वाल्मीकि रामायण,
बालकाण्ड,
सर्ग ५३, ५४, ५५
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कामधेनुं वसिष्ठोऽपि यदा न त्यजते मुनिः ।
तदास्य शबलां राम विश्वामित्रोऽन्वकर्षत ।। १ ।।
'श्रीराम! जब वसिष्ठ मुनि किसी तरह भी उस कामधेनु गौ को देने के लिए तैयार न हुए, तब राजा विश्वामित्र उस चितकबरे रंग की धेनु को बलपूर्वक घसीट ले चले ।। १ ।।
नीयमाना तु शबला राम राजा महात्मना ।
दुःखिता चिन्तयामास रुदन्ती शोककर्षिता ।। २ ।।
'रघुनन्दन! महामनस्वी राजा विश्वामित्र के द्वारा इस प्रकार ले जाई जाती हुई वह गौ शोकाकुल हो मन ही मन रो पड़ी, और अत्यन्त दुःखित हो विचार करने लगी -- ।। २ ।।
परित्यक्ता वसिष्ठेन किमहं सुमहात्मना ।
याहं राजभृतैर्दीना ह्रियेय भृशदुःखिता ।। ३ ।।
"अहो! क्या महात्मा वसिष्ठ ने मुझे त्याग दिया है, जो ये राजा के सिपाही मुझ दीन और अत्यन्त दुःखिया गौ को इस तरह से बलपूर्वक लिये जा रहे हैं?' ।। ३ ।।
किं मयापकृतं तस्य महर्षेर्भावितात्मनः ।
यन्मामनागसं दृष्ट्वा भक्तां त्यजति धार्मिकः ।। ४ ।।
"पवित्र अन्तःकरणवाले उन महर्षि का मैंने क्या अपराध किया है कि वे धर्मात्मा मुनि मझे निरपराध और अपना भक्त जानकर भी त्याग रहे हैं?' ।। ४ ।।
इति संचिन्तयित्वा तु निःश्वस्य च पुनः पुनः ।
जगाम वेगेन तदा वसिष्ठं परमौजसम् ।। ५ ।।
निर्धूय तांस्तदा भृत्याञ्शतशः शत्रुसूदन ।
'शत्रुसूदन! यह सोचकर वह गौ बारम्बार लंबी साँस लेने लगी और राजा के उन सैकड़ों सेवकों को झटककर उस समय महातेजस्वी वसिष्ठ मुनि के पास बड़े वेग से जा पहुँची।।
जगामानिलवेगेन पादमूलं महात्मनः ।। ६ ।।
शबला सा रुदन्ती च क्रोशन्ती चेदमब्रवीत् ।
वसिष्ठस्याग्रतः स्थित्वा रुदन्ती मेघनिःस्वना ।। ७ ।।
'यह शबला गौ वायु के समान वेगपूर्वक उन महात्मा के चरणों के समीप गयी और उनके सामने खड़ी हो मेघ के समान गम्भीर स्वर से रोती-चीत्कार करती हुई, उनसे इस प्रकार बोली ------- ।। ६-७ ।।
भगवन् किं परित्यक्ता त्वयाहं ब्रह्मणः सुतः ।
यस्माद् राजभटा मां हि नयन्ते त्वत्सकाशतः ।। ८ ।।
"भगवन्! ब्रह्मकुमार! क्या आपने मुझे त्याग दिया, जो ये राजा के सैनिक मुझे आपके पास से दूर लिये जा रहे हैं? ।। ८ ।।
एवमुक्तस्तु ब्रह्मर्षिरिदं वचनमब्रवीत् ।
शोकसंतप्तहृदयां स्वसारमिव दुःखिताम् ।। ८ ।।
'उसके ऐसा कहने पर ब्रह्मर्षि वसिष्ठ शोक से संतप्त हृदयवाली दुःखिया बहिन के समान उस गौ से इस प्रकार बोले -- ।। ९ ।।
न त्वां त्यजामि शबले नाऽपि मेऽपकृतं त्वया ।
एष त्वां नये राजा बलान्मत्तो महाबलः ।। ९ ।।
