अथ पृथ्वी सूक्तम् स्तोत्रम्
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यस्यां कृष्णमरुणं च संहिते
अहोरात्रे विहिते भूम्यामधि ।
वर्षेण भूमिः पृथिवी वृतावृता
सा नो दधातु भद्रया प्रिये धामनिधामनि ।।५२।।
(यह भूमि जिस पर नियमानुसार, एक ही समय पर कहीं पर तो अंधकार, और कहीं पर सूर्य की लालिमा, कहीं पर दिन तो कहीं पर रात्रि होते हैं, बारंबार क्रम से वर्षा का चक्र होता है, वह हमें अपने अपने प्रिय वास-स्थानों पर सुखपूर्वक प्रतिष्ठित करे।)
द्यौश्च म इदं पृथिवी चान्तरिक्षं मे व्यचः ।
अग्निः सूर्य आपो मेधां विश्वे देवाश्च सं ददुः ।।५३।।
(द्युलोक, पृथ्वी, अन्तरिक्ष, अग्नि, सूर्य तथा जल, सभी देवताओं ने हमें अनेक प्रकार से मेधा से संपन्न कर मेधावी बनाया है।)
टिप्पणी : व्यच् - तुदादिगण, - व्याजीकरणे because of,
अहमस्मि सहमान उत्तरो नाम भूम्याम् ।
अभीषाडस्मि विश्वाषाडाशामाशां विषासहि।।५४।।
(इसलिए, सामर्थ्य और क्षमता में, मैं अपने सभी प्रतिद्वन्द्वियों से अधिक शक्ति-संपन्न हूँ, अधिक निर्भय, साहसी और पराक्रमी हूँ, मुझमें यह सामर्थ्य है कि मैं सभी पर शासन कर सकूँ।)
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टिप्पणी :
इस सूक्त का पाठ करनेवाले वेद के ऋषि को पता है कि किसी भी एक ही निश्चित समय पर पृथ्वी के विभिन्न हिस्सों पर कहीं सूर्योदय, कहीं दोपहर, कहीं सूर्यास्त, और कहीं पर रात्रि हुआ करती है।
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