघ्र, मनुष्यों को खानेवाले, तथा अन्य पशु, इत्यादि हैं, तथा जो रात्रिचर भेडिए, भालू, और भीषण राक्षस आदि हैं, हे पृथिवि! उन्हें तुम हमसे दूर कर हमें निर्भय रखो।)

ये गन्धर्वा अप्सरसो ये चारायाः किमीदिनः ।

पिशाचान्त्सर्वा रक्षांसि तानस्मद् भूमे यावय ।।५०।।

(हे भूमे! जो गान्धार, अप्सराएँ, पिशाच और इस प्रकार से हिंसा की प्रवृत्ति रखनेवाले, दूसरों के धन आदि का अन्याय से तथा बल से हरण कर उपभोग और आमोद प्रमोद करनेवाले राक्षसी प्रवृत्ति से युक्त हैं, उन सब को हमसे बहुत दूर रखो।)

यां द्विपादः पक्षिणः संपतन्ति हंसाः सुपर्णाः शकुनाः वयांसि ।

यस्यां वातो मातरिश्वेयते रजांसि कृण्वंश्च्यावयंश्च वृक्षान् । वातस्य प्रवामुपवामनु वात्यर्चिः ।।५१।।

(जिस भूमि पर दो पैरों वाले, दो पक्षों वाले हंस, गरुड, मनोहर तथा शुभ पंखोंवाले पक्षी रहा करते हैं, जिन्हें वही वायु अर्थात् प्राण और चेतनता से युक्त मातरिश्वा देवता इधर उधर उड़ने के लिए उत्साह और शक्ति प्रदान करते हैं, जो कि इसी तरह से वृक्षों को भी चंचल कर उखाड़ते और उड़ाते रहते हैं, और जो अपने मित्र अग्नि से भी इसी प्रकार क्रीडा करते हैं ।)

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वैसे तो वेदोक्त सभी देवता आधिदैविक स्वरूप के होते हैं किन्तु उनमें से कुछ देवताओं को, जैसे अग्नि, वायु, पृथिवी, नभ और आप् (जल) को इनके स्थूल रूप में भी अनुभव किया जाता है। दूसरी ओर यम, सोम, वरुण, वसु, रुद्र, प्राण, उषा, संध्या, रात्रि, (शर्वरी), कुहू, अमा, सिनीवाली, अमावास्या, मित्र इत्यादि को केवल उनके कार्य, आभास और लक्षण से। कामदेव ऐसे ही एक विशिष्ट देवता हैं ।

इसी प्रकार ब्रह्मा, विष्णु, शंकर, ऋषि, प्रजापति, इन्द्र, पितर आदि देवताओं को भी प्रत्यक्षतः अनुभव किया जा सकता है।

यक्ष, रक्ष, पिशाच इत्यादि भी अपने अपने लोकों में वास करते हैं और उन्हें भी उनका प्रिय पेय, अन्न, पुष्प, गंध, अर्पित कर संतुष्ट किया जा सकता है ।

पृथिवी की ही तरह इसी प्रकार नौ ग्रहों का भी विशिष्ट देवता की तरह अपना अपना आधिदैविक स्थान होता है। 

संक्षेप में, 

गीता के अध्याय ९ में इसे ही स्पष्ट किया गया है :

यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः ।

भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ।।२५।।

(उपरोक्त श्लोक में पितृन् में ऋ-कार दीर्घ है किन्तु यहाँ पर उस ऋ को दीर्घ रूप में व्यक्त नहीं किया जा सकता। किन्तु मेरे गीता संदर्भ के ब्लॉग में लेबल 9/25 पर इस ऋ वर्ण का शुद्ध रूप देख सकते हैं ।)

संपूर्ण पृथिवी पर सदा से इस प्रकार सभी मानव-समुदाय अपने अपने पितरों की पूजा करते आ रहे हैं। किन्तु वैदिक परंपरा को माननेवाले अपने तरीकों को अग्नि को समर्पित करते हैं, दूसरी विधि है, -जल में प्रवाहित करना, तथा तीसरी विधि है, -भूमि में स्थान प्रदान करना। आध्यात्मिक विभूतियों को प्रायः भूमि में उनकी समाधि बनाकर समाधिस्थ किया जाता है क्योंकि इस प्रकार उनकी पूजा के माध्यम से आने वाली पीढ़ियाँ परमेश्वर की प्राप्ति कर सकें। और इसके लिए प्रायः ऐसी किसी समाधि पर शिवलिंग की प्रतिष्ठा की जाती है।

भगवान् श्रीराम तो अपनी लीला पूर्ण कर सीधे ही सरयू तट पर जाकर अपने धाम लौट गए, लक्ष्मण ने जल-समाधि ग्रहण की और माता सीता ने भूमि में भूमि-समाधि ग्रहण की। 

इस प्रकार माता पृथिवी के सूक्त रूपी इस स्तोत्र का पाठ सभी मनुष्यों के लिए श्रेयस्कर ही है।

ये सभी देवता वैसे तो भुवर्लोक से ऊपर के लोकों में वास करते हैं, किन्तु यथोचित पूजा और स्तुति आदि से आधिदैविक स्तर पर उनसे संपर्क कर उनके दर्शन किए जा सकते हैं ।

चूँकि एकमेव परमेश्वर ही उनका अधिष्ठान है, इसलिए जिस किसी देवता की आराधना मनुष्य करता है, उसका उसके ही उस स्वरूप से सायुज्य होता है।  

पौराणिक देवता को विशिष्ट प्रतिमा और मंत्रों से जाना जाता है। भैरव, काली, दुर्गा, गणेश, हनुमान आदि देवता भी इसी प्रकार से ज्ञातव्य हैं। 

इनमें से एक सर्वाधिक विशिष्ट देवता है : यह्व, जिसका प्रत्यक्ष और साकार दर्शन किया जाता है । यह यज्ञ की अग्नि से उठती हुई ज्वाला के रूप में पुंल्लिंग तथा स्त्रीलिंग दोनों प्रकारों से व्यक्त होता है। ब्रह्म के पर्याय के रूप में नपुंसकलिंग के रूप में भी। 

इसलिए ब्रह्म का उल्लेख 'तत्' प्रत्यय के रूप में 'वह' सर्वनाम से भी किया जाता है। यही एकमात्र ऐसा देवता है जिसे यहूदी, ईसाई और अन्य परंपराओं में एकमात्र परमेश्वर होने का गौरव प्राप्त है। यह्वः और हव्यः भी परस्पर समानार्थी और सज्ञात (cognate) हैं। 

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