"शबले! मैं तुम्हारा त्याग नहीं करता । तुमने मेरा कोई अपराध नहीं किया है । ये महाबली राजा अपने बल से मतवाले होकर तुमको मुझसे छीनकर ले जा रहे हैं ।। १० ।।
नहि तुल्यं बलं मह्यं राजा त्वद्य विशेषतः ।
बली राजा क्षत्रियश्च पृथिव्याः पतिरेव च ।। ११ ।।
'मेरा बल इनके समान नहीं है । विशेषतः आजकल ये राजा के पद पर प्रतिष्ठित हैं । राजा, क्षत्रिय तथा इस पृथ्वी के पालक होने के कारण ये बलवान् हैं ।। ११ ।।
इयमक्षौहिणी पूर्णा गजवाजिरथाकुला ।
हस्तिध्वजसमाकीर्णा तेनासौ बलवत्तरः ।। १२ ।।
"इनके पास हाथी, घोड़े और रथों से भरी हुई यह अक्षौहिणी सेना है, जिसमें हाथियों के हौदों पर लगे हुए ध्वज सब ओर फहरा रहे हैं। इस सेना के कारण भी ये मुझसे प्रबल हैं ।। १२ ।।
एवमुक्ता वसिष्ठेन प्रत्युवाच विनीतवत् ।
वचनं वचनज्ञा सा ब्रह्मर्षिमतुलप्रभम् ।। १३।।
'वसिष्ठजी के ऐसा कहने पर बातचीत के मर्म को समझनेवाली उस कामधेनु ने उन अनुपम तेजस्वी ब्रह्मर्षि से यह विनययुक्त बात कही -- ।। १३ ।।
न बलं क्षत्रियस्याहुर्ब्राह्मणा बलवत्तराः ।
ब्रह्मन् ब्रह्मबलं दिव्यं क्षात्राच्च बलवत्तरम् ।। १४ ।।
"ब्रह्मन्! क्षत्रिय का बल कोई बल नहीं है। ब्राह्मण ही क्षत्रिय आदि से अधिक बलवान् होते हैं । ब्राह्मण का बल दिव्य है । वह क्षत्रिय-बल से अधिक प्रबल होता है ।। १४ ।।
अप्रमेय बलं तुभ्यं न त्वया बलवत्तरः ।
विश्वामित्रो महावीर्यस्तेजस्तव दुरासदम् ।। १५ ।।
"आपका बल अप्रमेय है । महापराक्रमी विश्वामित्र आपसे अधिक बलवान नहीं हैं । आपका तेज दुर्धर्ष है ।। १५ ।।
नियुङ्क्ष्व मां महातेजस्त्वं ब्रह्मबलसम्भृताम् ।
तस्य दर्पं बलं यत्नं नाशयामि दुरात्मनः ।। १६ ।।
"महातेजस्वी महर्षे ! मैं आपके ब्रह्मबल से परिपुष्ट हुई हूँ । अतः आप केवल मुझे आज्ञा दे दीजिए । मैं इस दुरात्मा राजा के बल, प्रयत्न और अभिमान को अभी चूर्ण किए देती हूँ ।' ।। १६ ।।
इत्युक्तस्तु तथा राम वसिष्ठस्तु महायशाः ।
सृजस्वेति तदोवाच बलं परबलार्दनम् ।। १७ ।।
'श्रीराम! कामधेनु के ऐसा कहने पर महायशस्वी वसिष्ठ ने उससे कहा ---
'इस शत्रु-सेना को नष्ट करनेवाले सैनिकों की सृष्टि करो'
।। १७ ।।
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सुरभिः सासृजत् तदा ।
तपस्या हुंभारवोत्सृष्टाः पह्लवाः शतशः नृप ।। १८ ।।
'राजकुमार! उनका यह आदेश सुनकर उस गौ ने उस समय वैसा ही किया । उसके हुंकार करते ही सैकड़ों पह्लव जाति के वीर पैदा हो गए ।। १८ ।।
नाशयन्ति बलं सर्वं विश्वामित्यस्य पश्यतः ।
स राजा परमक्रुद्धः क्रोधविस्फारितेक्षणः ।। १९ ।।
