अथ पृथ्वी सूक्तम् स्तोत्रम्
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अदो यद् देवि प्रथमाना पुरस्ताद् देवैः व्यसर्पो महित्वम् ।
आ त्वा सुभूतमविशत् तदानीमकल्पयथाः प्रदिशश्चतस्रः ।।५५।।
(हे देवि! जिस काल में आपकी अभिव्यक्ति हुई थी, और आप नवपुष्प की तरह अर्धमुकुलित थी, देवताओं ने आपके स्वरूप की जिज्ञासा आपके समक्ष प्रकट की थी, और वे देवता भी उस समय जब संस्काररहित पशु की तरह ही थे तब उन देवताओं ने आपका आविष्कार किया।)
जैसा कि देव्यथर्वशीर्ष में उल्लेख है,
ॐ सर्वे वै देवा देवीमुपतस्थुः कासि त्वं महादेवीति।।१।।
ॐ सभी देवता (इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि चेतना) देवी (आदिशक्ति) के समीप गए और नम्रता से पूछने लगे - हे महादेवी तुम कौन हो?
साब्रवीत -- अहं ब्रह्मस्वरूपिणी । मत्तः प्रकृतिपुरुषात्मकं जगत्। शून्यं चाशून्यं च।।२।।
उसने कहा -- मैं ब्रह्मस्वरूपा हूँ। मुझसे प्रकृति-पुरुषात्मक सद्रूप और असद्रूप जगत् उत्पन्न हुआ है।
अहमानन्दानानन्दौ।
अहं विज्ञानाविज्ञाने।
अहं ब्रह्माब्रह्मणी वेदितव्ये।
अहं पञ्चभूतान्यपञ्चभूतानि।
अहमखिलं जगत्।।३।।
मैं आनन्द और अनानन्दरूपा हूँ। मैं विज्ञान और अविज्ञानरूपा हूँ। अवश्य जाननेयोग्य ब्रह्म और अब्रह्म भी मैं ही हूँ। पञ्चीकृत और अपञ्चीकृत महाभूत भी मैं ही हूँ। यह सारा दृश्यजगत् मैं ही हूँ।
वेदोऽहमवेदोऽहम् । विद्याहमविद्याहम्। अजाहमनजाहम्। अधश्चोर्ध्वं च तिर्यक्चाहम्।। ४।।
वेद और अवेद मैं हूँ। विद्या और अविद्या भी मैं, अजा और अनजा
-- प्रकृति और उससे भिन्न - manifest and potential unmanifest --भी मैं,
नीचे-ऊपर, अगल-बगल भी मैं ही हूँ।
अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चरामि।
अहमादित्यैरुत विश्वदेवैः।
अहं मित्रावरुणावुभौ बिभर्मि ।
अहमिन्द्राग्नी अहमश्विनावुभौ ।।५।।
मैं रुद्रों, वसुओं, आदित्यों, और विश्वेदेवों के रूप में विचरण करती हूँ । मैं मित्र और वरुण दोनों का, इन्द्र एवं अग्नि का और दोनों अश्विनीकुमारों का भरण-पोषण करती हूँ ।।५।।*
* संदर्भ : ऋग्वेद् मण्डल १०,- १२५ / ०१, ०२, ०३, ०४, ०५
अहं सोमं त्वष्टारं पूषणं भगं दधामि। अहं विष्णुमुरुक्रमं ब्रह्माणमुत प्रजापतिं दधामि ।।६।।
मैं ही सोम, त्वष्टा -विश्वकर्मा, पूषा - पूषन्, और भग / ऐश्वर्य को धारण करती हुई धात्री हूँ। त्रैलोक्य को आक्रान्त करने के लिए विस्तीर्ण पादक्षेप करनेवाले विष्णु, ब्रह्म-देव और प्रजापति को मैं ही धारण करती हूँ ।।६।।
अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते। अहं राष्ट्री सङ्गमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्। अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे। य एवं वेद स दैवीं सम्पदमाप्नोति ।।७।।
देवों को उत्तम हवि पहुँचानेवाले और सोमरस निकालनेवाले यजमान के लिए हविर्द्रव्यों से युक्त धन धारण करती हूँ। मैं सम्पूर्ण जगत् की ईश्वरी, उपासकों को धन देनेवाली, ब्रह्मरूप और यज्ञार्हों -यजन करने योग्य देवों में प्रथम
-प्रथमाना- अर्थात्,
मुख्य हूँ।
मैं आत्मस्वरूप-पर आकाशादि निर्माण करती हूँ। मेरा स्थान आत्मस्वरूप को धारण करनेवाली बुद्धिवृत्ति में है। जो इस प्रकार से जानता है, वह दैवी सम्पत्ति लाभ करता है।
