अथ पृथिवी सूक्तम् स्तोत्रम्
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भूम्यां देवेभ्यो ददति यज्ञं हव्यमरंकृतम् ।
भूम्यां मनुष्या जीवन्ति स्वधयान्नेन मर्त्याः ।
सा नो भूमिः प्राणमायुर्दधातु जरदष्टिं मा पृथिवी कृणोतु ।।२२।।
(जिस भूमि पर वेदियों में किए जानेवाले हवन और यज्ञ आदि से देवताओं को उनका यज्ञभाग प्रदान किया जाता है, जिस पर उत्पन्न अन्न आदि के सेवन से मनुष्य और दूसरे भी सभी मर्त्य, आयु और जीवन प्राप्त करते हैं, वह भूमिमाता हमारे लिए प्राण और वाँछित आयु दे । वह हमारे जीवन को जरा से रहित करे।)
यस्ते गन्धः पृथिवि संबभूव यः बिभ्रत्योषधयो यमापः।
यं गन्धर्वा अप्सरश्च भेजिरे तेन मा सुरभिं कृणु मा नो द्विक्षत कश्चन ।।२३।।
(हे पृथिवि! तुममें अवस्थित जो उत्तम सुगन्ध है, जो औषधियों और जल में ओत-प्रोत है, जिसका प्रयोग और उपभोग अप्सराएँ तथा गन्धर्व आदि करते हैं उससे तुम हमारे जीवन को सुरभित रखो! हम परस्पर द्वेष न करें, हममें परस्पर प्रीति रहे।)
यस्ते गन्धः पुष्करमाविवेश यं संजभ्रुः सूर्याया विवाहे।
अमर्त्याः पृथिवि गन्धमग्रे तेन मा सुरभिं कृणु मा नो द्विक्षत कदाचन।।२४।।
( हे भूमे! जो सुगन्ध प्रारंभ से तुममें ही है, तुमसे ही उसे ग्रहण कर कमल के पुष्प भी सुरभित हुए। सूर्या अर्थात् उषा से अपने परिणय के समय वायुदेवता ने भी उसी सुरभि से अपना अंगराग किया। हे पृथिवि! उसी सुरभि से तुम हमारे जीवन को सुरभित करो। हम परस्पर द्वेष न करें।)
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