'वे सब, विश्वामित्र के देखते-देखते उनकी सारी सेना का नाश करने लगे । इससे राजा विश्वामित्र को बड़ा क्रोध हुआ । वे रोष से आँखें फाड़-फाड़कर देखने लगे ।। १९ ।।
पह्लवान् नाशयामास शस्त्रैरुच्चावचैरपि ।
विश्वामित्रार्दितान् दृष्ट्वा पह्लवाञ्शतशस्तदा ।। २० ।।
भूय एवासृजद् घोराञ्छकान् यवनमिश्रितान् ।
तैरासीत् संवृता भूमिः शकैर्यवनमिश्रितैः ।। २१ ।।
'उन्होंने छोटे-बड़े कई तरह के अस्त्रों का प्रयोग करके उन पह्लवों का संहार कर डाला । विश्वामित्र द्वारा उन सैकड़ों पह्लवों को पीड़ित और नष्ट हुआ देख उस समय उस शबला गौ ने पुनः यवन-मिश्रित शक जाति के भयंकर वीरों को उत्पन्न किया । उन यवन-मिश्रित शकों से वहाँ की सारी पृथ्वी भर गई ।
।। २०-२१ ।।
प्रभावद्भिर्महावीर्यैर्हिमकिंजल्कसंनिभैः ।
तीक्ष्णासिपट्टिशधरैर्हेमवर्णाम्बरावृतैः ।। २२ ।।
निर्दग्धं तद्बलं सर्वं प्रदीप्तैरिव पावकैः ।
ततोऽस्त्राणि महातेजा विश्वामित्रो मुमोच ह ।
तैस्ते यवनकाम्बोजा बर्बरश्चाकुलीकृताः ।। २३ ।।
'वे वीर महापराक्रमी और तेजस्वी थे । उनके शरीर की कान्ति सुवर्ण तथा केसर के समान थी । वे सुनहरे वस्त्रों से अपने शरीर को ढँके हुए थे । उन्होंने हाथों में तीखे खङ्ग और पट्टिश ले रखे थे । प्रज्वलित अग्नि के समान उद्भासित होनेवाले उन वीरों ने विश्वामित्र की सारी सेना को भस्म करना आरम्भ किया । तब महातेजस्वी विश्वामित्र ने उन पर बहुत से अस्त्र छोड़े । उन अस्त्रों की चोट खाकर वे यवन, काम्बोज और बर्बर जाति के योद्धा व्याकुल हो उठे' ।। २२-२३ ।।
सर्ग ५४ संपूर्ण हुआ ।
सर्ग ५५
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ततस्तानाकुलान् दृष्ट्वा विश्वामित्रास्त्रमोहितान् ।
वसिष्ठश्चोदयामास कामधुक् सृजयोगतः ।। १ ।।
'विश्वामित्र के अस्त्रों से घायल होकर, उन्हें व्याकुल हुआ देख, वसिष्ठजी ने फिर आज्ञा दी -- 'कामधेनो! अब योगबल से दूसरे सैनिकों की सृष्टि करो' ।। १ ।।
तस्या हुंकारतो जाताः काम्बोजा रविसंनिभाः ।
ऊधसश्चाथ सम्भूता बर्बराः शस्त्रपाणयः ।। २ ।।
'तब उस गौ ने पुनः हुंकार किया । उसके हुंकार से सूर्य के समान तेजस्वी काम्बोज उत्पन्न हुए। थन से शस्त्रधारी बर्बर प्रकट हुए ।। २ ।।
योनिदेशाच्च यवनाः शक्रद्देशाच्छकाः स्मृताः ।
रोमकूपेषु म्लेच्छाश्च हारीताः सकिरातकाः ।। ३ ।।
कामधेनु के योनिदेश से यवन, शकृ (गोबर) से शक, उत्पन्न हो गए। रोमकूपों से म्लेच्छों, हारीत तथा किरात जातियों का उद्भव हुआ।। ३।।
तैस्तन्निषूदितं सर्वं विश्वामित्रस्य तत्क्षणात् ।