*दैवी और आसुरी संपदाओं का वर्णन गीता के अध्याय १६ में विस्तारपूर्वक किया गया है।
ते देवा अब्रुवन् -- नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः ।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम् ।।८।।
तब उन देवों ने कहा -- देवी को नमस्कार है । महादेवी एवं कल्याणकर्त्री को सदा नमस्कार है। गुणसाम्यावस्थारूपिणी मंगलमयी प्रकृति देवी को नमस्कार है । नियमयुक्त होकर हम उन्हें प्रणाम करते हैं ।।८।।
तामग्निवर्णां तपसा ज्वलन्तीं वैरोचनीं कर्मफलेषु जुष्टाम् ।
दुर्गां देवीं शरणं प्रपद्यामहेऽसुरान्नाशयित्र्यै ते नमः।।९।।
उस अग्नि के समान वर्णवाली, तपरूपी ज्योति से जाज्वल्यमान, दीप्तिमती, फलप्राप्ति के हेतु सेवन की जानेवाली दुर्गादेवी की हम शरण में हैं।
असुरों का नाश करनेवाली देवि! तुम्हें नमस्कार है।।९।।
देवीं वाचमजनयन्त देवाः तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति ।
सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सूष्टुतैतु ।।१०।।
प्रारूप देवों ने जिस प्रकाशमान
- भावना की अभिव्यक्ति के लिए प्रारंभिक माध्यम के रूप में वैखरी वाणी की तरह -
जिस वाणी को उत्पन्न किया उसे अनेक प्रकार के प्राणी बोलते हैं। वह कामधेनु तुल्य आनन्ददायक और अन्न तथा बल देनेवाली वाग्-रूपिणी भगवती उत्तम स्तुति से संतुष्ट होकर हमारे समीप आये ।।९, १०।।
कालरात्रीं ब्रह्मस्तुतां वैष्णवीं स्कन्दमातरम् ।
सरस्वतीमदितिं दक्षदुहितरं नमामः पावनां शिवाम् ।।११।।
काल का भी नाश करनेवाली, वेदों द्वारा स्तुत हुई विष्णुशक्ति, स्कन्दमाता अर्थात् शिवशक्ति, सरस्वती अर्थात् ब्रह्मशक्ति, देवमाता अदिति, और दक्षकन्या अर्थात् सती, पापनाशिनी कल्याणकारिणी भगवती को हम प्रणाम करते हैं ।।११।।
महालक्ष्म्यै च विद्महे सर्वशक्त्यै च धीमहि ।
तन्नो -------------- देवी ---------- प्रचोदयात् ।।१२।।
हम महालक्ष्मी को जानते हैं, और उन सर्वस्वरूपिणी का ध्यान करते हैं। वे देवी हमें सन्मार्ग पर प्रवृत्त करें ।।१२।।
देवताओं ने दक्ष प्रजापति से कहा :
अदितिर्ह्यजनिष्ट दक्ष या दुहिता तव।
तां देवा अन्वजायन्त भद्रा अमृतबन्धवः ।।१३।।
हे दक्ष! आपकी जो कन्या अदिति हैं, वे प्रसूता हुईं और उनके मृत्युरहित कल्याणकर देव उत्पन्न हुए।
इस प्रकार भूमि देवी के आधिभौतिक और आधिदैविक स्वरूप का उल्लेख देवी-अथर्वशीर्ष में प्राप्त होता है।
यहाँ प्रसंग को स्पष्ट करने हेतु प्रस्तुत किया गया।
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ये ग्रामा यदरण्यं या सभा अधि भूम्याम् ।
ये संग्रामाः समितयस्तेषु चारु वदेम ते ।।५६।।
(भूमि पर स्थित ग्राम और अरण्य आदि हैं, जहाँ जहाँ पर भिन्न भिन्न लोग और समुदाय एकत्र होते हैं और सभा या युद्ध आदि करते हों, वहाँ वहाँ हम आपकी स्तुति करते हैं ।।)
अश्व इव रजो दुधुवे वि तान् जनान् य आक्षियन् पृथिवीं यादजायत । मन्दाग्रेत्वरी भुवनस्य गोपा वनस्पतीनां गृभिरोषधीनाम् ।।५७।।
(पृथ्वी पर उत्पन्न होनेवाले प्राकृतिक पदार्थ, पृथ्वी पर वास करते हैं, - पृथ्वी ही उनका वासस्थान है - उन पर धूलिकण अश्व के समान उड़ा करते हैं। यह पृथिवी सबको प्रसन्नता देनेवाली, अग्रणी, विश्वरक्षक वनस्पतियों और औषधियों का पालन-पोषण करती है।)
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