सपदातिगजं साश्वं सरथं रघुनन्दन ।। ४ ।।
'रघुनन्दन! उन सब वीरों ने पैदल, हाथी, घोड़े और रथसहित विश्वामित्र की सारी सेना का तत्काल संहार कर डाला ।। ४ ।।
दृष्ट्वा निषूदितं सैन्यं वसिष्ठेन महात्मना ।
विश्वामित्रसुतानां तु शतं नानाविधायुधम् ।। ५ ।।
अभ्यधावत् सुसंक्रुद्धं वसिष्ठं जपता वरम् ।
हुंकारेणैव तान् सर्वान् निर्ददाह महानृषिः ।। ६ ।।
'महात्मा वसिष्ठ द्वारा अपनी सेना का संहार हुआ देख विश्वामित्र के सौ पुत्र अत्यन्त क्रोध में भर गये, और नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लेकर जप करनेवालों में श्रेष्ठ वसिष्ठ मुनि पर टूट पड़े ।
तब उन महर्षि ने हुंकारमात्र से उन सबको जलाकर भस्म कर डाला ।। ५-६ ।।
***
उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि किस प्रकार महर्षि वाल्मीकि ने विस्तारपूर्वक उन भिन्न भिन्न नृवंशों का उल्लेख यहाँ किया है, जो शबला कामधेनु गौ से उत्पन्न हुए थे।
शबला का अर्थ होता है मटमैला, भूरा, चितकबरा, जो पृथ्वी का ही रंग है । पृथ्वी ही कामधेनु है जैसा कि पृथ्वी सूक्त में भी माता पृथिवी की स्तुति में कहा गया है ।
विश्वामित्र ही आज का विज्ञान है और आज के शासक क्षात्र हैं। विश्वामित्र स्वयं भी क्षत्रिय हैं ।
मनुष्यों की जिन जातियों का उल्लेख ऊपर किया गया, उनका क्रम इस प्रकार है :
पह्लव - पहलवी ईरान के निवासी । किसी समय ईरान के सम्राट अपने आपको गौरवपूर्वक आर्यमेहर मुहम्मद रजा शाह पहलवी कहते थे । मेहर या मिहिर मित्र और इन्द्र मेघवान् का ही व्युत्पन्न है । रजा, -राजा का, शाह, -शास् का । इससे याद आता है कि भगवान् श्रीराम के भाई ने उनकी चरण-पादुकाओं को अयोध्या के राजसिंहासन पर रखकर १४ वर्ष तक अयोध्या का शासन किया था । इस प्रकार भरत पादशास् या पादशासीय राजा थे। छत्रपति शिवाजी ने भी अपने गुरु की पादुकाएँ राजसिंहासन पर रखकर राज्य का शासन किया । 'बादशाह', इसी पादशास् का अपभ्रंश है।
शक, यवन - हम सभी 'शक-संवत्' से परिचित ही हैं ।
यवन, - जैसा कि वर्णन किया गया, पृथ्वी के योनि-प्रदेश से उत्पन्न हुए और आज भी उन्हें ज्यू - Jew कहा जाता है जो यव(न) का ही अपभ्रंश है। दूसरा प्रचलित शब्द है Zion.
हमने 'पृथ्वी-सूक्तम् स्तोत्रम्' में 'स्योना' शब्द का प्रयोग देखा ही था। स्योना शब्द, स्योनः का स्त्रीलिंग है और हिब्रू में जिस स्थान और पर्वत का नाम 'Zion' है, वह स्थान भी इस स्योन के तात्पर्य का द्योतक है -- मनोहर, श्रेष्ठ, आकर्षक।
काम्बोज वही हैं जिनका देश है Cambodia.
बर्बर अर्थात् वे मंगोल जो मुगल हुए।
बाबर इसलिए जातिवाचक या व्यक्तिवाचक दोनों ही अर्थों में प्रयुक्त होता है । इससे मिलते जुलते शब्द और अपभ्रंश क्रमशः बर्बरीक और बबरक हैं ।
कामधेनु, शबला, पृथ्वी के योनिदेश से यवन हुए, यह तो स्पष्ट है ही, शकृ (गोबर के उत्सर्जन का स्थान) से शक उत्पन्न हुए।
रोमकूपों से म्लेच्छ उत्पन्न हुए।
Mlecca है, -- पुराना मलक्का, आज का मलेशिया।
इस प्रकार वाल्मीकि रामायण में उन सभी मानव जातियों का उल्लेख है जिनका उद्भव पूरी धरती पर अलग अलग स्थानों पर हुआ।
इसलिए यवन या Jew मूलतः religion न होकर वंश या Race है ।
वाल्मीकि रामायण के ही उत्तरकाण्ड, सर्ग ८७ में भगवान् श्री राम द्वारा लक्ष्मण को सुनाई गई महापराक्रमी पृथ्वी के सम्राट 'इल' की कथा है, जहाँ भगवान् श्रीराम लक्ष्मण से कहते हैं :
श्रूयते हि पुरा सौम्य कर्दमस्य प्रजापतेः ।
पुत्रो बाह्लीश्वरः श्रीमानिलो नाम सुधार्मिको ।। ३ ।।
'सौम्य! सुना जाता है कि पूर्वकाल में प्रजापति कर्दम के पुत्र श्रीमान् इल बाह्लीकदेश के राजा थे ।
वे बड़े धर्मात्मा नरेश थे ।। ३।।
(यह 'बाह्लीक' अधिक संभावना है कि वर्तमान बाल्किस्तान है या हो सकता है कि यह बाल्टिक समुद्र का क्षेत्र हो ।)
स राजा पृथिवीं सर्वां वशे कृत्वा महायशाः ।
राज्यं चैव नरव्याघ्र पुत्रवत् पर्यपालयत् ।। ४ ।।
'हे पुरुषसिंह लक्ष्मण! वे महायशस्वी भूपाल सारी पृथ्वी को वश में करके अपने राज्य की प्रजा का पुत्र की भाँति पालन करते थे ।। ४ ।।
सुरैश्च परमोदारैर्दैतेयैश्च महाधनैः ।
नागराराक्षसगन्धर्वैर्यक्षैश्च सुमहात्मभिः ।। ५ ।।
पूज्यते नित्यशः सौम्य भयार्तैः रघुनन्दन ।
अबिभ्यंश्च त्रयः लोकाः सरोषस्य महात्मनः ।। ६ ।।
'सौम्य! रघुनन्दन! परम उदार देवता, महाधनी दैत्य तथा नाग, राक्षस, गन्धर्व और महायशस्वी यक्ष -- ये सब भयभीत होकर सदा राजा इल की स्तुति पूजा करते थे तथा उस महामना के रुष्ट हो जाने पर तीनों लोकों के प्राणी भय से थर्रा उठते थे ।। ५-६ ।।
स राजा तादृशोऽप्यासीद् धर्मे वीर्ये च निष्ठितः ।
बुद्ध्या च परमोदारो बाह्लीकेशो महायशाः ।। ७ ।।
'ऐसे प्रभावशाली होने पर भी बाह्लीक देश के स्वामी महायशस्वी परम उदार राजा इल धर्म और पराक्रम में दृढतापूर्वक स्थित रहते थे और उनकी बुद्धि भी स्थिर थी ।। ७ ।।
इस प्रकार पूरी धरती के एक स्वामी के रूप में इल नामक राजा बाह्लीकनरेश था । इसी सर्ग में आगे वर्णन है कि वन में आखेट करते हुए यह राजा किस प्रकार सेना के सहित भूल से शिव के उस लोक में प्रविष्ट हो गया जहाँ भगवान् शिव माता पार्वती की प्रसन्नता के लिए स्त्रीवेश में, या स्त्रीरूप धारणकर रहा करते थे।उस लोक में सभी प्राणी, पशु-पक्षी, जलचर , यहाँ तक कि वृक्ष और लताएँ भी नारीरूप में ही थीं ।
राजा इल और उसके सैनिक तथा सेना भी इसलिए उस लोक में प्रविष्ट होते ही स्त्री के रूप में परिणत हो गए ।
कथा आगे चलकर महात्मा बुध (ग्रह) से इला अर्थात् राजा इल के स्त्रीरूप के संबंध का वर्णन करती है, जो खगोल ज्योतिष का विषय है।
एकेश्वरवाद का जन्म इसी राजा इल को पृथ्वी के एकमात्र ईश्वर कहे जाने से हुआ । यही ईश्वर अब्राहम से भी पूर्व का वह ईश्वर है, जिस पर अब्राहमिक परंपरा की तीनों शाखाएँ सहमत हैं ।
यह भी सत्य है कि जिस Jewish Religion की स्थापना मोजेस (Moses) ने की थी उसकी प्रेरणा उन्हें उसी 'यह्वः' / यहोवा से मिली थी जो मूलतः एक वैदिक देवता है।
जो प्रकारान्तर से यहूदियों का परमेश्वर है ।
पृथ्वी-सूक्त को यहाँ प्रस्तुत करते समय यह सब याद आया था।
नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे!
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